
श्रीमद् भगवत गीता का प्रबोध-45
जिस तरह मर्यादा पुुरुषोत्तम श्रीराम के चरित्र को लेकर कहा गया है कि ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता…’ उसी प्रकार भगवान कृष्ण के मुखार बिन्दु से प्रस्फुटित हुई श्रीमद् भगवत गीता का सार भी अतल गहराइयों वाला है। विद्वानों ने अपने-अपने तरह से गीता के रहस्य को समझने और समझाने का प्रयास किया है। गीता का प्रारंभ ही जिस श्लोक से होता है उसकी गहराई को समझना आसान नहीं है। कौरवों और पांडवों के मध्य जो युद्ध लड़ा गया वह भी धर्म क्षेत्रे अर्थात धर्म भूमि और कुरु क्षेत्रे अर्थात तीर्थ भूमि पर लड़ा गया जिससे युद्ध में वीर गति प्राप्त होने वालों का कल्याण हो गया। इसी तरह की व्याख्या स्वामी रामसुख दास ने गीता प्रबोधनी में की है जिसे हम हिफी के पाठकों के लिए क्रमशः प्रकाशित करने का प्रयास करेंगे। हम स्वामी जी के आभारी हैं जिन्होंने गीता के श्लोकों की सरल शब्दों में व्याख्या की है। -प्रधान सम्पादक
भगवान के अलावा कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं
त्रैविद्या मां सोमपाः पूतपापा-
यज्ञैरिष्ट्वा स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते।
ते पुण्यमासाद्य सुरेन्द्रलोक-
मश्ननित दिव्यान्दिवि देवभोगान्।। 20।।
तीनों वेदों मंे कहे हुए सकाम अनुष्ठान को करने वाले और सोम रस को पीने वाले जो पाप रहित मनुष्य यज्ञों के द्वारा (इन्द्र रूप से) मेरा पूजन करके स्वर्ग प्राप्ति की प्रार्थना करते हंै, वे (पुण्यों के फलस्वरूप) पवित्र इन्द्रलोक को प्राप्त करके वहाँ स्वर्ग के देवताओं के दिव्य भोगों को भोगते हैं।
व्याख्या-यहाँ ऐसे मनुष्यों का वर्णन है, जिनके भीतर संसार की सत्ता और महत्ता बैठी हुई है और जो भगवान् की अविधि पूर्वक उपासना करते हैं (गीता 9/23)। ऐसे मनुष्यों की उपासना का फल नाशवान् ही होता है (गीता 7/23)।
ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालं-
क्षीणे पुण्ये मत्र्यलोकं विशन्ति।
एवं त्रयीधर्ममनुप्रपन्ना-
गतागतं कामकामा लभन्ते।। 21।
वे उस विशाल स्वर्गलोक के भोगों को भोगकर पुण्य क्षीण होने पर मृत्यु लोक में आ जाते हैं। इस प्रकार तीनों वेदों में कहे हुए सकाम धर्म का आश्रय लिये हुए भोगों की कामना करने वाले मनुष्य आवागमन को प्राप्त होते हैं।
व्याख्या-सकाम अनुष्ठान करने वाले मनुष्य के जब स्वर्ग के प्रतिबन्धक पाप नष्ट हो जाते हैं, तब वे स्वर्ग में चले जाते हैं। स्वर्ग का सुख भोगते-भोगते जब उनके स्वर्ग के प्रापक पुण्य नष्ट हो जाते हैं, तब वे पुनः मृत्युलोक में आ जाते हैं। इस प्रकार कामना के कारण मनुष्य आवागमन को प्राप्त होता रहता है, संसार-चक्र में घूमता रहता है।
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्।। 22।।
जो अनन्य भक्त मेरा चिन्तन करते हुए मेरी भलीभाँति उपासना करते हैं, मुझमें निरन्तर लगे हुए उन भक्तों का योग क्षेम (अप्राप्त की प्राप्ति और प्राप्त की रक्षा) मैं वहन करता हूँ।
व्याख्या-भगवान् के अनन्य भक्त न तो पूर्व श्लोक में वर्णित इन्द्र को मानते हैं और न अगले श्लोक में वर्णित अन्य देवताओं को मानते हैं। इन्द्रादि की उपासना करने वालों को नाशवान् फल मिलता है, पर भगवान् की उपासना करने वालों को अविनाशी फल मिलता है। देवताओं का उपासक तो नौकर की तरह है और भगवान् का उपासक घर के सदस्य की तरह है। नौकर काम करता है तो उसे काम के अनुसार सीमित पैसे मिलते हैं, पर घर का सदस्य काम करे अथवा न करे सब कुछ उसी का होता है। बालक क्या काम करता है?
