
श्रीमद् भगवत गीता का प्रबोध-46
जिस तरह मर्यादा पुुरुषोत्तम श्रीराम के चरित्र को लेकर कहा गया है कि ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता…’ उसी प्रकार भगवान कृष्ण के मुखार बिन्दु से प्रस्फुटित हुई श्रीमद् भगवत गीता का सार भी अतल गहराइयों वाला है। विद्वानों ने अपने-अपने तरह से गीता के रहस्य को समझने और समझाने का प्रयास किया है। गीता का प्रारंभ ही जिस श्लोक से होता है उसकी गहराई को समझना आसान नहीं है। कौरवों और पांडवों के मध्य जो युद्ध लड़ा गया वह भी धर्म क्षेत्रे अर्थात धर्म भूमि और कुरु क्षेत्रे अर्थात तीर्थ भूमि पर लड़ा गया जिससे युद्ध में वीर गति प्राप्त होने वालों का कल्याण हो गया। इसी तरह की व्याख्या स्वामी रामसुख दास ने गीता प्रबोधनी में की है जिसे हम हिफी के पाठकों के लिए क्रमशः प्रकाशित करने का प्रयास करेंगे। हम स्वामी जी के आभारी हैं जिन्होंने गीता के श्लोकों की सरल शब्दों में व्याख्या की है। -प्रधान सम्पादक
भक्त का भाव देखते हैं भगवान
पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः।। 26।।
जो भक्त पत्र, पुष्प, फल, जल आदि (यथा साध्य एवं अनायास प्राप्त वस्तु)-को प्रेम पूर्वक मेरे अर्पण करता है, उस मुझ में तल्लीन हुए अन्तःकरण वाले भक्त के द्वारा प्रेम पूर्वक दिये हुए उपहार (भेंट) को मैं खा लेता हूँ अर्थात् स्वीकार कर लेता हूँ।
व्याख्या-देवताओं की उपासना में तो अनेक नियमों का पालन करना पड़ता है, परन्तु भगवान् की उपासना में कोई नियम नहीं है। भगवान् की उपासना में प्रेम की, अपने पन की प्रधानता है, विधि की नहीं। भगवान् भाव ग्राही हैं, क्रिया ग्राही नहीं।
जैसे भोला बालक जो कुछ हाथ में आये, उसको मुँह में डाल लेता है, ऐसे ही भोले भक्त भगवान् को जो भी अर्पण करते हैं, उसे भगवान् भी भोले बनकर खा लेते हैं। ‘ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्’ (गीता 4/11) जैसे-विदुरानी ने केले का छिलका दिया तो भगवान ने उसे ही खा लिया।
यत्करोषि यदश्नासि यज्जुह्येषि ददासि यत्।
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्।। 27।।
हे कुन्ती पुत्र! तू जो कुछ करता है, जो कुछ भोजन करता है, जो कुछ यज्ञ करता है, जो कुछ दान देता है और जो कुछ तप करता है, वह सब मेरे अर्पण कर दे।
व्याख्या-ज्ञान योगी तो संसार के साथ माने हुए सम्बन्ध का त्याग करता है, पर भक्त एक भगवान् के सिवाय दूसरी सत्ता मानता ही नहीं। इसलिये ज्ञान योगी पदार्थ तथा क्रिया का त्याग करता है, और भक्त पदार्थ तथा क्रिया को भगवान् के अर्पण करता है अर्थात् उनको अपना न मानकर भगवान् का और भगवत्स्वरूप मानता है। वास्तव में भक्त अपने-आपको ही भगवान् के समर्पित कर देता है। स्वयं समर्पित होने से उसके द्वारा होने वाली सम्पूर्ण लौकिक-पारमार्थिक क्रियाएँ भी स्वाभाविक भगवान् के समर्पित हो जाती हैं।
पूर्व पक्ष-यदि कोई निषिद्ध क्रिया करके उसे भगवान् के अर्पित कर दे तो?
