धर्म-अध्यात्म

आठ भेदों वाली है अपराप्रकृति

श्रीमद् भगवत गीता का प्रबोध-32

 

जिस तरह मर्यादा पुुरुषोत्तम श्रीराम के चरित्र को लेकर कहा गया है कि ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता…’ उसी प्रकार भगवान कृष्ण के मुखार बिन्दु से प्रस्फुटित हुई श्रीमद् भगवत गीता का सार भी अतल गहराइयों वाला है। विद्वानों ने अपने-अपने तरह से गीता के रहस्य को समझने और समझाने का प्रयास किया है। गीता का प्रारंभ ही जिस श्लोक से होता है उसकी गहराई को समझना आसान नहीं है। कौरवों और पांडवों के मध्य जो युद्ध लड़ा गया वह भी धर्म क्षेत्रे अर्थात धर्म भूमि और कुरु क्षेत्रे अर्थात तीर्थ भूमि पर लड़ा गया जिससे युद्ध में वीर गति प्राप्त होने वालों का कल्याण हो गया। इसी तरह की व्याख्या स्वामी रामसुख दास ने गीता प्रबोधनी में की है जिसे हम हिफी के पाठकों के लिए क्रमशः प्रकाशित करने का प्रयास करेंगे। हम स्वामी जी के आभारी हैं जिन्होंने गीता के श्लोकों की सरल शब्दों में व्याख्या की है। -प्रधान सम्पादक 