भगवान् भक्त को उसके लिये आवश्यक साध-सामग्री प्राप्त कराते हैं और प्राप्त सामग्री की रक्षा करते हैं-यही भगवान् का योगक्षेम वहन करना है। यद्यपि भगवान् सभी साधकों का योगक्षेम वहन करते हैं, तथापि अपने अनन्य भक्तों का योग क्षेम वे विशेष रूप से वहन करते हैं, जैसे-प्यारे बच्चे का पालन माँ स्वयं करती है, नौकरों से नहीं करवाती।
येऽप्यन्य देवता भक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विताः।
तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम्।। 23।।
हे कुन्ती नन्दन! जो भी भक्त (मनुष्य) श्रद्धापूर्वक अन्य देवताओं का पूजन करत हैं, वे भी मेरा ही पूजन करते हैं, पर करते हैं अविधि पूर्वक अर्थात् देवताओं को मुझसे अलग मानते हैं।
व्याख्या-‘त्रैविद्या माम्’ (9/20), ‘अनन्याश्चिन्तयन्तो माम्’ (9/22) और ‘तेऽपि मामेव’ (9/23़)-तीनों जगह भगवान् के द्वारा ‘माम्’ पद देने का तात्पर्य है कि सब कुछ मैं ही हूँ, सब मेरा ही स्वरूप है। यदि साधक में कामना न हो और सबमें भगवद् बुद्धि हो तो वह किसी की भी उपासना करे, वह वास्तव में भगवान् की ही उपासना होगी। तात्पर्य है कि यदि निष्काम भाव और भगवद् बुद्धि हो जाय तो उसका पूजन अविधि पूर्वक नहीं रहेगा, प्रत्युत वह भगवान् का ही पूजन हो जायगा।
अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभेरेव च।
न तु मामभिजानन्ति तत्त्वेनातश्च्यवन्ति ते।। 24।।
क्योंकि सम्पूर्ण यज्ञों का भोक्ता और स्वामी भी मैं ही हूँ परन्तु वे मुझे तत्त्व से नहीं जानते, इसी से उनका पतन होता हैं।
व्याख्या-जब मनुष्य अपने को भोगों का भोक्ता और संग्रह का स्वामी मानकर उनका दास बन जाता है और भगवान् से सर्वथा विमुख हो जाता है, तब उसे यह बात याद ही नहीं रहती कि सबके भोक्ता और स्वामी भगवान् हैं। इस कारण उसका पतन हो जाता है। परन्तु जब उसे चेत हो जाता है कि वास्तव में सम्पूर्ण भोगों और संग्रहों के स्वामी भगवान् ही हैं, तब वह भगवान् के शरणागत हो जाता है। फिर उसका पतन नहीं होता।
यान्ति देवव्रता देवान्पितृन्यान्ति पितृव्रताः।।
भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम्।। 25।।
(सकाम भाव से) देवताओं का पूजन करने वाले (शरीर छोड़ने पर) देवताओं को प्राप्त होते हैं। पितरों का पूजन करने वाले पितरों को प्राप्त होते हैं। भूत-प्रेतों का पूजन करने वाले भूत-प्रेतों को प्राप्त होते हैं। परन्तु मेरा पूजन करने वाले मुझे ही प्राप्त होते हैं।
व्याख्या-वास्तव में सब कुछ भगवान् का ही रूप है। परन्तु जो भगवान् के सिवाय दूसरी कोई भी स्वतन्त्र सत्ता मानता है, उसका उद्धार नहीं होता। वह ऊँचे-से-ऊँचे लोकांे में चला जाय तो भी उसे लौटकर संसार में आना ही पड़ता है।-क्रमशः (हिफी)