
श्रीमद् भगवत गीता का प्रबोध-27
जिस तरह मर्यादा पुुरुषोत्तम श्रीराम के चरित्र को लेकर कहा गया है कि ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता…’ उसी प्रकार भगवान कृष्ण के मुखार बिन्दु से प्रस्फुटित हुई श्रीमद् भगवत गीता का सार भी अतल गहराइयों वाला है। विद्वानों ने अपने-अपने तरह से गीता के रहस्य को समझने और समझाने का प्रयास किया है। गीता का प्रारंभ ही जिस श्लोक से होता है उसकी गहराई को समझना आसान नहीं है। कौरवों और पांडवों के मध्य जो युद्ध लड़ा गया वह भी धर्म क्षेत्रे अर्थात धर्म भूमि और कुरु क्षेत्रे अर्थात तीर्थ भूमि पर लड़ा गया जिससे युद्ध में वीर गति प्राप्त होने वालों का कल्याण हो गया। इसी तरह की व्याख्या स्वामी रामसुख दास ने गीता प्रबोधनी में की है जिसे हम हिफी के पाठकों के लिए क्रमशः प्रकाशित करने का प्रयास करेंगे। हम स्वामी जी के आभारी हैं जिन्होंने गीता के श्लोकों की सरल शब्दों में व्याख्या की है। -प्रधान सम्पादक
समबुद्धि वाला मनुष्य ही श्रेष्ठ होता है
बन्धुरात्मात्मननस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः।
अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मव शत्रुवत्।। 6।।
जिसने अपने-आपसे अपने-आपको जीत लिया है, उसके लिये आप ही अपना बन्धु है और जिसने अपने-आपको नहीं जीता है, ऐसे अनत्मा का आत्मा ही शत्रुता में शत्रु की तरह बर्ताव करता है।
व्याख्या-शरीर को मैं, मेरा और मेरे लिये न मानना अपने साथ मित्रता करना है। शरीर को मैं, मेरा और मेरे लिये मानना अपने साथ शत्रुता करना है। आप ही अपना मित्र बनकर मनुष्य अपना जितना भला कर सकता है, उतना दूसरा कोई मित्र नहीं कर सकता। इसी प्रकार आप ही अपना शत्रु बनकर मनुष्य अपना जितना नुकसान कर सकता है, उतना दूसरा कोई शत्रु नहीं कर सकता।
जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः।
शीतोष्णसुखदुः खेषुः तथा मानापमानयोः।। 7।।
जिसने अपने पर विजय प्राप्त कर ली है, उस शीता-उष्ण अनुकूलता-प्रतिकूलता, सुख-दुःख तथा मान-अपमान में निर्विकार मनुष्य को परमात्मा नित्य प्राप्त हैं।
ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो विजितेन्द्रियः।
युक्त इत्युच्यते योगी समलोष्टाश्मकांचनः।। 8।।
जिसका अन्तःकरण ज्ञान-विज्ञान से तृप्त है, जो कूट की तरह निर्विकार है, जितेन्द्रिय है और मिट्टी, ढेले, पत्थर तथा स्वर्ण में सम बुद्धिवाला है-ऐसा योगी युक्त योगारूढ़ कहा जाता है।
सुहृन्मित्रार्युदासीन मध्यस्थेद्वेष्यबन्धुषु।
साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते।। 9।।
सुहृद, मित्र, वैरी, उदासीन, मध्यस्थ, द्वेष्य और सम्बन्धियों में तथा साधु-आचरण करने वालों में और पाप-आचरण करने वालों में भी समबुद्धि वाला मनुष्य श्रेष्ठ है।
व्याख्या-जिनसे व्यवहार में एकता नहीं करनी चाहिये और एकता कर भी नहीं सकते, उन मिट्टी के ढेले, पत्थर और स्वर्ण में और सुहृद, मित्र, वैरी, उदासीन, मध्यस्थ, द्वेष, बन्धु, साधु तथा पापी व्यक्तियों में भी कर्मयोगी महापुरुष की समबुद्धि रहती है। तात्पर्य है कि उसकी दृष्टि सब प्राणी-पदार्थों में समरूप से परिपूर्ण परमात्मतत्त्व पर ही रहती है। जैसे सोने से बने गहनों को देखें तो उनमें बहुत अन्तर दीखता है, पर सोने को देखें तो कोई अन्तर नहीं, एक सोना-ही-सोना है। इसी प्रकार सांसारिक प्राणी-पदार्थों को देखें तो उनमें बहुत बड़ा अन्तर है, पर तत्त्व से देखें तो एक परमात्मा-ही-परमात्मा हैं।
योगी युञजीत सततमात्मानं रहसि स्थितः।
एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः।। 10।।
भोग बुद्धि से संग्रह न करने वाला, इच्छा रहित और अन्तःकरण तथा शरीर को वश में रखने वाला योगी अकेला एकान्त में स्थित होकर मन को निरन्तर (परमात्मा में) लगाये।
व्याख्या-ध्यान योग का अधिकारी वह है, जो अपने सुख भोग के लिए विभिन्न वस्तुओं का संग्रह नहीं करता, जिसके मन में भोगों की कामना नहीं है और जिसका अन्तःकरण तथा शरीर उसके वश में है। तात्पर्य है कि
ध्यान योग के साधक का उद्देश्य केवल परमात्मा को प्राप्त करने का हो, लौकिक सिद्धियों को प्राप्त करने का नहीं।
पूर्व पक्ष-युद्ध के समय में अर्जुन को ध्यान योग का उपदेश देने का क्या औचित्य है?
