
श्रीमद् भगवत गीता का प्रबोध-58
जिस तरह मर्यादा पुुरुषोत्तम श्रीराम के चरित्र को लेकर कहा गया है कि ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता…’ उसी प्रकार भगवान कृष्ण के मुखार बिन्दु से प्रस्फुटित हुई श्रीमद् भगवत गीता का सार भी अतल गहराइयों वाला है। विद्वानों ने अपने-अपने तरह से गीता के रहस्य को समझने और समझाने का प्रयास किया है। गीता का प्रारंभ ही जिस श्लोक से होता है उसकी गहराई को समझना आसान नहीं है। कौरवों और पांडवों के मध्य जो युद्ध लड़ा गया वह भी धर्म क्षेत्रे अर्थात धर्म भूमि और कुरु क्षेत्रे अर्थात तीर्थ भूमि पर लड़ा गया जिससे युद्ध में वीर गति प्राप्त होने वालों का कल्याण हो गया। इसी तरह की व्याख्या स्वामी रामसुख दास ने गीता प्रबोधनी में की है जिसे हम हिफी के पाठकों के लिए क्रमशः प्रकाशित करने का प्रयास करेंगे। हम स्वामी जी के आभारी हैं जिन्होंने गीता के श्लोकों की सरल शब्दों में व्याख्या की है। -प्रधान सम्पादक
कृष्ण ने अर्जुन को दी सांत्वना, दिखाया चतुर्भुज रूप
मा ते व्यथा मा च विमूढभावो-
दृष्ट्वा रूपं घोरमीदृड्ंममेदम्।
व्यपेतभीः प्रीतमनाः पुनस्त्वं-
तदेव मे रूपमिदं प्रपश्य।। 49।।
यह मेरा इस प्रकार का उग्र रूप देखकर तुझे व्यथा नहीं होना चाहिये और विमूढभाव भी नहीं होना चाहिये। अब निर्भय और प्रसन्न मन वाला होकर तू फिर उसी मेरे इस (चतुर्भुज) रूप को अच्छी तरह देख ले।
व्याख्या-अर्जुन को भयभीत देखकर भगवान् कहते हैं कि मैं चाहे शान्त अथवा उग्र किसी भी रूप में दिखायी दूँ, हूँ तो मैं तुम्हारा सखा ही! तुम डर गये तो यह तुम्हारी मूढ़ता है! जो कुछ दीख रहा है, वह सब मेरी ही लीला है। इसमें डरने की क्या बात है?
हमें जो संसार दीखता है, वह भगवान् का विराट रूप नहीं है कारण कि विराट रूप तो दिव्य और अविनाशी है, पर दीखने वाला संसार भौतिक और नाशवान है। जैसे हमें भौतिक वृन्दावन तो दीखता है, पर उसके भीतर का दिव्य वृन्दावन नहीं दीखता, ऐसे ही हमें भौतिक विश्व तो दीखता है, पर उसके भीतर का दिव्य विश्व (विराट रूप) नहीं दीखता। ऐसा दीखने में कारण है-सुख भोग की इच्छा। भोगेच्छा के कारण ही जड़ता, भौतिकता, मलिनता दीखती है। यदि भोगेच्छा को लेकर संसार में आकर्षण न हो तो सब कुछ चिन्मय विराट रूप ही है।
इत्यर्जुनं वासुदेवस्तथोक्त्वा
स्वकं रूपं दर्शयामास भूयः।
आश्वासयामास च भीतमेनं-
भूत्वा पुनः सौम्यवपुर्महात्मा।। 50।।
संजय बोले-वासुदेव भगवान् ने अर्जुन से ऐसा कहकर फिर उसी प्रकार से अपना रूप (देवरूप) दिखाया और महात्मा श्रीकृष्ण ने पुनः सौम्य रूप (द्विभुज मानुष रूप) होकर इस भयभीत अर्जुन को आश्वासन दिया।
दृष्टृवेदं मानुषं रूपं तव सौम्यं जनार्दन।
इदानीमस्मि संवृत्तः सचेताः प्रकृतिं गतः।। 51।।
अर्जुन बोले-हे जनार्दन! आपके इस सौम्य मनुष्य रूप को देखकर मैं इस समय स्थिरचित हो गया हूँ और अपनी स्वाभाविक स्थिति को प्राप्त हो गया हूँ।
व्याख्या-द्विभुज मनुष्य रूप (कृष्ण), चतुर्भुज रूप (विष्णु) और सहó भुज (विराट् रूप) तीनों एक ही समग्र भगवान् के रूप हैं।
सुदुर्दर्शमिदं रूपं दृष्टवानसि यन्मम।
देवा अप्यस्य रूपस्य नित्यं दर्शनकाडंक्षिणः।। 52।।
