धर्म-अध्यात्म

आसुरी, राक्षसी व मोहिनी प्रकृति

श्रीमद् भगवत गीता का प्रबोध-43

श्रीमद् भगवत गीता का प्रबोध-43
जिस तरह मर्यादा पुुरुषोत्तम श्रीराम के चरित्र को लेकर कहा गया है कि ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता…’ उसी प्रकार भगवान कृष्ण के मुखार बिन्दु से प्रस्फुटित हुई श्रीमद् भगवत गीता का सार भी अतल गहराइयों वाला है। विद्वानों ने अपने-अपने तरह से गीता के रहस्य को समझने और समझाने का प्रयास किया है। गीता का प्रारंभ ही जिस श्लोक से होता है उसकी गहराई को समझना आसान नहीं है। कौरवों और पांडवों के मध्य जो युद्ध लड़ा गया वह भी धर्म क्षेत्रे अर्थात धर्म भूमि और कुरु क्षेत्रे अर्थात तीर्थ भूमि पर लड़ा गया जिससे युद्ध में वीर गति प्राप्त होने वालों का कल्याण हो गया। इसी तरह की व्याख्या स्वामी रामसुख दास ने गीता प्रबोधनी में की है जिसे हम हिफी के पाठकों के लिए क्रमशः प्रकाशित करने का प्रयास करेंगे। हम स्वामी जी के आभारी हैं जिन्होंने गीता के श्लोकों की सरल शब्दों में व्याख्या की है। -प्रधान सम्पादक 