उत्तर पक्ष-अर्जुन पाप से डरते थे, युद्ध से नहीं। उन्हें युद्ध से अधिक अपने कल्याण (श्रेय) की चिन्ता थी (गीता 2/7, 3/2, 5/1)। इसलिए कल्याण के जितने मुख्य साधन हैं, उन सबका भगवान् गीता में वर्णन करते हैं। इसी कारण गीता मानव मात्र के कल्याण का मार्ग प्रशस्त करती है।
शुचै देशे प्रतिष्ठाय स्थिरमासनमात्मनः।
नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम्।। 11।।
शुद्ध भूमि पर जिस पर (क्रमशः) कुश, मृगछाला और वस्त्र बिछे हैं, जो न अत्यन्त ऊँचा है और न अत्यन्त नीचा, ऐसे अपने आसन को स्थिर स्थापन करके।
तत्रैकाग्रं मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः।
उपविश्यासने युंज्याद्योगमात्मविशुद्धये।। 12।।
उस आसन पर बैठकर चित्त और इन्द्रियों की क्रियाओं को वश में रखते हुए मन को एकाग्र करके अन्तकरण की शुद्धि के लिए योग का अभ्यास करे।
समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः।
सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन्।। 13।।
काया, सिर और गले को सीधे अचल धारण करके तथा दिशाओं को न देखकर केवल अपनी नासिका के अग्रभाग को देखते हुए स्थिर होकर बैठे।
प्रशान्तात्मा विगतभीब्र्रह्मचारिव्रते स्थितः।
मनः संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्परः।। 14।।
जिसका अन्तःकरण शान्त है, जो भय रहित है और जो ब्रह्मचारिव्रत में स्थित है, ऐसा सावधान ध्यान योगी मन का संयम करके मुझ में चित्त लगाता हुआ मेरे परायण होकर बैठें।
व्याख्या-जिसका अन्तःकरण राग-द्वेषादि द्वन्द्वों से रहित है, जो शरीर में मैं-मेरापन न होने से भय रहित है और जो ब्रह्मचारी के नियमों का पालन करता है, वही ध्यान योग का अधिकारी है। ध्यान योगी सावधानी पूर्वक मन को संसार से हटाकर भगवान् में लगाये। वह भगवान् के ही परायण हो अर्थात् भगवत्प्राप्ति के सिवाय उसका अन्य कोई उद्देश्य नहीं हो।
युज्जन्नेवं सदात्मानं योगी नियतमानसः।
शान्तिं निर्वाणपरमां मत्संस्थामधिगच्छति।। 15।।
वश में किये हुए मन वाला योगी मन को इस तरह से सदा (परमात्मा में) लगाता हुआ मुझमें सम्यक् स्थिति वाली जो निर्वाण परमा शान्ति है, उसको प्राप्त हो जाता है।
नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नतः।
न चाति स्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन।। 16।।
हे अर्जुन! यह योग न तो अधिक खाने वाले का और न बिलकुल न खाने वाला का तथा न अधिक सोने वाले का और न बिलकुल न सोने वाला का ही सिद्ध होता है। -क्रमशः (हिफी)