धर्म-अध्यात्म

अर्जुन ने भगवान के एक अंश में देखी पूरी सृष्टि

श्रीमद् भगवत गीता का प्रबोध-54

 

श्रीमद् भगवत गीता का प्रबोध-54
जिस तरह मर्यादा पुुरुषोत्तम श्रीराम के चरित्र को लेकर कहा गया है कि ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता…’ उसी प्रकार भगवान कृष्ण के मुखार बिन्दु से प्रस्फुटित हुई श्रीमद् भगवत गीता का सार भी अतल गहराइयों वाला है। विद्वानों ने अपने-अपने तरह से गीता के रहस्य को समझने और समझाने का प्रयास किया है। गीता का प्रारंभ ही जिस श्लोक से होता है उसकी गहराई को समझना आसान नहीं है। कौरवों और पांडवों के मध्य जो युद्ध लड़ा गया वह भी धर्म क्षेत्रे अर्थात धर्म भूमि और कुरु क्षेत्रे अर्थात तीर्थ भूमि पर लड़ा गया जिससे युद्ध में वीर गति प्राप्त होने वालों का कल्याण हो गया। इसी तरह की व्याख्या स्वामी रामसुख दास ने गीता प्रबोधनी में की है जिसे हम हिफी के पाठकों के लिए क्रमशः प्रकाशित करने का प्रयास करेंगे। हम स्वामी जी के आभारी हैं जिन्होंने गीता के श्लोकों की सरल शब्दों में व्याख्या की है। -प्रधान सम्पादक 

