
श्रीमद् भगवत गीता का प्रबोध-67
जिस तरह मर्यादा पुुरुषोत्तम श्रीराम के चरित्र को लेकर कहा गया है कि ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता…’ उसी प्रकार भगवान कृष्ण के मुखार बिन्दु से प्रस्फुटित हुई श्रीमद् भगवत गीता का सार भी अतल गहराइयों वाला है। विद्वानों ने अपने-अपने तरह से गीता के रहस्य को समझने और समझाने का प्रयास किया है। गीता का प्रारंभ ही जिस श्लोक से होता है उसकी गहराई को समझना आसान नहीं है। कौरवों और पांडवों के मध्य जो युद्ध लड़ा गया वह भी धर्म क्षेत्रे अर्थात धर्म भूमि और कुरु क्षेत्रे अर्थात तीर्थ भूमि पर लड़ा गया जिससे युद्ध में वीर गति प्राप्त होने वालों का कल्याण हो गया। इसी तरह की व्याख्या स्वामी रामसुख दास ने गीता प्रबोधनी में की है जिसे हम हिफी के पाठकों के लिए क्रमशः प्रकाशित करने का प्रयास करेंगे। हम स्वामी जी के आभारी हैं जिन्होंने गीता के श्लोकों की सरल शब्दों में व्याख्या
की है। -प्रधान सम्पादक
परमात्व तत्व का अनुभव
उपद्रष्टानुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः।
परमात्मेति चाप्युक्तो देहेऽस्मिन्पुरुषः परः।। 22।।
यह पुरुष (शरीर के साथ सम्बन्ध रखने से) ‘उपद्रष्टा’, (उसके साथ मिलकर सम्मति, अनुमति देने से) ‘अनुमन्ता’, (अपने को उसका भरण-पोषण करने वाला मानने से) ‘भर्ता’, (उसके संग से सुख-दुःख भोगने से) ‘भोक्ता’ और (अपने को उसका स्वामी मानने से़) महेश्वर’ बन जाता है। परन्तु (स्वरूप से) यह पुरुष ‘परमात्मा’-इस नाम से कहा जाता है। यह इस देह में रहता हुआ भी देह से पर (सर्वथा सम्बन्ध रहित) ही है।
व्याख्या-वास्तव में पुरुष (चेतन) ‘पर’ ही है, पर अन्य के सम्बन्ध से वह उपद्रष्टा, अनुमन्ता आदि बन जाता है। जैसे, मनुष्य पुत्र के सम्बन्ध से ‘पिता’, पिता के सम्बन्ध से ‘पुत्र’, पत्नी के सम्बन्ध से ‘पति’, बहन के सम्बन्ध से ‘भाई’ आदि बन जाता है। ये सम्बन्ध अपने कर्तव्य का पालन करने के लिये ही हैं, ममता करने के लिए नहीं। वास्तविक स्वरूप तो ‘पर’ अर्थात् सर्वथा सम्बन्ध रहित ही है।
यहाँ उपद्रष्टा, अनुमन्ता आदि अनेक उपाधियों का तात्पर्य एकता में है कि चेतन-तत्त्व वास्तव में एक ही है।
यह एवं वेत्ति पुरुषं प्रकृतिं च गुणैः सह।
सर्वथा वर्तमानोऽभिजायते।। 23।।
इस प्रकार पुरुष को और गुणों के सहित प्रकृति को जो मनुष्य (अलग-अलग) जानता है, वह सब तरह का बर्ताव करता हुआ भी फिर जन्म नहीं लेता।
व्याख्या-जो साधक पूर्वश्लोक में आये ‘देहेऽस्मिन्’ पुरुषः परः’ के अनुसार अपने को देह से सर्वथा असंग अनुभव कर लेता है, वह अपने वर्ण-आश्रम आदि के अनुसार समस्त कर्तव्य-कर्म करते हुए भी पुनर्जन्म को प्राप्त नहीं होता, क्योंकि पुनर्जन्म होने में गुणों का संग ही कारण है (गीता 13/21) जैसे छाछ से ही निकला हुआ पुनः छाछ में मिलकर दही बनता है, ऐसे ही प्रकृति जन्य गुणों से सम्बन्धा-विच्छेद होने पर मनुष्य पुनः गुणों से नहीं बँधता (गीता 4/34)।
ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति केचिदात्मानमात्मना।
अन्ये खाझ््ख्येन योगेन कर्मयोगेन चापरे।। 24।।
कई मनुष्य ध्यान योग के द्वारा, कई सांख्य योग के द्वारा और कई कर्मयोग के द्वारा अपने-आपसे अपने-आप में परमात्मतत्त्व का अनुभव करते हैं।
व्याख्या-जैसे पूर्व श्लोक में विवेक के महत्त्व को मुक्ति का उपाय बताया, ऐसे ही यहाँ ध्यान योग आदि अन्य मुक्ति के उपाय बताते हैं। गीता में ध्यान योग से (6/28), सांख्य योग से (2/15) और कर्मयोग से (2/71) तीनों से परमात्म प्राप्ति की बात कही गयी है। ये तीनों परमात्म प्राप्ति के स्वतन्त्र साधन हैं।
अन्ये त्वेवमजानन्तः श्रुत्वान्येभ्य उपासते।