उत्तर पक्ष-वही वस्तु या क्रिया भगवान् के अर्पित की जाती है, जो भगवान् के अनुकूल, उनके आज्ञानुसार होती है। जिस भक्त का भगवान् के प्रति अर्पण करने का भाव है, उसके द्वारा न तो निषिद्ध क्रिया होगी और न निषिद्ध क्रिया अर्पित ही होगी। भगवान् को दिया हुआ अनन्त गुणा होकर मिलता है। यदि कोई निषिद्ध क्रिया भगवान् अर्पित करेगा तो उसका फल भी दण्डरूप से अनन्त गुणा होकर मिलेगा।
शुभाशुभ फलैरेवं मोक्ष्यसे कर्मबन्धनैः।
सन्न्यास योगयुक्तात्मा विमुक्तो मामुपैष्यसि।। 28।।
इस प्रकार (मेरे अर्पण करने से) कर्मबन्धन से और शुभ (विहित) और अशुभ (निषिद्ध़) सम्पूर्ण कर्मों के फलों से तू मुक्त हो जायगा। ऐसे अपने सहित सब कुछ मेरे अर्पण करने वाला और सबसे सर्वथा मुक्त हुआ तू मुझे प्राप्त हो जायगा।
व्याख्या-‘कर्म’ भी शुभ-अशुभ होते हैं और ‘फल’ भी। दूसरों के हित के लिए करना ‘शुभ-कर्म’ है और अपने लिए करना ‘अशुभ-कर्म’ है। अनुकूल परिस्थिति ‘शुभ फल’ है और प्रतिकूल परिस्थिति ‘अशुभ फल’ है। भगवान् का भक्त शुभ कर्मों को भगवान् के अर्पण करता है, अशुभ कर्म करता नहीं और शुभ-अशुभ फल से अर्थात् अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति से सुखी-दुःखी नहीं होता। उसके अनन्त जन्मों के संचित शुभाशुभ कर्म भस्म हो जाते हैं, जैसे-घास के ढेर में जलता हुआ घास का टुकड़ा फंेकने से सब घास जल जाती है। भगवान् के अर्पण करने से संसार का सम्बन्ध (गुण संग) नहीं रहता, प्रत्युत केवल भगवान् का सम्बन्ध रह जाता है, जोकि स्वतः पहले से ही है।
समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः।
ये भजन्ति तु मां भवत्या मयि ते तेषु चाप्यहम्।। 29।।
मैं सम्पूर्ण प्राणियों में समान हूँ। (उन प्राणियों मंे) न तो कोई मेरा द्वेषी है और न कोई प्रिय है। परन्तु जो प्रेमपूर्वक मेरा भजन करते हैं, वे मुझमें हैं और मैं भी उनमें हूँ।
व्याख्या-मनुष्य भगवान् को अपनी वस्तुएँ तथा क्रियाएँ अर्पण करे अथवा न करे, भगवान में कुछ फर्क नहीं पड़ता। वे तो सदा समान ही रहते हैं। किसी वर्ण विशेष, आश्रम विशेष, जाति विशेष, कर्म विशेष, सम्प्रदाय विशेष, योग्यता विशेष आदि का भी भगवान् पर कोई असर नहीं पड़ता। अतः प्रत्येक वर्ण, आश्रम, जाति, सम्प्रदाय आदि का मनुष्य उन्हें प्राप्त कर सकता है। भगवान् केवल आन्तरिक भाव को ही ग्रहण करते हैं।
भगवान की दृष्टि में उनके सिवाय अन्य कुछ है ही नहीं, फिर वे किस से द्वेष करें और किस में राग करें? जीव ही राग-द्वेष करके संसार में बँध जाता है और राग-द्वेष का त्याग करके मुक्त हो जाता है। इसलिये बन्धन और मुक्ति जीव की ही होती है, भगवान् की नहीं। विषमता जीव करता है, भगवान् नहीं।
जो प्रेमपूर्वक भगवान् का भजन करते हैं, वे भगवान् में हैं और भगवान् उनमें हैं अर्थात् भगवान् उनमें विशेष रूप से प्रकट हैं। तात्पर्य है कि जैसे पृथ्वी में जल सब जगह रहता है, पर कुएँ में विशेष प्रकट (आवरण रहित) होता है, ऐसे ही भगवान् संसार मात्र में परिपूर्ण होते हुए भी भक्तों में विशेष प्रकट होते हैं। भक्त भगवान् से प्रेम करते हैं और भगवान् भक्त से प्रेम करते हैं (गीता 7/17)। इसलिये भक्त भगवान् हैं और भगवान् भक्क्तों में हैं।-क्रमशः (हिफी)