
श्रीमद् भगवत गीता का प्रबोध-52
जिस तरह मर्यादा पुुरुषोत्तम श्रीराम के चरित्र को लेकर कहा गया है कि ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता…’ उसी प्रकार भगवान कृष्ण के मुखार बिन्दु से प्रस्फुटित हुई श्रीमद् भगवत गीता का सार भी अतल गहराइयों वाला है। विद्वानों ने अपने-अपने तरह से गीता के रहस्य को समझने और समझाने का प्रयास किया है। गीता का प्रारंभ ही जिस श्लोक से होता है उसकी गहराई को समझना आसान नहीं है। कौरवों और पांडवों के मध्य जो युद्ध लड़ा गया वह भी धर्म क्षेत्रे अर्थात धर्म भूमि और कुरु क्षेत्रे अर्थात तीर्थ भूमि पर लड़ा गया जिससे युद्ध में वीर गति प्राप्त होने वालों का कल्याण हो गया। इसी तरह की व्याख्या स्वामी रामसुख दास ने गीता प्रबोधनी में की है जिसे हम हिफी के पाठकों के लिए क्रमशः प्रकाशित करने का प्रयास करेंगे। हम स्वामी जी के आभारी हैं जिन्होंने गीता के श्लोकों की सरल शब्दों में व्याख्या की है। -प्रधान सम्पादक
अनंत हैं भगवान की विभूतियां
यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन।
न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम्।। 39।।
और हे अर्जुन! सम्पूर्ण प्राणियों का जो बीज (मूल कारण) है, वह बीज भी मैं ही हूँ, क्योंकि वह चर-अचर कोई प्राणी नहीं है, जो मेरे बिना हो अर्थात् चर-अचर सब कुछ मैं ही हूँ।
व्याख्या-संसार में जो कुछ भी विशेषता दीखती है, उसको संसार की मानने से मनुष्य उसमें फँस जाता है, जिससे उसका पतन हो जाता है। इसलिये भगवान् यहाँ बहुत ही सरल साधन बताते हैं कि तुम्हारा मन जहाँ-कहीं और जिस-किसी विशेषता को देखकर आकृष्ट होता हो, वहाँ उस विशेषता को तुम मेरी ही समझो कि यह विशेषता भगवान् की है और भगवान् से ही आयी है। यह विशेषता इस परिवर्तनशील, जड़ नाशवान् संसार की नहीं है। ऐसा समझने से तुम्हारा आकर्षण उस वस्तु-व्यक्ति में न होकर मेरे में ही होगा, जिससे तुम्हारा मुझमें प्रेम हो जायगा।
चैरासी लाख योनियाँ तथा उनके सिवाय देवता, पितर, गन्धर्व, भूत, प्रेत, पिशाच, ब्रह्मराक्षस, पूतना, बालग्रह आदि जितनी भी योनियाँ हैं, उन सबके मूल कारण भगवान हैं। तात्पर्य है कि अनन्त ब्रह्माण्डों में अनन्त जीव हैं, पर उन सबका बीज एक ही है। लौकिक बीज से तो एक ही प्रकार की खेती पैदा होती है जैसे-गेहूँ के बीज से गेहूँ ही पैदा होता है, अन्य अनाज नहीं। सबके बीज अलग-अलग होते हैं। परन्तु भगवान्-रूपी बीज इतना विलक्षण है कि उस एक ही बीज से अनन्त ब्रह्माण्ड के अनन्त जीव पैदा हो जाते हैं। सब प्रकार के जीव पैदा होने पर भी उसमें कभी कोई विकृति नहीं आती, वह ज्यों-का-त्यों रहता है, क्योंकि वह बीज अव्यय और सनातन है (गीता 7/10, 9/18)।
नान्तोऽस्ति मम दिव्यानां विभूतीनां परन्तप।
एष तूद्देशतः प्रोक्तो विभूतेर्विस्तरो मया।। 40।।
हे परन्तप अर्जुन! मेरी दिव्य विभूतियों का अन्त नहीं है। मैंने (तुम्हारे सामने अपनी) विभूतियों का जो विस्तार कहा है, यह तो केवल संक्षेप से नाम मात्र कहा है।
व्याख्या-सगुण-निर्गुण, साकार-निराकार तथा मनुष्य, देवता, पशु, पक्षी, भूत, प्रेत, पिशाच आदि जो कुछ भी है, वह सब मिलकर भगवान् का ही समग्र रूप है अर्थात् सब भगवान् की ही विभूतियाँ हैं, उनका ही ऐश्वर्य है। तात्पर्य है कि एक भगवान् के सिवाय कुछ नही है। परिवर्तनशील असत् और अपरिवर्तनशील सत्-दोनों ही भगवान् की विभूतियाँ हैं-‘सदसच्चाहमर्जुन’ (गीता 9/19)। अतः जिसमें हमारा आकर्षण होता है, वह वास्तव में भगवान् का ही आकर्षण है। परन्तु भोग बुद्धि के कारण वह आकर्षण भगवत्प्रेम में परिणत न होकर काम, आसक्ति, मोह में परिणत हो जाता है, जो संसार में बाँधने वाला है।
पूर्व पक्ष-जब सब कुछ भगवान् ही हैं, तो फिर विभूति-वर्णन का क्या प्रयोजन है?
