धर्म-अध्यात्म

अर्जुन ने पूछा मन स्थिर कैसे हो

श्रीमद् भगवत गीता का प्रबोध-30

 

जिस तरह मर्यादा पुुरुषोत्तम श्रीराम के चरित्र को लेकर कहा गया है कि ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता…’ उसी प्रकार भगवान कृष्ण के मुखार बिन्दु से प्रस्फुटित हुई श्रीमद् भगवत गीता का सार भी अतल गहराइयों वाला है। विद्वानों ने अपने-अपने तरह से गीता के रहस्य को समझने और समझाने का प्रयास किया है। गीता का प्रारंभ ही जिस श्लोक से होता है उसकी गहराई को समझना आसान नहीं है। कौरवों और पांडवों के मध्य जो युद्ध लड़ा गया वह भी धर्म क्षेत्रे अर्थात धर्म भूमि और कुरु क्षेत्रे अर्थात तीर्थ भूमि पर लड़ा गया जिससे युद्ध में वीर गति प्राप्त होने वालों का कल्याण हो गया। इसी तरह की व्याख्या स्वामी रामसुख दास ने गीता प्रबोधनी में की है जिसे हम हिफी के पाठकों के लिए क्रमशः प्रकाशित करने का प्रयास करेंगे। हम स्वामी जी के आभारी हैं जिन्होंने गीता के श्लोकों की सरल शब्दों में व्याख्या की है। -प्रधान सम्पादक 

