धर्म-अध्यात्म

देव उपासना का मर्म

श्रीमद् भगवत गीता का प्रबोध-36

 

श्रीमद् भगवत गीता का प्रबोध-36
जिस तरह मर्यादा पुुरुषोत्तम श्रीराम के चरित्र को लेकर कहा गया है कि ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता…’ उसी प्रकार भगवान कृष्ण के मुखार बिन्दु से प्रस्फुटित हुई श्रीमद् भगवत गीता का सार भी अतल गहराइयों वाला है। विद्वानों ने अपने-अपने तरह से गीता के रहस्य को समझने और समझाने का प्रयास किया है। गीता का प्रारंभ ही जिस श्लोक से होता है उसकी गहराई को समझना आसान नहीं है। कौरवों और पांडवों के मध्य जो युद्ध लड़ा गया वह भी धर्म क्षेत्रे अर्थात धर्म भूमि और कुरु क्षेत्रे अर्थात तीर्थ भूमि पर लड़ा गया जिससे युद्ध में वीर गति प्राप्त होने वालों का कल्याण हो गया। इसी तरह की व्याख्या स्वामी रामसुख दास ने गीता प्रबोधनी में की है जिसे हम हिफी के पाठकों के लिए क्रमशः प्रकाशित करने का प्रयास करेंगे। हम स्वामी जी के आभारी हैं जिन्होंने गीता के श्लोकों की सरल शब्दों में व्याख्या की है। -प्रधान सम्पादक 

