
श्रीमद् भगवत गीता का प्रबोध-68
जिस तरह मर्यादा पुुरुषोत्तम श्रीराम के चरित्र को लेकर कहा गया है कि ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता…’ उसी प्रकार भगवान कृष्ण के मुखार बिन्दु से प्रस्फुटित हुई श्रीमद् भगवत गीता का सार भी अतल गहराइयों वाला है। विद्वानों ने अपने-अपने तरह से गीता के रहस्य को समझने और समझाने का प्रयास किया है। गीता का प्रारंभ ही जिस श्लोक से होता है उसकी गहराई को समझना आसान नहीं है। कौरवों और पांडवों के मध्य जो युद्ध लड़ा गया वह भी धर्म क्षेत्रे अर्थात धर्म भूमि और कुरु क्षेत्रे अर्थात तीर्थ भूमि पर लड़ा गया जिससे युद्ध में वीर गति प्राप्त होने वालों का कल्याण हो गया। इसी तरह की व्याख्या स्वामी रामसुख दास ने गीता प्रबोधनी में की है जिसे हम हिफी के पाठकों के लिए क्रमशः प्रकाशित करने का प्रयास करेंगे। हम स्वामी जी के आभारी हैं जिन्होंने गीता के श्लोकों की सरल शब्दों में व्याख्या
की है। -प्रधान सम्पादक
चरअचर सब में ईश्वर को देखें
समं पश्यन्हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम्।
न हिनस्त्यात्मनात्मानं ततो याति परां गतिम्।। 28।।
क्योंकि सब जगह समरूप से स्थित ईश्वर को समरूप से देखने वाला मनुष्य अपने-आपसे अपनी हिंसा नहीं करता, इसलिये वह परम गति को प्राप्त हो जाता है।
व्याख्या-जो मनुष्य स्थावर-जंगम, चर-अचर आदि सम्पूर्ण प्राणियों में समान रूप से परिपूर्ण परमात्मतत्त्व के साथ अपनी अभिन्नता का अनुभव करता है, वह अपने द्वारा अपनी हत्या नहीं करता। शरीर के जन्म, मृत्यु, रोग आदि विकारों को अपने विकार मानना ही अपने द्वारा ही अपनी हत्या करना अर्थात् अपने को जन्म-मृत्यु के चक्कर में डालना है।
वास्तव में सत्ताईसवें-अट्ठाइसवें श्लोकों में आत्मा का ही वर्णन है, परन्तु ‘परमेश्वर’ तथा ‘ईश्वर’ नाम आने से इन श्लोकों की व्याख्या में परमात्मा का वर्णन किया गया है, क्योंकि आत्मा का परमात्मा से साधम्र्य है (गीता 13/22)।
प्रकृत्यैव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वशः।
यः पश्यति तथात्मानमकर्तारं स पश्यति।। 29।।
जो सम्पूर्ण क्रियाओं को सब प्रकार से प्रकृति के द्वारा ही की जाती हुई देखता है और अपने-आपको अकर्ता देखता (अनुभव करता) है, वही यथार्थ देखता है।
व्याख्या-जितनी भी क्रियाएँ होती हैं, वे सब-की-सब प्रकृति-विभाग में ही होती हैं। प्रकृति के द्वारा होने वाली क्रियाओं को ही गीता में कहीं गुणों से होने वाली और कहीं इन्द्रियों से होने वाली क्रियाएँ कहा गया है, जैसे-सम्पूर्ण कर्म सब प्रकार से प्रकृति के गुणों द्वारा किये जाते हैं-‘प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः’ (3/27) गुण ही गुणों में बरत रहे हैं-‘गुणा गुणेषु वर्तन्ते’ (3/28) गुणों के सिवाय अन्य कोई कर्ता है ही नहीं-‘नान्यं गुणेभ्यः कर्तारं यदा द्रष्टानुपश्यति’ (14/99) इन्द्रियाँ ही इन्द्रियों के विषय में बरत रही हैं-‘इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्ते’ (5/9) आदि।