अर्जुन ने भगवान के एक अंश में देखी पूरी सृष्टि

तत्रैकस्थं जगत्कृत्स्नं प्रविभक्तमनेकधा।
अपश्यद्देवदेवस्य शरीरे पाण्डवस्तदा।। 13।।
उस समय अर्जुन ने देवों के देव भगवान् के उस शरीर में एक जगह स्थित अनेक प्रकार के विभागों में विभक्त सम्पूर्ण जगत् को देखा।
व्याख्या-अर्जुन ने भगवान् के शरीर में एक जगह स्थित जरायुज, अण्डज, उ˜िज्ज, स्वेदज, स्थावर-जंगम, नभचर-जलचर-थलचर, चैरासी लाख योनियाँ, चैदह भुवन आदि अनेक विभागों के विभक्त जगत् को देखा। जगत् भले ही अनन्त हो, पर है वह भगवान् के एक अंश में ही (गीता 10/42)। अर्जुन भगवान् के शरीर में जहाँ भी दृष्टि डालते हैं, वहीं उन्हें अनन्त जगत् दीखता है।
ततः स विस्मयाविष्टो हृष्टरोमा धनंजयः।
प्रणम्य शिरसा देवं कृतांजलिरभाषत।। 14।।
भगवान् के विश्व रूप को देखकर वे अर्जुन बहुत चकित हुए और आश्चर्य के कारण उनका शरीर रोमांचित हो गया। वे हाथ जोड़कर विश्व रूप देव को मस्तक से प्रणाम करके बोले।
पश्यामि देवांस्तव देव देहे
सर्वांस्तथा भूतविशेषसंडान्।
ब्रह्माणमीशं कमलासनस्थ-
मृषींश्च सर्वानुरगांश्च दिव्यान्।। 15।।
अर्जुन बोले-हे देव! मैं आपके शरीर में सम्पूर्ण देवताओं को विशेष-विशेष समुदायों को और कमलासन पर बैठे हुए ब्रह्माजी को, शंकर जी को, सम्पूर्ण ऋषियों और दिव्य सर्पों को देख रहा हूँ।
अनेक बाहूदरवक्त्रनेत्रं-
पश्यामि त्वां सर्वतोऽनन्तरूपम्।
नान्तं न मध्यं न पुनस्तवादिं-
पश्यामि विश्वेश्वर विश्वरूप।। 16।।
हे विश्वरूप! हे विश्वेश्वर! आपको मैं अनेक हाथों, पेटों, मुखों और नेत्रों वाला तथा सब ओर से अनन्त रूपों वाला देख रहा हूँ। मैं आपके न आदि को, न
मध्य को और न अन्त को ही देख रहा हूँ।
व्याख्या-भगवान् के एक अंश में भी अनन्तता है। भगवान् साकार हों या निराकार, सगुण हों या निर्गुण, बड़े-से-बड़े हों या छोटे-से-छोटे, उनका अनन्तपना ज्यों-का-त्यों रहता है।
किरीटिनं गदिनं चक्रिणं च
तेजोराशिं सर्वतो दीप्तिमन्तम्।
पश्यामि त्वां दुर्निरीक्ष्यं समन्ता-
द्दीप्तानलार्कद्युतिमप्रमेयम्।। 17।।
मैं आपको किरीट (मुकुट), गदा, चक्र (तथा शंख और पदम्) धारण किये हुए देख रहा हूँ। आपको तेज की राशि, सब ओर प्रकाश वाले, देदीप्यमान अग्नि तथा सूर्य के समान कान्ति वाले, नेत्रों के द्वारा कठिनता से देखे जाने योग्य और सब तरफ से अप्रमेय-स्वरूप देख रहा हूँ।
व्याख्या-भगवान् के द्वारा प्रदत्त दिव्य दृष्टि से भी अर्जुन भगवान् के विराट रूप को देखने में पूरे समर्थ नहीं हो रहे हैं-‘दुर्निरीक्ष्यम्।’ इससे सिद्ध होता है कि भगवान् की दी हुई शक्ति से भी भगवान् को पूरा नहीं जानते, यदि पूरा जान जायँ तो वे अनन्त कैसे रहेंगे?
त्वमक्षरं परमं वेदितव्यं-
त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम्।
त्वमव्ययः शाश्वतधर्मगोप्ता
सनातनस्त्वं पुरुषो मतो मे।। 18।।
आप ही जानने योग्य परम अक्षर (अक्षर ब्रह्म) हैं, आप ही इस सम्पूर्ण विश्व के परम आश्रय हैं, आप ही सनातन धर्म के रक्षक हैं और आप ही अविनाशी सनातन पुरुष हैं-ऐसा मैं मानता हूँ।
व्याख्या-यहाँ ‘त्वमक्षरं परमं वेदितव्यम्’ पदों से निर्गुण-निराकार का, ‘त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम्’ पदों से सगुण-निराकार का और ‘त्वं शाश्वतधर्मगोप्ता’ पदों से सगुण-साकार का वर्णन हुआ है। ये सब मिलकर भगवान् का समग्र रूप है, जिसे जान लेने पर फिर कुछ भी जानना शेष नहीं रहता (गीता 7/2)।
अनादिमध्यान्तमनन्तवीर्य-
मनन्तबाहुं शशिसूर्यनेत्रम्।
पश्यामि त्वां दीप्तहुताशवक्त्रं-
स्वतेजसा विश्वमिदं तपन्तम्।। 19।।
आपको मैं आदि, मध्य और अन्त से रहित, अनन्त प्रभावशाली, अनन्त भुजाओं वाले, चन्द्र और सूर्य रूप नेत्रों वाले, प्रज्वलित अग्नि रूप मुखों वाले और अपने तेज से इस संसार को तपाते हुए देख रहा हूँ।
द्यावापृथिव्योरिदमन्तरं हि
व्याप्तं त्वयैकेन दिशश्च सर्वाः।
दृष्ट्वाद्भुतं रूपमुग्रं तवेदं-
लोकत्रयं प्रव्यथितं महात्मन्।। 20।।
हे महात्मन्! यह स्वर्ग और पृथ्वी के बीच का अन्तराल और सम्पूर्ण दिशाएँ एक आपसे ही परिपूर्ण हैं। आपके इस अद्भुत और उग्र रूप को देखकर तीनों लोक व्यथित (व्याकुल) हो रहे हैं।
अमी हि त्वां सुरसंगा विशन्ति
केचि˜ीताः प्रांजलयो गृणन्ति।
स्वस्तीत्युक्त्वा महर्षिसिद्धसंगाः
स्तुवन्ति त्वां स्तुतिभिः पुष्कलाभिः।। 21।।
वे ही देवताओं के समुदाय आप में प्रविष्ट हो रहे हैं। उनमें से कई तो भयभीत होकर हाथ जोड़े हुए (आपके नामों और गुणों का) कीर्तन कर रहे हैं। महर्षियों और सिद्धों के समुदाय ‘कल्याण हो! मंगल हो!’ ऐसा कहकर उत्तम-उत्तम स्तोत्रों के द्वारा आपकी स्तुति कर रहे हैं।
व्याख्या-देवता, महर्षि, सिद्ध आदि भी भगवान् के ही विराट् रूप के अंग हैं। अतः प्रविष्ट होने वाले, भयभीत होने वाले, भगवान् के नामों और गुणों का कीर्तन करने वाले और स्तुति करने वाले भी भगवान् हैं और जिनमें प्रविष्ट हो रहे हैं, जिनसे भयभीत हो रहे हैं, जिनके नामों और गुणों का कीर्तन कर रहे हैं तथा जिनकी स्तुति कर रहे हैं, वे भी भगवान् हैं।-क्रमशः (हिफी)

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