धर्म-अध्यात्म

संपूर्ण इंद्रियों से रहित हैं परमात्मा

श्रीमद् भगवत गीता का प्रबोध-65

श्रीमद् भगवत गीता का प्रबोध-65
जिस तरह मर्यादा पुुरुषोत्तम श्रीराम के चरित्र को लेकर कहा गया है कि ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता…’ उसी प्रकार भगवान कृष्ण के मुखार बिन्दु से प्रस्फुटित हुई श्रीमद् भगवत गीता का सार भी अतल गहराइयों वाला है। विद्वानों ने अपने-अपने तरह से गीता के रहस्य को समझने और समझाने का प्रयास किया है। गीता का प्रारंभ ही जिस श्लोक से होता है उसकी गहराई को समझना आसान नहीं है। कौरवों और पांडवों के मध्य जो युद्ध लड़ा गया वह भी धर्म क्षेत्रे अर्थात धर्म भूमि और कुरु क्षेत्रे अर्थात तीर्थ भूमि पर लड़ा गया जिससे युद्ध में वीर गति प्राप्त होने वालों का कल्याण हो गया। इसी तरह की व्याख्या स्वामी रामसुख दास ने गीता प्रबोधनी में की है जिसे हम हिफी के पाठकों के
लिए क्रमशः प्रकाशित करने का प्रयास करेंगे। हम स्वामी जी के आभारी हैं जिन्होंने गीता के श्लोकों की सरल शब्दों में व्याख्या
की है। -प्रधान सम्पादक 

