
श्रीमद् भगवत गीता का प्रबोध-50
जिस तरह मर्यादा पुुरुषोत्तम श्रीराम के चरित्र को लेकर कहा गया है कि ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता…’ उसी प्रकार भगवान कृष्ण के मुखार बिन्दु से प्रस्फुटित हुई श्रीमद् भगवत गीता का सार भी अतल गहराइयों वाला है। विद्वानों ने अपने-अपने तरह से गीता के रहस्य को समझने और समझाने का प्रयास किया है। गीता का प्रारंभ ही जिस श्लोक से होता है उसकी गहराई को समझना आसान नहीं है। कौरवों और पांडवों के मध्य जो युद्ध लड़ा गया वह भी धर्म क्षेत्रे अर्थात धर्म भूमि और कुरु क्षेत्रे अर्थात तीर्थ भूमि पर लड़ा गया जिससे युद्ध में वीर गति प्राप्त होने वालों का कल्याण हो गया। इसी तरह की व्याख्या स्वामी रामसुख दास ने गीता प्रबोधनी में की है जिसे हम हिफी के पाठकों के लिए क्रमशः प्रकाशित करने का प्रयास करेंगे। हम स्वामी जी के आभारी हैं जिन्होंने गीता के श्लोकों की सरल शब्दों में व्याख्या की है। -प्रधान सम्पादक
भगवान की विलक्षण विभूतियां
स्वयमेवात्मनात्मानं वेत्थ त्वं पुरुषोत्तम।
भूतभावन भूतेश देवदेव जगत्पये।। 15।।
हे भूतभावन! हे भूतेश! हे देवदेव! हे जगत्वते! हे पुरुषोत्तम! आप स्वयं ही अपने-आपमें अपने-आपको जानते हैं।
व्याख्या-आप स्वयं ही स्वयं के ज्ञाता हैं-ऐसा कहने का तात्पर्य है कि जानने वाले भी आप ही हैं, जानने में आने वाले भी आप ही हैं और जानना भी आप ही हैं अर्थात् सब कुछ आप ही हैं। जब आपके सिवाय और कोई है ही नहीं तो फिर कौन किसको जाने? और क्या जाने?
वक्तुमर्हस्यशेषेण दिव्या ह्यात्मविभूतयः।
याभिर्विभूतिभिर्लोकानिमांस्त्वं व्याप्य निष्ठसि।। 16।।
इसलिये जिन विभूतियों से आप इन सम्पूर्ण लोकों को व्याप्त करके स्थित हैं, उन सभी अपनी दिव्य विभूतियों का सम्पूर्णता से वर्णन करने में आप ही समर्थ हैं।
व्याख्या-अर्जुन भगवान् से कहते हैं कि आप स्वयं ही अपने-आपको जानते हैं, इसलिये अपनी सम्पूर्ण विभूतियों का वर्णन आप ही कर सकते हैं, दूसरा कोई नहीं। अतः आप अपनी विलक्षण विभूतियों को विस्तारपूर्वक सम्पूर्णता से कहिये, जिससे मेरी आप में अविचल भक्ति हो जाय।
कथं विद्यामहं योगिंस्त्वां सदा परिचिन्तयन्।
केषु केषु च भावेषु चिन्त्योऽसि भगवन्मया।। 17।।
हे योगिन्! निरन्तर सांगोपांग चिन्तन करता हुआ मैं आपको कैसे जानूँ? और हे भगवन्! किन-किन भावों में आप मेरे द्वारा चिन्तन किये जा सकते हैं अर्थात् किन-किन भावों में मैं आपका चिन्तन करूँ?
