धर्म-अध्यात्म

परम अक्षर ब्रह्म व परा प्रकृति जीव

श्रीमद् भगवत गीता का प्रबोध-38

जिस तरह मर्यादा पुुरुषोत्तम श्रीराम के चरित्र को लेकर कहा गया है कि ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता…’ उसी प्रकार भगवान कृष्ण के मुखार बिन्दु से प्रस्फुटित हुई श्रीमद् भगवत गीता का सार भी अतल गहराइयों वाला है। विद्वानों ने अपने-अपने तरह से गीता के रहस्य को समझने और समझाने का प्रयास किया है। गीता का प्रारंभ ही जिस श्लोक से होता है उसकी गहराई को समझना आसान नहीं है। कौरवों और पांडवों के मध्य जो युद्ध लड़ा गया वह भी धर्म क्षेत्रे अर्थात धर्म भूमि और कुरु क्षेत्रे अर्थात तीर्थ भूमि पर लड़ा गया जिससे युद्ध में वीर गति प्राप्त होने वालों का कल्याण हो गया। इसी तरह की व्याख्या स्वामी रामसुख दास ने गीता प्रबोधनी में की है जिसे हम हिफी के पाठकों के लिए क्रमशः प्रकाशित करने का प्रयास करेंगे। हम स्वामी जी के आभारी हैं जिन्होंने गीता के श्लोकों की सरल शब्दों में व्याख्या की है। -प्रधान सम्पादक 