उत्तर पक्ष-अर्जुन का प्रश्न ही यही था कि मैं कहाँ-कहाँ आपका चिन्तन करूँ? यद्यपि सब कुछ भगवान् ही हैं, तथापि मनुष्य को जिस वस्तु-व्यक्ति में विशेषता दीखती है, उस वस्व्तु व्यक्ति में भगवान् को देखना, उनका चिन्तन करना सुगम पड़ता है। कारण कि मन में उसकी विशेषता अंकित हो जाने से मन स्वतः वहाँ जाता है। इसीलिए भगवान् ने अपनी मुख्य-मुख्य विभूतियों का वर्णन किया है। इस कारण साधक का कहीं भी राग-द्वेष न होकर भगवान् की तरफ ही दृष्टि रहनी चाहिये।
यद्यद्वि भूतिमत्सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव वा।
तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोंऽशसम्भवम्।। 41।।
जो-जो भी ऐश्वर्ययुक्त, शोभायुक्त और बल युक्त प्राणी तथा पदार्थ है, उस-उसको तुम मेरे ही तेज (योग अर्थात् सामथ्र्य) के अंश से उत्पन्न हुआ समझो।
व्याख्या-संसार की सत्ता, महत्ता और सम्बन्ध ही मनुष्य को बाँधने वाला है। इसलिये पहले कही गयी विभूतियों के सिवाय भी साधक को स्वतः जिस-जिसमें व्यक्तिगत आकर्षण दीखता हो, वहाँ-वहाँ वह भगवान् की ही विशेषता देखे। इससे बाँधने वाला है। इसलिए पहले कही गयी विभूतियों के सिवाय भी साधक को स्वतः जिस-जिसमें व्यक्तिगत आकर्षण दीखता हो, वहाँ-वहाँ वह भगवान की ही विशेषता देखे। इससे वहाँ उसकी भोग बुद्धि न होकर भगवद् बुद्धि हो जायगी तो उसके अन्तःकरण में भगवान् की सत्ता, महत्ता और उनसे सम्बन्ध हो जायगा।
मनुष्य में जो भी विशेषता आती है, वह सब भगवान् से ही आती है। अगर भगवान् में विशेषता न होती तो वह मनुष्य में कैसे आती? जो वस्तु अंशी में नहीं है, वह अंश में कैसे आ सकती है? जो विशेषता बीज में नहीं है, वह वृक्ष में कैसे आयेगी? उन्हीं भगवान् की कवित्व-शक्ति कवि में आती है, उन्हीं की वक्तृत्व शक्ति वक्ता में आती है, उन्हीं की लेखन-शक्ति लेखक में आती है, उन्हीं की दातृत्व-शक्ति दाता में आती है। जिनसे मुक्ति, ज्ञान, प्रेम आदि मिले हैं, उनकी तरफ दृष्टि न जाने से ही ऐसा दीखता है कि मुक्ति मेरी है, ज्ञान मेरा है, पे्रम मेरा है। यह तो देने वाले भगवान् की विशेषता है कि सब कुछ देकर भी वे अपने को प्रकट नहीं करते, जिससे लेने वाले को वह वस्तु अपनी ही मालूम देती है। मनुष्य से यह बड़ी भूल होती है कि वह मिली हुई वस्तु को तो अपनी मान लेता है, पर जहाँ से वह मिली है, उसको अपना नहीं मानता।
परमात्मा सम्पूर्ण शक्तियों, कलाओं, विद्याओं आदि के विलक्षण भण्डार हैं। शक्ति जड़ प्रकृति में नहीं रह सकती, प्रत्युत चिन्मय परमात्मतत्त्व में ही रह सकती है। जिस ज्ञान से क्रिया हो रही है, वह ज्ञान जड़ में कैसे रह सकता है? अगर ऐसा मानें कि सब शक्तियाँ प्रकृति में ही हैं, तो भी यह मानना पड़ेगा कि उन शक्तियों के प्राकट्य और उपयोग (सृष्टि-रचना) आदि करने की योग्यता प्रकृति में नहीं है। जैसे, कम्प्यूटर जड़ होते हुए भी अनेक चमत्कारिक कार्य करता है, परन्तु चेतन (मनुष्य) के द्वारा निर्मित, शिक्षित तथा संचालित हुए बिना वह कार्य नहीं कर सकता। कम्प्यूटर स्वतः सिद्धि नहीं है, प्रत्युत कृत्रिम (बनाया हुआ) है, परन्तु परमात्मा स्वतः सिद्ध हैं।
अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन।
विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत्।। 42।।
अथवा हे अर्जुन! तुम्हें इस प्रकार की बहुत-सी बातें जानने की क्या आवश्यकता है, जबकि मैं अपने किसी एक अंश से इस सम्पूर्ण जगत को व्याप्त करके स्थित हूँ अर्थात् अनन्त ब्रह्माण्ड मेरे किसी एक अंश में हैं।
व्याख्या-भगवान् अपनी तरफ दृष्टि कराते हैं कि अनन्त ब्रह्माण्डों में सब कुछ मैं ही तो हूँ! मेरी तरफ देखने से फिर कोई भी विभूति बाकी नहीं रहेगी। अब सम्पूर्ण विभूतियों का आधार, आश्रय, प्रकाशक, बीज (मूल कारण) मैं तेरे सामने बैठा हूँ, तो फिर विभूतियों का चिन्तन करने की क्या जरूरत?
ऊँ तत्सदिति श्रीम˜गवद्गीता सूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां
योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे विभूति योगो नाम
दशमोऽध्यायः ।। 10।।-क्रमशः (हिफी)