व्याख्या-अर्जुन ने यह प्रश्न सुगमता पूर्वक भगवत्प्राप्ति के उद्देश्य से किया है कि मैं आपके समग्र रूप को कैसे जानूँ? किन रूपों में मैं आपका चिन्तन करूँ? इससे सिद्ध होता है कि विभूतियाँ गौण नहीं हैं, प्रत्युत भगवत्प्राप्ति का
माध्यम होेने से मुख्य हैं। विभूति रूप से साक्षात् भगवान् ही हैं। जब तक मनुष्य भगवान् को नहीं जानता, तब तक उसमें गौण अथवा मुख्य की भावना रहती है। भगवान् को जानने पर गौण अथवा मुख्य की भावना नहीं रहती, क्योंकि भगवान् के सिवाय और कुछ है ही नहीं, फिर उसमें क्या गौण और क्या मुख्य? तात्पर्य है कि गौण अथवा मुख्य साधक की दृष्टि में है, सिद्ध की दृष्टि में नहीं।
विस्तरेणात्मनो योगं विभूतिं च जनार्दन।
भूयः कथय तृप्तिर्हि शृण्वतो नास्ति मेऽमृतम्।। 18।।
हे जनार्दन! आप अपने योग (सामथ्र्य) को और विभूतियों को विस्तार से फिर कहिये, क्योंकि आपके अमृत मय वचन सुनते-सुनते मेरी तृप्ति नहीं हो रही है।
व्याख्या-जैसे भूखे को अन्न और प्यासे को जल प्रिय लगता है, ऐसे ही भक्त अर्जुन को भगवान् के वचन बहुत प्रिय और विलक्षण लग रहे हैं। वे ज्यों-ज्यों भगवान् के वचन सुनते हैं, त्यों-ही-त्यों उनका भगवान् के प्रति विशेष भाव प्रकट होता जाता है। कानों के द्वारा उन अमृत मय वचनों को सुनते हुए न तो उन वचनों का अन्त आता है और न उनको सुनते हुए तृप्ति ही होती है।
हन्त ते कथयिष्यामि दिव्या ह्यात्मविभूतयः।
प्राधान्यतः कुरुश्रेष्ठ नास्त्यन्तो विस्तरस्य मे।। 19।।
श्री भगवान् बोले-हाँ, ठीक है। मैं अपनी दिव्य विभूतियों को तेरे लिये प्रधानता से (संक्षेप से) कहूँगा, क्योंकि हे कुरुश्रेष्ठ! मेरी विभूतियों के विस्तार का अन्त नहीं है।
व्याख्या-भगवान् अनन्त हैं, अतः उनकी विभूतियाँ भी अनन्त हैं। इस कारण भगवान् की सम्पूर्ण विभूतियों को न तो कोई कह सकता है और न सुन ही सकता है। अगर कोई कह-सुन ले तो फिर वे अनन्त कैसे रहेंगी? इसलिये भगवान् यहाँ और अध्याय के अन्त में भी कहते हैं कि मैं अपनी विभूतियों को संक्षेप में कहूँगा, क्योंकि मेरी विभूतियों का अन्त नहीं है (गीता 10/40)।
अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः।
अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च।। 20।।
हे नींद को जीतने वाले अर्जुन! सम्पूर्ण प्राणियों के आदि, मध्य तथा अन्त में मैं ही हूँ और सम्पूर्ण प्राणियों के अन्तःकरण (हृदय) में स्थित आत्मा भी मैं ही हूँ।
व्याख्या-सम्पूर्ण प्राणियों के आदि, मध्य तथा अन्त में भगवान् ही हैं-इसका तात्पर्य यह है कि एक भगवान् के सिवाय और कुछ है ही नहीं अर्थात् सब कुछ भगवान् ही हैं। भगवान् श्रीकृष्ण समग्र हैं और आत्मा उनकी विभूति है। आत्मा भगवान् की परा प्रकृति है और अन्तःकरण अपरा प्रकृति है (गीता 7/4-5)। परा और अपरा-दोनों ही भगवान् से अभिन्न हैं।
आदित्यानामहं विष्णु ज्योर्तिषां रविरंशुमान्।
मरीचिर्मरुतामस्मि नक्षत्राणामहं शशी।। 21।।
मैं अदिति के पुत्रों में विष्णु (वामन) और प्रकाश मान वस्तुओं में किरणों वाला सूर्य हूँ। मैं मरुतों का तेज और नक्षत्रों का अधिपति चन्द्रमा हूँ।
वेदानां सामवेदोऽस्मि देवानामस्मि वासवः।
इन्द्रियाणां मनश्चास्मि भूतानामस्मि चेतना।। 22।।
मैं वेदों में सामवेद हूँ, देवताओं में इन्द्र हूँ, इन्द्रियों में मन हूँ और प्राणियों की चेतना हूँ।
रुद्राणां शंकरश्चास्मि वित्तेशो यक्षरक्षसाम्।
वसूनां पावकश्चास्मि मेरुः शिखरिणामहम्।। 23।।
रुद्रों में शंकर और यक्ष-राक्षसों में कुबेर मैं हूँ। वसुओं में पवित्र करने वाली अग्नि और शिखर वाले पर्वतों में सुमेरु मैं हूँ।
पुरोधसां च मुख्यं मां विद्धि पार्थ बृहस्पतिम्।
सेनानीनामहं स्कन्दः सरसामस्मि सागरः।। 24।।
हे पार्थ! पुरोहितों मंे मुख्य बृहस्पति को मेरा स्वरूप समझो। सेना पतियों में कार्तिकेय और जलाशयों में समुद्र मैं हूँ।-क्रमशः (हिफी)