आसुरी, राक्षसी व मोहिनी प्रकृति

सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृतिं यान्ति मामिकाम्।
कल्पक्षये पुनस्तानि कल्पादौ विसृजाम्यहम्।। 7।।
हे कुन्ती नन्दन्! कल्पों का क्षय होने पर (महाप्रलय के समय) सम्पूर्ण प्राणी मेरी प्रकृति को प्राप्त होते हैं और कल्पों के आदि में (महासर्ग के समय) मैं फिर उनकी रचना करता हूँ।
व्याख्या-पूर्वोक्त श्लोक में वर्णित स्थिति न होने पर मनुष्य की क्या दशा होती है-इसे भगवान् इस श्लोक में बताते हैं। महाप्रलय के समय प्रकृति के परवश हुए सम्पूर्ण प्राणी अपने-अपने कर्मों को लेकर भगवान् की प्रकृति में लीन हो जाते हैं। प्रकृति में लीन हुए उन प्राणियों के कर्म जब परिवक्व होकर फल देने के लिये उन्मुख हो जाते हैं, तब भगवान् में ‘बहु स्यां प्रजायेय’ मैं अनेक रूपों में प्रकट हो जाऊँ’ (छान्दोग्य0 6/2/3)-ऐसा संकल्प हो जाता है और महासर्ग का आरम्भ हो जाता है। महासर्ग के आदि में भगवान् उन प्राणियों के परिपक्व कर्मों का फल देकर उन्हें शुद्ध करने के लिये उनके शरीरों की रचना करते हैं।
प्रकृतिं स्वामवष्टभ्य विसृजामि पुनःपुनः।
भूतग्राममिमं कृत्स्नमवशं प्रकृतेर्वशात्।। 8।।
प्रकृति के वश में होने से परतन्त्र हुए इस सम्पूर्ण प्राणि समुदाय की (कल्पांे के आदि में) मैं अपनी प्रकृति को वश में करके बार-बार रचना करता हूँ।
व्याख्या-प्रकृति परमात्मा की एक अनिर्वचनीय अलौकिक विलक्षण शक्ति है। ऐसी अपनी प्रकृति को स्वीकार करके ही भगवान् सृष्टि की रचना करते हैं। कारण कि सृष्टि में जो परिवर्तन, उत्पत्ति-विनाश, आदि-अन्त होता है, वह सब प्रकृति में ही होता है, भगवान् में नहीं। इसलिये भगवान् क्रियाशील प्रकृति को लेकर ही सृष्टि की रचना करते है। इसमें भगवान् की कोई असमर्थता, पराधीनता, कमजोरी आदि नहीं है। भगवान् का प्रकृति पर आधिपत्य होने पर भी उनमे लिप्तता, कर्तृत्व आदि नहीं होते।
भगवान् उन्हीं प्राणियों की रचना करते हैं, जो प्रकृति के परवश हैं अर्थात् जिन्होंने प्रकृति के साथ अपना सम्बन्ध जोड़ रखा है।
न च मां तानि कर्माणि निबध्नन्ति धनंजय।
उदासीनवदासीनमसक्तं तेषु कर्मसु।। 9।।
हे धनंजय! उन (सृष्टि-रचना आदि) कर्मों में अनासक्त और उदासीन की तरह रहते हुए मुझे वे कर्म नहीं बाँधते।
व्याख्या-कर्मासक्ति, फलासक्ति और कर्तृत्वाभिमान के कारण मनुष्य कर्मों से बँध जाता है परन्तु भगवान् में न तो कर्मासक्ति है, न फलासक्ति है और न कतर््त्वाभिमान ही है, इसलिये वे सृष्टि-रचना आदि कर्मों से नहीं बंधते।
मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम्।
हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते।। 10।।
प्रकृति मेरी अध्यक्षता में चराचर सहित सम्पूर्ण जगत् की रचना करती है। हे कुन्ती नन्दन! इसी हेतु से जगत् का (विविध प्रकार से) परिवर्तन होता है।
व्याख्या-भगवान् से सत्ता-स्फूर्ति पाकर ही प्रकृति चराचर सहित सम्पूर्ण प्राणियों की रचना करती है। तात्पर्य है कि सब क्रियाएँ प्रकृति में ही होती हैं, भगवान् में नहीं। प्रकृति में कितना ही परिवर्तन हो जाय, परमात्मा वैसे-के-वैसे ही रहते हैं। इसी प्रकार भगवान् का अंश जीव भी सदा निर्लिप्त, असंग रहता है। प्रकृति तो परमात्मा के अधीन रहकर सृष्टि की रचना करती है, पर जीव प्रकृति के अधीन होकर जन्म-मरण के चक्र में घूमता है। तात्पर्य है कि परमात्मा तो स्वतन्त्र हैं, पर उनका अंश जीवात्मा सुख की इच्छा से परतन्त्र हो जाता है।
अवजानन्ति मां मूढ़ा मानुषीं तनुमाश्रितम्।
परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम्।। 11।।
मूर्ख लोग मेरे सम्पूर्ण प्राणियों के महान् ईश्वर रूप श्रेष्ठ भाव को न जानते हुए मुझे मनुष्य शरीर के आश्रित मानकर अर्थात् साधारण मनुष्य मानकर मेरी अवज्ञा करते हैं।
व्याख्या-भगवान् से बड़ा कोई ईश्वर नहीं है। वे सर्वोपरि हैं परन्तु अज्ञानी मनुष्य उन्हें स्वरूप से नहीं जानते। वे अलौकिक भगवान् को भी अपनी तरह लौकिक मानकर उनकी अवहेलना करते हैं और नाशवान् शरीर-संसार की ही सत्ता मानकर भोग तथा संग्रह में लगे रहते हैं।
मोघाशा मोघकर्माणो मोघज्ञाना विचेतसः।
राक्षसीमासुरीं चैव प्रकृतिं मोहिनीं श्रिता।। 12।।
जो आसुरी, राक्षसी और मोहिनी प्रकृति का ही आश्रय लेते हैं, ऐसे अविवेकी मनुष्यों की सब आशाएँ व्यर्थ होती हैं, सब शुभ कर्म व्यर्थ होते हैं और सब ज्ञान व्यर्थ होते हैं, अर्थात् उनकी आशाएँ, कर्म और ज्ञान (समझ) सत्-फल देने वाले नहीं होते।
व्याख्या-जो मनुष्य अपना स्वार्थ सिद्ध करने में लगे रहते हैं, दूसरों के दुःख की परवाह नहीं करते, वे ‘आसुरी’ स्वभाव वाले होते हैं। जो स्वार्थ सिद्धि में बाधा लगने पर क्रोध वश दूसरों का नाश कर देते हैं, वे ‘राक्षसी’ स्वभाव वाले होते हैं। जो बिना किसी कारण के दूसरों को कष्ट पहुँचाते हैं, वे ‘मोहिनी’ स्वभाव वाले मनुष्य आसुरी, राक्षसी और मोहिनी-तीनों ही स्वभाव वाले मनुष्य आसुरी सम्पत्ति के अन्तर्गत आ जाते हैं, जो चैरासी लाख योनियों तथा नरकों की प्राप्ति कराने वाली है।
महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिताः।
भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम्।। 13।।
परन्तु हे पृथा नन्दन! दैवी प्रकृति के आश्रित आनन्यमन वाले महात्मा लोग मुझे सम्पूर्ण प्राणियों का आदि और अविनाशी समझकर मेरा भजन करते हैं।
व्याख्या-जो जिसके महत्त्व को जितना अधिक जानता है, वह उतना ही उसमें लग जाता है। जिन्होंने भगवान् को ही सर्वोपरि मान लिया है, वे दैवी स्वभाव वाले महात्मा पुरुष भगवान् में ही लग जाते हैं। भोग तथा संग्रह की तरफ उनकी वृत्ति कभी जाती ही नहीं।-क्रमशः (हिफी)

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