देव उपासना का मर्म

यो यो यां यां तनुं भक्तः श्रद्धयार्चितुमिच्छति।
तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम्।। 21।।
जो-जो भक्त जिस-जिस देवता का श्रद्धापूर्वक पूजन करना चाहता है, उस-उस देवता में ही मैं उसी श्रद्धा को दृढ़ कर देता हूँ।
व्याख्या-संसार में प्रायः देखा जाता है कि मनुष्य दूसरे मनुष्यों को अपनी तरफ लगाना चाहते हैं कि वे मुझ पर श्रद्धा रखें, मेरे शिष्य बनें, मेरा सम्मान करें, मेरे सम्प्रदाय को मानें, मेरी आज्ञा मानें आदि। परन्तु सर्वोपरि होते हुए भी भगवान् के स्वभाव में यह बात नहीं है। जो मनुष्य जहाँ लगना चाहता है, भगवान् उसे वहीं लगा देते हैं-यह भगवान् का पक्षपात रहित स्वभाव है।
स तया श्रद्धया युक्तस्तस्याराधनमीहते।
लभते च ततः कामान्मयैव विहितान्हितान्।। 22।।
उस मेरे द्वारा दृढ़ की हुई श्रद्धा से युक्त होकर वह मनुष्य उस देवता की सकाम भाव पूर्वक उपासना करता है और उसकी वह कामना पूरी भी होती है परन्तु वह कामना पूर्ति मेरे द्वारा ही विहित की हुई होती है।
व्याख्या-भगवान् ही मनुष्य की श्रद्धा को उसकी इच्छा के अनुसार अन्य देवताओं में दृढ़ करते हैं और वे ही अन्य देवताओं के द्वारा मनुष्य की कामनाओं की पूर्ति करवाते हैं-यह भगवान् की उदारता है, परन्तु मनुष्य यही समझता है कि अन्य देवताओं की उपासना से मेरी कामनापूर्ति हुई है। वास्तव में सभी देवता भगवान् के अधीन हैं। उन्हें कामनापूर्ति का अधिकार और सामथ्र्य भगवान् का ही दिया हुआ है।
अन्तवत्तु फलं तेषां त˜वत्यल्पमेधसाम्।
देवान्देवयजो यान्ति म˜क्ता यान्ति मामपि।। 23।।
परन्तु उन तुच्छ बुद्धि वाले मनुष्यों को उन देवताओं की आराधना का फल अन्तवाला (नाशवान) ही मिलता है। देवताओं का पूजन करने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं और मेरे भक्त मुझे ही प्राप्त होते हैं।
व्याख्या-जो मनुष्य सकाम भाव रखने वाले तथा देवताओं को भगवान् से भिन्न समझने वाले हैं, उन्हें नाशवान् फल की प्राप्ति होती है। जीते-जी तथा मृत्यु के बाद उन्हें जो पदार्थ, लोक आदि मिलते हैं, वे सभी नाशवान् अर्थात् मिलने-बिछुड़ने वाले होते हैं। ऐसे मनुष्य अपने को कितना ही बुद्धिमान समझें, पर वास्तव में वे अल्प बुद्धि वाले ही हैं।
पूर्व पक्ष-अर्थार्थी भक्त को भी नाशवान् धन की प्राप्ति होती है, फिर उसमें और देवताओं का पूजन करने वाले में अन्तर क्या हुआ?
उत्तर पक्ष-नाशवान् धन आदि मिलने पर भी अर्थार्थी और आर्त भक्त में मुख्यता (महत्ता) भगवान् की ही रहती है, धन आदि की नहीं। उनमें अर्थार्थी भाव तथा आर्तभाव तो गौण होता है, पर भगव˜ाव मुख्य होता है। इसलिये समय पाकर उनका अर्थार्थी भाव तथा आर्तभाव भी मिट जाता है, टिकता नहीं। परन्तु देवताओं की उपासना करने वाले सांसारिक मनुष्यों के हृदय में धन आदि की मुख्यता और देवताओं की गौणता रहती है।
अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धयः।
परं भावमजान्तो ममाव्ययमनुत्तमम्।। 24।।
बुद्धिहीन मनुष्य मेरे परम् अविनाशी और सर्वश्रेष्ठ भाव को न जानते हुए अव्यक्त (मन-इन्द्रियों से परे) मुझ सच्चिदानन्दघन परमात्मा को मनुष्य की तरह शरीर धारण करने वाला मानते हैं।
व्याख्या-सकाम भाव से देवताओं की उपासना करने वाले मनुष्य भगवान् को साधारण मनुष्य की तरह जन्मने-मरने वाला मानते हैं, इसलिये वे भगवान् की उपासना नहीं करते। वास्तव में भगवान् अव्यक्त भी हैं, व्यक्त भी हैं और अव्यक्त तथा व्यक्त दोनों से परे (निरपेक्ष प्रकाशक) भी हैं-‘सदस्त्तत्परं यत्’ (गीता 11/37)।
नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमावृतः।
मूढोऽयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम्।। 25।।
यह जो मूढ़ मनुष्य समुदाय मुझे अज और अविनाशी ठीक तरह से नहीं जानता (मानता), उन सबके सामने योग माया से अच्छी तरह ढका हुआ मैं प्रकट नहीं होता।
व्याख्या-भगवान् अवतार काल में सबके सामने प्रकट होते हुए भी मूढ़ मनुष्यों को भगवद् रूप से न दीखकर मनुष्य रूप से ही दीखते हैं। मनुष्य अपने भावों के अनुसार ही योग माया से ढके हुए भगवान् को देखते हैं। भगवान् अलौकिक होते हुए भी योग माया से ढके रहने के कारण लौकिक प्रतीत होते हैं।
वेदाहं समतीतानि वर्तमानानि चार्जुन।
भविष्याणि च भूतानि मां तु वेद न कश्चन।। 26।।
हे अर्जुन! जो प्राणी भूतकाल में हो चुके हैं तथा जो वर्तमान में और जो भविष्य में होंगे, उन सब प्राणियों को तो मैं जानता हूँ, परन्तु मुझे भक्त के सिवाय कोई भी प्राणी नहीं जानता।
व्याख्या-भगवान की दृष्टि में भूत-भविष्य-वर्तमान काल का भेद नहीं है। काल की सत्ता जीव की दृष्टि में है। इसलिये हमें समझाने के लिये भगवान् तीनों कालों की बात करते हैं। तात्पर्य है कि भूत, भविष्य और वर्तमान के सभी जीव निरन्तर भगवान् की दृष्टि में रहते हैं।
पूर्व पक्ष-जब भगवान् सब जीवों को जानते हैं तो फिर जिसे बद्ध जानते हैं, वह सदा बद्ध ही रहेगा, मुक्त कैसे होगा?
उत्तर पक्ष-यह शंका संसार की सत्ता को लेकर हमारी दृष्टि में है। वास्तव में भगवान् तथा उनके भक्त दोनों की दृष्टि में भगवान् के सिवाय अन्य कुछ है ही नहीं। बन्धन और मोक्ष जीव की दृष्टि में हैं। तत्त्व से न बन्धन है, न मोक्ष, प्रत्युत केवल परमात्मा ही हैं-वासुदेवः सर्वम्। अपना उद्धार करने में मनुष्य स्वतन्त्र है (गीता 6/5)।
इच्छाद्वेष समुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत।
सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परन्तप।। 27।।
कारण कि हे भरतवंश में उत्पन्न शत्रुतापन अर्जुन। इच्छा (राग) और द्वेष से उत्पन्न होने वाले द्वन्द्व मोह से मोहित सम्पूर्ण प्राणी संसार में (अनादिकाल से) मूढ़ता को अर्थात् जन्म-मरण को प्राप्त हो रहे हैं।
व्याख्या-राग-द्वेष रूप द्वन्द्व से ही संसार का सम्बन्ध दृढ़ होता है और मनुष्य परमात्मा से विमुख हो जाता है। अतः मनुष्य की प्रवृत्ति तथा निवृत्ति राग-द्वेष पूर्वक नहीं होनी चाहिये।-क्रमशः (हिफी)

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