आठ भेदों वाली है अपराप्रकृति

(सातवाँ अध्याय)
मय्यासक्तमनाः पार्थ योगं युंजन्मदाश्रयः।
असंशयं समग्रं मां यथा ज्ञास्यसि तच्छृणु।। 1।।
श्री भगवान बोले-हे पृथानन्दन! मुझ में आसक्त मन वाला, मेरे आश्रित होकर योग का अभ्यास करता हुआ तू मेरे जिस समग्र रूप को निःसन्देह जिस प्रकार से जानेगा, उसको (उसी प्रकार से) सुन।
व्याख्या-आत्मीयता के कारण जिसका मन भगवान् की ओर आकर्षित हो गया है, जो सब प्रकार से भगवान् के आश्रित हो गया है और जिसने भगवान् के साथ अपने नित्य-सम्बन्ध को पहचान लिया है, ऐसा भक्त भगवान् के समग्र रूप को जान लेता है। सगुण-निर्गुण, साकार-निराकार आदि सब कुछ एक भगवान् ही हैं-यह भगवान् का समग्र रूप है। भगवान् कहते हैं कि पार्थ! अपने समग्र रूप का वर्णन मैं इस ढंग से करूँगा, जिससे तू मेरे समग्र रूप को सुगमता पूर्वक यथार्थ रूप से जान लेगा और तेरे सब संशय मिट जायँगे।
ज्ञानं तेऽहं सविज्ञानमिदं वक्ष्यामयशेषतः।
यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते।। 2।।
तेरे लिये मैं यह विज्ञान सहित ज्ञान सम्पूर्णता से कहूँगा, जिसको जानने के बाद फिर इस विषय में जानने योग्य अन्य (कुछ भी) शेष नहीं रहेगा।
व्याख्या-परा तथा अपरा प्रकृति की स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। यह ‘ज्ञान’ है और परा-अपरा सब कुछ एक भगवान् ही हैं-यह ‘विज्ञान’ है। अहम् सहित सब कुछ भगवान् हैं-यह भगवान् का समग्र रूप ही विज्ञान सहित ज्ञान है। इस विज्ञान सहित ज्ञान को जानने के बाद और कुछ भी जानना शेष नहीं रहता, क्योंकि सब कुछ भगवान ही हैं। इसके जानने के बाद यदि कुछ शेष रहेगा तो वह भी भगवान् ही होंगे।
मनुष्याणां सहóेषु कश्चिद्यतति सिद्धये।
यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः।। 3।।
हजारों मनुष्यों में कोई एक सिद्धि (कल्याण) के लिये यत्न करता है और उन यत्न करने वाले सिद्धिों (मुक्त पुरुषों) में कोई एक ही मुझे यथार्थ रूप से जानता है।
व्याख्या-वास्तव में परमातत्त्व की प्राप्ति कठिन या दुर्लभ नहीं है, प्रत्युत परमात्म प्राप्ति के मार्ग पर चलने वाले बहुत कम हैं। अधिकतर मनुष्य सांसारिक भोग और संग्रह में ही रचे-पचे रहते हैं। इसलिये हजारों मनुष्यों में कोई एक ही मनुष्य लगनपूर्वक परमात्मा की तरफ चलता है। परन्तु लगन के साथ भोगेच्छा, मान-बड़ाई और आराम की इच्छा भी रहने के कारण उनमें भी कोई एक परमात्मतत्त्व को प्राप्त करता है। परमात्मा को प्राप्त उन जीवन्मुक्त ज्ञानी महापुरुषों में भी कोई एक ही भगवान् को जानने की इच्छा वाला तथा भगवान् पर विश्वास रखने वाला महापुरुष सब कुछ भगवान् ही हैं-इस प्रकार भगवान् के समग्र रूप को जानता है और भगवत्प्रेम को प्राप्त करता है। तात्पर्य है कि भगवान् समग्र रूप को जानने वाला प्रेमी भक्त अत्यन्त दुर्लभ है (गीता 7/19)।
भगवान् के समग्र रूप को जानना ही भगवान् को यथार्थ रूप से जानना है। भगवान् के यथार्थ रूप को भक्ति से ही जाना जा सकता है (गीता 18/55)
जिस साधक के भीतर भक्ति के संस्कार हैं, जो भक्ति का खण्डन नहीं करता, वह जब मुक्त होता है तब उसके भीतर नाशवान् रस की कामना तो सर्वथा मिट जाती है, पर अनन्त रस की भूख नहीं मिटती। तब भगवान् कृपा करके उसकी मुक्ति के अखण्ड रस को फीका कर देते हैं और प्रेम का अनन्त रस प्रदान करते हैं।
किसी वस्तु के आकर्षण से जो सुख मिलता है, वह सुख उस वस्तु के ज्ञान से नहीं मिलता-यह सिद्धांत है। जैसे, रूपयों के आकर्षण (लोभ) से जो सुख मिलता है, वह रुपयों के ज्ञान से नहीं मिलता।
कर्मयोग में संसार से सम्बन्ध-विच्छेद होने पर शान्त आनन्द (शान्ति) मिलता है। ज्ञान योग में स्वरूप का बोध होने पर अखण्ड आनन्द मिलता है। भक्ति योग में भगवान् की ओर आकर्षण होने से अनन्त आनन्द (प्रतिक्षण वर्धमान प्रेम) मिलता है।
भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च।
अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा।। 4।।
अपरेयमिस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम।
जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्।। 5।।
पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश ये पंच महाभूत और मन, बुद्धि तथा अहंकार इस प्रकार यह आठ प्रकार के भेदों वाली मेरी यह अपरा प्रकृति है और हे महाबाहो! इस अपरा प्रकृति से भिन्न जीव रूप बनी हुई मेरी परा प्रकृति को जान, जिसके द्वारा यह जगत् धारण किया जाता है।
व्याख्या-जब चेतन-तत्त्व अपरा प्रकृति के अहंकार के साथ तादात्म्य कर लेता है, तब वह ‘परा प्रकृति’ कहलाता है। अपरा (जगत) और परा (जीव) दोनों ही भगवान् की प्रकृतियाँ अर्थात् शक्तियाँ हैं, स्वभाव हैं। शक्तिमान् के बिना शक्ति की स्वतन्त्र सत्ता नहीं होती। जैसे नख और केश निष्प्राण होते हुए भी प्राण युक्त शरीर से भिन्न नहीं होते, ऐसे ही अपरा प्रकृति जड़ होते हुए भी चेतन परमात्मा से भिन्न नहीं होती। अतः अपरा और परा-दोनों प्रकतियाँ भगवान् का स्वरूप होने से भगवान् के सिवाय कुछ भी शेष नहीं रहा!
इस जगत् को जीव ने ही धारण कर रखा है। तात्पर्य है कि जगत् न तो परमात्मा की दृष्टि में है, न महात्मा की दृष्टि में है, प्रत्युत जीव की दृष्टि में है। जीव ने ही जगत् को सत्ता और महत्ता देकर उसमें अपनापन कर लिया और जन्म-मरण रूप बन्धन में पड़ गया।
पृथ्वी से लेकर अहंकार तक सब जड़ अपरा प्रकृति है। अतः जैसे पृथ्वी, जल, अग्नि आदि जानने में आने वाले हैं, ऐसे ही अहंकार भी जानने में आने वाला है। उस अहंकार से तादात्म्य करके जीव अपने को मैं हूँ-ऐसा मान लेता है। इसमें ‘मैं’ तो अपरा प्रकृति है और हूँ परा प्रकृति है। अहंकार से सम्बन्ध-विच्छेद होने पर ‘मैं’ का तो अभाव हो जाता है और ‘हूँ’ चिन्मय सत्ता मात्र है में परिणत हो जाता है-यही मोक्ष है।
अहम् को धारण करने से जीव ने सम्पूर्ण अपरा प्रकृृति को धारण कर लिया। ‘मैं हूँ-इस अभिमान को रखना ही अपरा प्रकृति को धारण करना है। यदि अहम् अभिमान शून्य हो जाय अर्थात् अभिमान न रहकर अपरा प्रकृति का शुद्ध अहम् रह जाय तो वह बन्धन कारक नहीं होता, जैसे पृथ्वी, जल, अग्नि आदि कभी बन्धन कारक नहीं होते। -क्रमशः (हिफी)

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