श्री भगवान् बोले-मेरा यह जो (चतुर्भुज) रूप तुमने देखा है, इसके दर्शन अत्यन्त दुर्लभ हैं। देवता भी इस रूप को देखने के लिये नित्य लालायित रहते हैं।
व्याख्या-यद्यपि देवताआंे का शरीर दिव्य होता है, तथापि भगवान् का शरीर उससे भी अधिक विलक्षण है। देवताओं का शरीर भौतिक तेजोमय और भगवान् का शरीर चिन्मय, सत्-चित्-आनन्दमय तथा अलौकिक होता है। अतः देवता भी भगवान् को देखने के लिये लालायित रहते हैं। जैसे साधारण लोगों में नये-नये स्थान देखने की रुचि रहती है, ऐसे ही देवताओं में भगवान् को देखने की रुचि तो है, पर प्रेम नहीं है। भगवान् को अनन्य प्रेम से ही देखा जा सकता है।
नाहं वेर्दर्न तपसा न दानेन न चेज्यया।
शक्य एवंविधो द्रष्टुं दृष्टवानसि मां यथा।। 53।।
जिस प्रकार तुमने मुझे देखा है, इस प्रकार का (चतुर्भुज रूप वाला) मैं न तो वेदों से, न तपसे, न दान से और न यज्ञ से ही देखा जा सकता हूँ।
भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन।
ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टुं च परन्तप।। 54।।
परन्तु हे शत्रुतापन अर्जुन! इस प्रकार (चतुर्भुज-रूप वाला) मैं केवल अनन्य भक्ति से ही तत्त्व से जानने में और (साकार रूप से) देखने में तथा प्रवेश (प्राप्त) करने में शक्य हूँ।
व्याख्या-वेदाध्ययन, तप, दान, यज्ञ आदि कितनी ही महान् क्रिया क्यों न हो, उससे भगवान् को प्राप्त नहीं किया जा सकता। उन्हें तो अनन्य भक्ति से ही प्राप्त किया जा सकता है। अनन्य भक्ति है-केवल भगवान् का ही आश्रय, सहारा हो और अपने बल का किंचिन्मात्र भी आश्रय न हो।
ज्ञान मार्ग में तो केवल जानना और प्रवेश करना-ये दो होते हैं (गीता 18/55), पर भक्ति मार्ग में जानना, देखना और प्रवेश करना-ये तीनों होते हैं। भक्ति से भगवान् के दर्शन भी हो सकते हैं-यह भक्ति की विशेषता है। भक्ति से समग्र की प्राप्ति होती है।
मत्कर्मकृन्मत्परमो म˜क्तः संगवर्जितः।
निर्वैरः सर्वभूतेषु यः स मामेति पाण्डव।। 55।।
हे पाण्डव! जो मेरे लिये ही कर्म करने वाला, मेरे ही परायण और मेरा ही प्रेमी भक्त है तथा सर्वथा आसक्ति रहित और प्राणि मात्र के साथ वैरभाव से रहित है, वह भक्त मुझे प्राप्त होता है।
व्याख्या-अनन्य भक्ति के पाँच साधन हैं- (1) भगवान् के लिये कर्म करना अर्थात् स्थूल शरीर से भगवान् के परायण होना, (2) भगवान् के परायण होना अर्थात् सूक्ष्म तथा कारण शरीर से भगवान् के परायण होना, (3) भगवान् का प्रेमी भक्त होना अर्थात् स्वयं से भगवान् के परायण होना, (4) सर्वथा आसक्ति रहित होना और (5) प्राणि मात्र के साथ वैर भाव से रहित होना। इन पाँचों में प्रथम तीन बातें भगवान् से सम्बन्ध जोड़ने के लिये हैं और अन्तिम दो बातें संसार से सम्बन्ध तोड़ने के लिये हैं।
संसार की सत्ता सिद्ध की दृष्टि में नहीं है, प्रत्युत साधक की दृष्टि में है। अतः साधक को सावधान रहना चाहिये कि वह संसार के साथ किसी भी तरह का सम्बन्ध न माने, क्योंकि सम्बन्ध ही बाँधने वाला है।
ऊँ तत्सदिति श्रीम˜गवद्गीता सूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां
योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे विश्वरूपदर्शनयोगो
नामैकादशोऽध्यायः।। 11।। -क्रमशः (हिफी)