अर्जुन ने पूछा मन स्थिर कैसे हो

योऽयं योगस्त्वया प्रोक्तः साम्येन मधुसूदन।
एतस्याहं न पश्यामि चंचलत्वात्स्थितिं स्थिराम्।। 33।।
अर्जुन बोले-हे मधुसूदन! आपने समतापूर्वक जो यह योग कहा है, मन की चंचलता के कारण मैं इस योग की स्थिर स्थिति नहीं देखता हूँ।
चंचलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम्।
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्।। 34।।
कारण कि हे कृष्ण! मन बड़ा ही चंचल, प्रमथनशील, दृढ़ जिद्दी और बलवान है। उसको रोकना मैं (आकाश में स्थित) वायु की तरह अत्यन्त कठिन मानता हूँ।
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते।। 35।।
श्री भगवान् बोले-हे महाबाहो! यह मन बड़ा चंचल है और इसका निग्रह करना ही बड़ा कठिन है। यह तुम्हारा कहना बिलकुल ठीक है।
परन्तु हे कुन्तीनन्दन! अभ्यास और वैराग्य के द्वारा इसका निग्रह किया जाता है।
व्याख्या-अर्जुन ने दो श्लोकों में प्रश्न किया और भगवान् ने आधे श्लोक में ही उसका उत्तर दिया-इससे सिद्ध होता है कि भगवान् ने मन की एकाग्रता को अधिक महत्त्व नहीं दिया।
असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मतिः।
वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायतः।। 36।।
जिसका मन पूरा वश में नहीं है, उसके द्वारा योग प्राप्त होना कठिन है। परन्तु उपायपूर्वक यत्न करने वाले तथा वश में किये हुए मन वाले साधक को योग प्राप्त हो सकता है, ऐसा मेरा मत है।
व्याख्या-अर्जुन ने ध्यान योग के सिद्ध होने में मन की चंचलता को बाधक मान लिया। वास्तव में मन की चंचलता उतनी बाधक नहीं है, जितना मन का वश में न होना बाधक है। पतिव्रता स्त्री मन को एकाग्र नहीं करती, प्रत्युत मन को वश में रखती है।
मन एकाग्र होने से (अन्तःकरण में स्थित राग के कारण) सिद्धियाँ आती हैं, जिससे जड़ता के साथ सम्बन्ध बना रहता है। दूसरी बात, मन को एकाग्र करने के लिये अभ्यास आवश्यक है, जो जड़ता की सहायता के बिना सम्भव नहीं है, तीसरी बात, एकाग्र होने पर मन कुछ समय के लिय निरुद्ध हो जाता है, जिससे फिर व्युत्थान हो जाता है। तात्पर्य है कि मन एकाग्र होेने से जड़ता से सम्बन्ध-विच्छेद नहीं होता है। परन्तु राग का नाश होेने पर जड़ता से सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है। इसलिये भगवान् के मत में मन की एकाग्रता का महत्त्व नहीं है, प्रत्युत राग रहित होने का महत्त्व है।
मन को वश में अर्थात् शुद्ध करने के दो उपाय हैं-कहीं भी राग-द्वेष न हो और सबमें भगवान् को देखना। जब तक साधक के भीतर राग-द्वेष रहते हैं, तब तक वह सबमें भगवान् को नहीं देख पाता। जब तक साधक सबमें भगवान को नहीं देखता, तब तक मन सर्वथा वश में नहीं होता। कारण कि जब तक साधक की दृष्टि में एक भगवान् के सिवाय दूसरी सत्ता की मान्यता रहती है, तब तक मन का सर्वथा निरोध नहीं हो सकता।
अयतिः श्रद्धयोपेतो योगाच्चलितमानसः।
अप्राप्य योगसंसिद्धिं कां गतिं कृष्ण गच्छति।। 37।।
अर्जुन बोले-हे कृष्ण! जिसकी साधन में श्रद्धा है, पर जिसका प्रयत्न शिथिल है, वह अन्त समय मंे अगर योग से विचलित हो जाय तो वह योग सिद्धि को प्राप्त न करके किस गति को चला जाता है?
कच्चिन्नोभयविभ्रष्टश्छिन्ना भ्रमिव नश्यति।
अप्रतिष्ठो महाबाहो विमूढज्ञे ब्रह्मणः पथि।। 38।।
हे महाबाहो! संसार के आश्रय से रहित और परमात्म प्राप्ति के मार्ग में मोहित अर्थात् विचलित इस तरह दोनों ओर से भ्रष्ट हुआ साधक क्या छिन्न-भिन्न बादल की तरह नष्ट तो नहीं हो जाता?
एतन्मे संशयं कृष्ण छेत्तुमर्हस्यशेषतः।
त्वदन्यः संशयस्यास्य छेत्ता न ह्युपपद्यते।। 39।।
हे कृष्ण! मेरे इस सन्देह का सर्वथा छेदन करने के लिये आप ही योग्य हैं, क्योंकि इस संशय का छेदन करने वाला आपके सिवाय दूसरा कोई हो नहीं सकता।
पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते।
न हि कल्याण कृत्कश्चिद्दुर्गतिं तात गच्छति।। 40।।
श्री भगवान बोले-हे पृथानन्दन! उसका न तो इस लोक में और न परलोक में ही विनाश होता है, क्योंकि हे प्यारे! कल्याणकारी काम करने वाला कोई भी मनुष्य दुर्गति को नहीं जाता।
व्याख्या-जैसे कोई बद्रीनाथ की यात्रा पर निकले तो वह रात होते-होते जहाँ तक पहुँच चुका है, प्रातः उठने के बाद वह वहीं से यात्रा आरम्भ
करता है। रात को सेाने पर वह वापस अपने घर नहीं पहुँच जाता! ऐसे ही ध्यान योगी जिस स्थिति तक पहुँच चुका है, मरने पर वह उस स्थिति से नीचे नहीं गिरता। उसका किया हुआ साधन नष्ट नहीं होता। कारण यह है कि उसका उद्देश्य अपने कल्याण का बन चुका है। अब वह दुर्गति में नहीं
जा सकता। इसलिये परमात्म प्राप्ति के मार्ग में निराश होने का कोई स्थान नहीं है।
प्राप्य पुण्यकृतां लोकानुषित्वा शाश्वतीः समाः।
शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते।। 41।।
वह योग भ्रष्ट पुण्य कर्म करने वालों के लोकांे को प्राप्त होकर और वहाँ बहुत वर्षों तक रहकर फिर यहाँ शुद्ध ममता रहित श्रीमानों के घर में जन्म लेता है।-क्रमशः (हिफी)

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