परम अक्षर ब्रह्म व परा प्रकृति जीव

(आठवाँ अध्याय)
किं तद्ब्रह्म किमध्यात्म। किं कर्म पुरुषोत्तम।
अधिभूतं च किं प्रोक्तमधिदैवं किमुच्यते।। 1।।
अधियज्ञः कथं कोऽत्र देहेऽस्मिन्मधुसूदन।
प्रयाणकाले च कथं ज्ञेयोऽसि नियतात्मभिः।। 2।।
अर्जुन बोले-हे पुरुषोत्तम! वह ब्रह्म क्या है? अध्यात्म क्या है? कर्म क्या है? अधिभूत किसको कहा गया है? और अधिदैव किसको कहा जाता है? यहाँ अधियज्ञ कौन है? और वह इस देह में कैसे है? हे मधुसूदन! वशीभूत अन्तःकरण वाले मनुष्यों के द्वारा अन्तकाल में आप कैसे जानने में आते हैं?
अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते।
भूतभावो˜वकरो विसर्गः कर्मसंज्ञितः।। 3।।
श्री भगवान् बोले-परम अक्षर ब्रह्म है और परा प्रकृति (जीव) को अध्यात्म कहते हैं। प्राणियों की सत्ता को प्रकट करने वाला त्याग कर्म कहा जाता है।
अधिभूतं क्षरो भावः पुरुषश्चाधिदैवतम्।
अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतां वर।। 4।।
हे देहधारियों में श्रेष्ठ अर्जुन! क्षर भाव अर्थात् नाशवान् पदार्थ अधिभूत हैं, पुरुष अर्थात् हिरण्य गर्भ ब्रह्मा अधिदैव हैं और इस देह में (अन्तर्यामी-रूप से) मैं ही अधियज्ञ हूँ।
व्याख्या-जैसे एक ही जल-तत्त्व परमाणु, भाप, बादल, वर्षा की क्रिया, बूँदें और ओले (बर्फ) के रूप से भिन्न-भिन्न दीखते हुए भी वास्तव में एक ही है, इसी तरह एक ही परमात्मतत्त्व ब्रह्म, अध्यात्म, कर्म, अधिभूत, अधिदैव और अधियज्ञ के रूप से भिन्न-भिन्न दीखते हुए भी वास्तव में एक ही है। परमाणु रूप से जल ‘ब्रह्म’ है, बूँदें रूप से जल अध्यात्म है, वर्षाा की क्रिया कर्म है और बर्फ रूप से जल अधिभूत है। परमात्मा के इसी समग्र रूप के लिये गीता में आया है- वासुदेवः सर्वम् (7/19), सदसच्चाहम् ़ 9/19), सदसत्तत्परं यत् (11/37)।
अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्।
यः प्रयाति स म˜ावं याति नास्तयत्र संशयः।। 5।।
जो मनुष्य अन्तकाल में भी मेरा स्मरण करते हुए शरीर छोड़कर जाता है, वह मेरे स्वरूप को ही प्राप्त होता है, इसमें सन्देह नहीं है।
व्याख्या-भगवान् ने मनुष्य पर विशेष कृपा करके उसे यह छूट दी है कि उसका जीवन कैसा ही रहा हो, यदि अन्त समय में भी वह मुझे याद कर ले तो मैं उसका कल्याण कर दूँगा। कारण कि भगवान् ने अहैतु की कृपा से जीव को अपना कल्याण करने के लिये ही मनुष्य शरीर दिया है।
वास्तव में सब समय अन्त समय ही है, क्योंकि अन्त समय किसी भी समय आ सकता है। ऐसा कोई क्षण नहीं है, जिस क्षण में अन्त समय न आता हो। इसलिये मनुष्य को हर समय भगवान् को याद रखना चाहिये।
यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा त˜ावभावितः।। 6।।
हे कुन्ती पुत्र अर्जुन! मनुष्य अन्त काल में जिस-जिस भी भाव का स्मरण करते हुए शरीर छोड़ता है, वह उस अन्तकाल के भाव से सदा भावि होता हुआ उस-उसको ही प्राप्त होता है अर्थात् उस-उस योनि में ही चला जाता है।
व्याख्या-सातवें अध्याय के इक्कीसवें श्लोक में भगवान् ने यो यो यां यां तनुं भक्तः आदि पदों से उपासना के विषय में मनुष्य की स्वतन्त्रता बतायी थी। अब यहाँ गति के विषय में मनुष्य की स्वतन्त्रता बताते हैं। तात्पर्य है कि भगवान् अपने दयालु स्वभाव के कारण मनुष्य की स्वतन्त्रता में बाधक नहीं बनते, परन्तु मनुष्य ही इस मिली हुई स्वतंत्रता का दुरुपयोग करके भोग तथा संग्रह में लगकर अपना पतन कर लेता है और दुर्गति मंे चला जाता है। मनुष्य यदि चाहे तो इस स्वतन्त्रता का सदुपयोग करके देवताआंे के लिये भी दुर्लभ पद को प्राप्त कर सकता है।
तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्।। 7।।
इसलिए तू सब समय मंे मेरा स्मरण कर और युद्ध भी कर। मुझमें मन और बुद्धि अर्पित करने वाला तू निःसन्देह मुझे ही प्राप्त होगा।
व्याख्या-ऐसा कोई समय नहीं है, जिसमें अन्तकाल ़(मृत्यु) न आ सके। इसलिये मनुष्य को नित्य-निरन्तर भगवान् का स्मरण करते रहना चाहिये। फिर किसी भी समय अन्तकाल आयेगा तो वह भगवान् का स्मरण करते हुए ही शरीर छोड़ेगा, जिससे वह भगवान् को ही प्राप्त होगा।
पूर्व पक्ष-यहाँ युद्ध का प्रसंग है। निरन्तर भगवत्स्मरण करते हुए युद्ध कैसे होगा और युद्ध करते हुए निरन्तर भगवत्स्मरण कैसे होगा?
उत्तर पक्ष-एक याद करते हैं, एक याद रहती है। जो बात अहंता में बैठ जाती है, वह भूलती नहीं। अतः साधक सच्चे हृदय से दृढ़तापूर्वक स्वीकार कर ले कि ‘मैं भगवान् का ही हूँ, भगवान् ही मेरे हैं तो फिर सब कार्य करते हुए भी भगवान् की याद स्वतः निरन्तर बनी रहेगी। जैसे, ब्राह्मण को अपने ब्राह्मणपने का स्मरण बिना याद किये नित्य-निरन्तर बना रहता है। नींद में भी जगाकर उससे पूछो तो वह यही कहेगा कि मैं ब्राह्मण हूँ। इसमें अभ्यास नहीं है, प्रत्युत स्वीकृति है। विवाह होने पर पतिव्रता स्त्री बिना याद किये पति को याद रखती है, स्वप्न में भी नहीं भूलती। यह स्वीकृति है, जिसकी कभी विस्मृति नहीं होती। भगवान् के साथ सम्बन्ध स्वीकार करने पर साधक के मन-बुद्धि स्वतः भगवान् के अर्पित हो जाते हैं।
अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना।
परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन्।। 8।।
हे पृथानन्दन! अभ्यास योग से युक्त और अन्य का चिन्तन न करने वाले चित्त से परम दिव्य पुरुष का चिन्तन करता हुआ शरीर छोड़ने वाला मनुष्य उसी को प्राप्त हो जाता है। -क्रमशः (हिफी)

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