संपूर्ण इंद्रियों से रहित हैं परमात्मा

सर्वतः पाणिपादं तत्सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम्।
सर्वतः श्रुतिमल्लो के सर्वमावृत्य तिष्ठति।। 13।।
वे परमात्मा सब जगह हाथों और पैरों वाले, सब जगह नेत्रों, सिरों और मुखों वाले तथा सब जगह कानों वाले हैं। वे संसार में सबको व्याप्त करके स्थित हैं।
व्याख्या-भगवान् सभी अवयवों से सभी क्रियाएँ कर सकते हैं, क्योंकि उनके सभी अवयवों में सभी अवयव विद्यमान हैं। उनके छोटे-से-छोटे अंश में भी सब-की-सब इन्द्रियाँ विद्यमान हैं। उनमें सब जगह सब कुछ है-‘सर्व सर्वात्कम्’ (योगदर्शन व्यास भाष्य, विभूति0 14़)। जैसे, कम और स्याही में किस जगह कौन-सी लिपि नहीं है? जानकार व्यक्ति उस एक ही कलम और स्याही से अनेक लिपियाँ लिख देता है। सोने की डली में किस जगह कौन-सा गहना नहीं है? सुनार उस एक डली में से कड़ा, कण्ठी, नथ आदि अनेक गहने निकाल लेता है। इसी तरह लोहे में किस जगह कौन-सा औजार अथवा अस्त्र-शस्त्र नहीं है? मिट्टी और पत्थर में किस जगह कौन-सी मूर्ति नहीं है? ऐसे ही भगवान् में किस जगह क्या नहीं है?
सर्वन्द्रियगुणाभासं सर्वेन्द्रियविवर्जितम्।
असक्तं सर्वभृच्चैव निर्गुणं गुणभोक्तृ च ।। 14।।
वे परमात्मा सम्पूर्ण इन्द्रियों से रहित हैं और सम्पूर्ण इन्द्रियों के विषयों को प्रकाशित करने वाले हैं, आसक्ति रहित हैं और सम्पूर्ण संसार का भरण-पोषण करने वाले हैं तथा गुणों से रहित हैं और सम्पूर्ण गुणों के भोक्ता हैं।
व्याख्या-एक परमात्मा के सिवाय और किसी की भी सत्ता नहीं है। हम जो कुछ भी कहते, सुनते, पढ़ते, सोचते हैं, वह परमात्मा से भिन्न नहीं है। सबसे रहित भी वही है और सबके सहित भी वही है।
इस प्रकरण में ब्रह्म की मुख्यता होने पर भी प्रस्तुत श्लोक में समग्र परमात्मा का ज्ञेय-तत्त्व के रूप में वर्णन हुआ है। इससे सिद्ध होता है कि समग्र की मुख्यता ज्ञान और भक्ति दोनों में है।
बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च।
सूक्ष्मत्वात्तदविज्ञेयं दूरस्थं चान्तिके च तत्।। 15।।
वे परमात्मा सम्पूर्ण प्राणियों के बाहर-भीतर परिपूर्ण हैं और चर-अचर प्राणियों के रूप में भी वे ही हैं एवं दूर-से-दूर तथा नजदीक-से-नजदीक भी वे ही हैं और वे अत्यन्त सूक्ष्म होने से जानने में नहीं आते।
व्याख्या-परमात्मा को बारहवें श्लोक में तो ‘ज्ञेय’ कहा गया है, पर प्रस्तुत श्लोक में उन्हें ‘अवज्ञेय’ कहा गया है। इसका तात्पर्य यह है कि परमात्मा ज्ञेय होने पर भी संसार की तरह ज्ञेय नहीं हैं। जैसे संसार इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि से नहीं जाने जाते। इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि प्रकृति के कार्य हैं। प्रकृति का कार्य प्रकृति को भी पूरा नहीं जान सकता फिर प्रकृति से अतीत परमात्मा को जान ही कैसे सकता है? परमात्मा को तो मानकर स्वीकार करना पड़ता है, क्योंकि स्वीकृति स्वयं में होती है। स्वयं की परमात्मा के साथ एकता है, इसलिये परमात्मा की प्राप्ति भी स्वीकृति से होती है, चिन्तन-मनन-श्रवण-वर्णन करने से नहीं।
अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव च स्थितम्।
भूतभर्तृ च तज्ज्ञेयं ग्रसिष्णु प्रभविष्णु च।। 16।।
वे परमात्मा स्वयं विभाग रहित होते हुए भी सम्पूर्ण प्राणियों में विभक्त की तरह स्थित हैं और वे जानने योग्य परमात्मा ही सम्पूर्ण प्राणियों को उत्पन्न करने वाले तथा उनका भरण-पोषण करने वाले और संहार करने वाले हैं।
व्याख्या-जैसे संसार भौतिक दृष्टि से एक है, ऐसे ही परमात्मा भी एक (अविभक्त) हैं। जैसे संसार भौतिक दृष्टि से एक होते हुए भी अनेक वस्तुओं, व्यक्तियों आदि के रूप में दीखता है, ऐसे ही परमात्मा एक होते हुए भी अनेक रूपों में दीखते हैं। तात्पर्य है कि परमात्मा एक होते हुए भी अनेक हैं और अनेक होते हुए भी एक हैं। वास्तविक सत्ता कभी दो हो सकती ही नहीं, क्योंकि दो होने से असत् आ जायगा।
उत्पन्न करने वाले भी परमात्मा हैं और उत्पन्न होने वाले भी परमात्मा हैं। भरण-पोषण करने वाले भी परमात्मा हैं और जिनका भरण-पोषण होता है, वे परमात्मा हैं। संहार करने वाले भी परमात्मा हैं और जिनका संहार होता है, वे भी परमात्मा हैं।
ज्योतिषामपि तज्ज्योतिस्तमसः परमुच्यते।
ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यं हृदि सर्वस्य विष्ठितम्।। 17।।
वे परमात्मा सम्पूर्ण ज्योतियों की भी ज्योति और अज्ञान से अत्यन्त परे कहे गये हैं। वे ज्ञान स्वरूप, जानने योग्य, ज्ञान से प्राप्त करने योग्य और सबके हृदय में विराजमान हैं।
व्याख्या-बारहवें से सत्रहवें श्लोक तक जिस ज्ञेय-तत्त्व का वर्णन हुआ है, वह भगवान् का समग्र रूप ही है। कारण कि इसमें निर्गुण-निराकार (बारहवाँ श्लोक), सगुण-निराकार (तेरहवाँ श्लोक) और सगुण-साकार (सोलहवाँ श्लोक)-तीनों ही रूपों का वर्णन हुआ है।
‘ज्योति’ का नाम प्रकाश (ज्ञान) का है। शब्द का प्रकाशक कान है। स्पर्श का प्रकाशक त्वचा है। रूप का प्रकाशक नेत्र है। रस का प्रकाशक जिव्हा है। गन्ध का प्रकाशक नासिका है। इन पाँचों इन्द्रियों का प्रकाशक मन है। मन का प्रकाशक बुद्धि है। बुद्धि का प्रकाशक स्वयं है। स्वयं का प्रकाशक परमात्मा है। स्वयं प्रकाश परमात्मा का कोई भी प्रकाशक नहीं है। जैसे सूर्य में अन्धकार कभी आता ही नहीं, ऐसे ही परम-प्रकाशक परमात्मा में अज्ञान कभी आता ही नहीं, आ सकता ही नहीं।-क्रमशः (हिफी)

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