तात्पर्य है कि क्रिया मात्र प्रकृति जन्य ही है। अतः प्रकृति कभी किंचिन्मात्र भी अक्रिय नहीं होती और पुरुष में कभी किंचिन्मात्र भी क्रिया नहीं होती। इसलिये गीता में आया है कि तत्त्व को जानने वाला सांख्य योगी मैं (स्वयं) लेश मात्र भी कुछ नहीं करता हूँ ऐसा अनुभव करता है-‘नैव किंचितकरोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित् (5/8) स्वयं न करता है, न करवाता है-‘नैव कुर्वन्न कारयन्’ (5/13), -यह पुरुष शरीर में रहता हुआ भी न करता है, न लिप्त होता है-‘शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते’ (13/31) जो आत्मा को कर्ता मानता है, वह दुर्मति ठीक नहीं समझता, क्योंकि उसकी बुद्धि शुद्ध नहीं है-‘तत्रैवं सति कर्तारमात्मानं…’ (18/16) आदि।
यदा भूतपृथग्भावमेकस्थमनुपश्यति।
तत एव च विस्तारं ब्रह्म सम्पद्यते तदा।। 30।।
जिस काल में साधक प्राणियों के अलग-अलग भावों को एक प्रकृति में ही स्थित देखता है और उस प्रकृति से ही उन सबका विस्तार देखता है, उस काल में वह ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है अर्थात् प्रकृति से अतीत स्वतः सिद्ध अपने स्वरूप परमात्मत्त्व को प्राप्त हो जाता है।
अनादित्वान्निर्गुणत्वात्परमात्मायमव्ययः।
शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते।। 31।।
हे कुन्तीनन्दन! यह (पुरुष स्वयं) अनादि होने से और गुणों से रहित होने से अविनाशी परमात्म-स्वरूप ही है। यह शरीर में रहता हुआ भी न करता है और न लिप्त होता है।
व्याख्या-जैसे मकान में रहते हुए भी हम मकान से अलग हैं, ऐसे ही शरीर में रहते हुए मानने पर भी हम स्वयं शरीर से अलग हैं। स्वयं अनादि है, पर शरीर आदि वाला है। स्वयं निर्गुण है, पर शरीर गुणमय है। स्वयं परमात्मा है, पर शरीर अनात्मा है। स्वयं अव्यय है, पर शरीर नाशवान् है। इसलिये अज्ञानी मनुष्य के द्वारा स्वयं को शरीर में स्थित मानने पर भी वास्तव में वह शरीर में स्थित नहीं है अर्थात् शरीर से सर्वथा असम्बद्ध है-‘न करोति न लिप्यते’। कारण कि शरीर का सम्बन्ध तो संसार के साथ है, पर स्वयं का सम्बन्ध परमात्मा के साथ है। अतः वास्तव में स्वयं कभी शरीरस्थ हो सकता ही नहीं, परन्तु इस वास्तविकता की तरफ ध्यान न देने के कारण मनुष्य स्वयं को शरीरस्थ मान लेता है।
‘न करोति न लिप्यते’-यह साधन जन्य नहीं है, प्रत्युत स्वतः स्वाभाविक है। तात्पर्य है कि स्वयं में लेशमात्र भी कर्तृत्व-भोक्तृत्व नहीं है-यह स्वतः सिद्ध बात है। इसमें कोई पुरुषार्थ नहीं है अर्थात् इसके लिये कुछ करना नहीं है। अतः कर्त्त्व-भोक्तृत्व को मिटाना नहीं है, प्रत्युत इनको अपने में स्वीकार नहीं करना है, इनके अभाव का अनुभव करना है, क्योंकि वास्तव में अपने में हंै ही नहीं! इसलिये साधक को अपने में निरन्तर अकर्तृत्व और अभोक्तृत्व का अनुभव करना चाहिये। अपने में निरन्तर अकर्तृत्व और अभोक्तृत्व का अनुभव होना ही जीवन्मुक्ति है।-क्रमशः (हिफी)