तेऽपि चातितरन्त्येव मृत्युं श्रुतिपरायणाःं। 25।।
दूसरे मनुष्य इस प्रकार (ध्यान योग, सांख्य योग, कर्मयोग आदि साधनों को) नहीं जानते, पर दूसरों से (जीवन्मुक्त महापुरुषों से) सुनकर ही उपासना करते हैं, ऐसे वे सुनने के अनुसार आचरण करने वाले मनुष्य भी मृत्यु को तर जाते हैं।
व्याख्या-जिन मनुष्यों में शास्त्रों को तथा उनमें वर्णित साधनों को समझने की योग्यता नहीं है, जिनका विवेक कमजेार है, पर जिनके भीतर मृत्यु से तरने (मुक्ति) की उत्कट अभिलाषा है, ऐसे मनुष्य भी जीवन्मुक्त सन्त-महात्माओं की आज्ञा का पालन करके मृत्यु को तर जाते हैं अर्थात् तत्त्व ज्ञान को प्राप्त कर लेते हैं।
यावत्संजायते किंचित्सत्त्वं स्थावरजंगमम्।
क्षेत्र क्षेत्रज्ञ संयोगात्तद्विद्धि भरतर्षभ।। 26।।
हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन! स्थावर और जंगम जितने भी प्राणी पैदा होते हैं, उनको तुम क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के संयोग से उत्पन्न हुए समझो।
व्याख्या-चर-अचर, स्थावर,-जंगम आदि जितने भी प्राणी हैं, वे सब-के-सब क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के सम्बन्ध से ही पैदा होते हैं। क्षेत्रज्ञ (प्रकृतिस्थ पुरुष) शरीर को मैं, मेरा, तथा मेरे लिये मान लेता है-यही क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का संयोग है।
पूर्वपक्ष-संयोग सजातीयता में ही होता है, फिर विजातीय क्षेत्र (जड़) के साथ क्षेत्रज्ञ (चेतन) का संयोग कैसे संभव है?
उत्तर पक्ष-ठीक है, जैसे अंधकार और सूर्य का संयोग नहीं हो सकता, ऐसे ही क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का भी संयोग नहीं हो सकता, तथापि परमात्मा का अंश होने के कारण क्षेत्रज्ञ (जीव) में यह शक्ति है कि वह विजातीय वस्तु को भी पकड़ सकता है, उसके साथ अपना सम्बन्ध मान सकता है। उसे यह स्वतन्त्रता परमात्मा के द्वारा प्रदत्त है। इस स्वतन्त्रता का दुरुपयोग करके ही क्षेत्रज्ञ ने संसार के साथ अपना सम्बन्ध मान लिया और जन्म-मरा के चक्र में पड़ गया (गीता 13/21)।
समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्त परमेश्वरम्।
विनश्यत्स्वविनश्यन्तं यः पश्यति स पश्यति।। 27।।
जो नष्ट होते हुए सम्पूर्ण प्राणियों में परमेश्वर को नाश रहित और सम रूप से स्थित देखता है, वही वास्तव में सही देखता है।
व्याख्या-जैसे आकाश में कभी सूर्य का प्रकाश फैल जाता है कभी रात का अँधेरा छा जाता है, कभी धुआँ छा जाता है, कभी बादल छा जाते हैं, कभी बिजली चमकती है, कभी वर्षा होती है, कभी ओले गिरते हैं, कभी गर्जना होती है परन्तु आाकाश में कोई फर्क नहीं पड़ता। वह ज्यों-का-त्यों निर्लिप्त-निर्विकार रहता है। इसी प्रकार सर्वत्र परिपूर्ण परमात्म सत्ता में कभी महासर्ग और महा प्रलय होता है, कभी सर्ग और प्रलय होता है, कभी जन्म और मृत्यु होती है, कभी अकाल पड़ता है, कभी बाढ़ आती है, कभी भूकम्प आता है, कभी घमासान युद्ध रहता है। परन्तु सत्ता ज्यों-की-त्यों निर्लिप्त-निर्विकार रहती है। बद्ध हो या मुक्त, पापी हो या धर्मात्मा, यह निर्विकार सत्ता दोनों में समान रूप में स्थित रहती है।
प्रतिक्षण विनाश की तरफ जाने वाले प्राणियों में विनाश रहित, सदा एक रूप रहने वाले परमात्मा को जो निर्लिप्त-निर्विकार देखता है, वही वास्तव में सही देखता है। तात्पर्य है कि जो परिवर्तनशील, नाशवान् शरीर के साथ स्वयं को देखता है, उसका देखना सही नहीं है। परन्तु जो सदा ज्यों-के-त्यों निर्लिप्त-निर्विकार रहने वाले परमात्मतत्त्व के साथ स्वयं को अभिन्न रूप से देखता है, उसका देखना ही सही है।-क्रमशः (हिफी)