
श्रीमद् भगवत गीता का प्रबोध-70
जिस तरह मर्यादा पुुरुषोत्तम श्रीराम के चरित्र को लेकर कहा गया है कि ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता…’ उसी प्रकार भगवान कृष्ण के मुखार बिन्दु से प्रस्फुटित हुई श्रीमद् भगवत गीता का सार भी अतल गहराइयों वाला है। विद्वानों ने अपने-अपने तरह से गीता के रहस्य को समझने और समझाने का प्रयास किया है। गीता का प्रारंभ ही जिस श्लोक से होता है उसकी गहराई को समझना आसान नहीं है। कौरवों और पांडवों के मध्य जो युद्ध लड़ा गया वह भी धर्म क्षेत्रे अर्थात धर्म भूमि और कुरु क्षेत्रे अर्थात तीर्थ भूमि पर लड़ा गया जिससे युद्ध में वीर गति प्राप्त होने वालों का कल्याण हो गया। इसी तरह की व्याख्या स्वामी रामसुख दास ने गीता प्रबोधनी में की है जिसे हम हिफी के पाठकों के लिए क्रमशः प्रकाशित करने का प्रयास करेंगे। हम स्वामी जी के आभारी हैं जिन्होंने गीता के श्लोकों की सरल शब्दों में व्याख्या
की है। -प्रधान सम्पादक
कृष्ण की उत्तम ज्ञान की पुनव्र्याख्या
(चैदहवाँ अध्याय)
परं भूयः प्रवक्ष्यामि ज्ञानानां ज्ञानमुत्तमम्।
यज्ज्ञात्वा मुनयः सर्वे परां सिद्धिमितो गताः।। 1।।
श्री भगवान् बोले-सम्पूर्ण ज्ञानों में उत्तम और श्रेष्ठ ज्ञान को मैं फिर कहूँगा, जिसको जानकर सब-के-सब मुनि लोग इस संसार से (मुक्त होकर) परम सिद्धि को प्राप्त हो गये हैं।
व्याख्या-क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ के विभाग का ज्ञान सम्पूर्ण लौकिक-पारमार्थिक ज्ञानों से उत्तम तथा सर्वोत्कृष्ट है। यह ज्ञान परमात्मतत्त्व की प्राप्ति का निश्चित उपाय है, इसलिये इस ज्ञान को प्राप्त करने वाले सब-के-सब साधक परमात्मतत्त्व को प्राप्त हो जाते अर्थात् मुक्त हो जाते हैं। मुक्त होने पर क्रिया (परिश्रम) तथा पदार्थ (पराश्रय) का अत्यन्त अभाव हो जाता है और एक चिन्मय सत्ता (विश्राम) के सिवाय कोई जड़ वस्तु रहती ही नहीं, जो वास्तव में है।
इदं ज्ञानमुपाश्रित्य मम साधम्र्यमागताः।
सर्गेऽपि नोपजायन्ते प्रलये न व्यथन्ति च।। 2।।
इस ज्ञान का आश्रय लेकर जो मनुष्य मेरी सधर्मता को प्राप्त हो गये हैं, वे महासर्ग में भी पैदा नहीं होते और महाप्रलय में भी व्यथित नहीं होते।
व्याख्या-कारण शरीर के सम्बन्ध से ‘निर्विकल्प स्थिति’ होती है और कारण शरीर से सम्बन्ध-विच्छेद होने पर (स्वयं में) ‘निर्विकल्प बोध’ होता है। निर्विकल्प स्थिति तो सविकल्प में बदल सकती है, पर निर्विकल्प बोध सविकल्प में कभी नहीं बदलता। तात्पर्य है कि निर्विकल्प स्थिति में तो परिवर्तन होता है, पर निर्विकल्प बोध में कभी परिवर्तन नहीं होता, वह महासर्ग अथवा महाप्रलय होने पर भी सदा ज्यों-का-त्यों रहता है।
महासर्ग और महाप्रलय प्रकृति मंे होते हैं। प्रकृति से अतीत तत्त्व (परमात्मा) की प्राप्ति होने पर महासर्ग और महाप्रलय का कोई असर नहीं पड़ता, क्योंकि ज्ञानी महापुरुष का प्रकृति से सम्बन्ध ही नहीं रहता। प्रकृति से सम्बन्ध-विच्छेद होने को आत्यन्तिक प्रलय भी कहा गया है। तात्पर्य है कि प्रकृति के कार्य शरीर को पकड़ने से मनुष्य परतन्त्र हो जाता है, जन्म-मरण में पड़ जाता है, परन्तु शरीर से सम्बन्ध-विच्छेद होने पर वह स्वतन्त्र हो जाता है, निरपेक्ष-जीवन हो जाता है, सदा के लिये जन्म-मरण से छूट जाता है। वह परमात्मा की सधर्मता को प्राप्त हो जाता है अर्थात् जैसे परमात्मा सत्-चित्-आनन्द रूप हैं, ऐसे ही वह ज्ञानी महापुरुष भी सत्-चित्-आनन्द रूप हो जाता है, जोकि वास्तव में वह पहले से ही था।
मम योनिर्महदब्रह्म तस्मिन्गर्भं दधाम्यहम्।
सम्भवः सर्वभूतानां ततो भवति भारत।। 3।।
हे भरतवंशो˜व अर्जुन! मेरी मूल प्रकृति तो उत्पत्त्स्थिान है और मैं उसमें जीवरूप गर्भ का स्थापन करता हूँ। उससे सम्पूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति होती है।
व्याख्या-जीव जब तक मुक्त नहीं होता, तब तक प्रकृति के अंश कारण शरीर से उसका सम्बन्ध बना रहता है और वह महाप्रलय में कारण शरीर सहित ही प्रकृति में लीन होता है। जब उस जीव के कर्म परिपक्व होकर फल देने के लिये उन्मुख होते हैं, तब महासर्ग के आदि में भगवान् उसका प्रकृति के साथ पुनः विशेष सम्बन्ध स्थापित कर देते हैं।
सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तयः सम्भवन्ति याः।।
तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता।। 4।।
हे कुन्ती नंदन ! सम्पूर्ण योनियों में (प्राणियों के) जितने शरीर पैदा होते हैं, मूल प्रकृति तो उन सबकी माता है और मैं बीज-स्थापन करने वाला पिता हूँ।
व्याख्या-चैरासी लाख योनियाँ, देवता, पितर, गन्धर्व, भूत-प्रेत, पिशाच, स्थावर-जंगम, जलचर-थलचर-नभचर, जरायुज- अण्डज-उ˜िज्ज-स् वेदज आदि सम्पूर्ण योनियों के जितने भी मूर्त-अमूर्त, व्यक्त-अव्यक्त शरीर हैं, उन सबमें भगवान् अपने चेतन अंश रूप बीज को स्थापित करते हैं। इससे सिद्ध होता है कि प्रत्येक प्राणी में स्थित परमात्मा का अंश शरीरों की भिन्नता से ही भिन्न-भिन्न प्रतीत होता है। वास्तव में सम्पूर्ण प्राणियों में एक ही परमात्मतत्त्व विद्यमान है (गीता 13/2)।
सत्त्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृतिसम्भवाः।
निबध्नन्ति महाबाहो देहे देहिनमव्ययम्।। 5।।
हे महाबाहो! प्रकृति से उत्पन्न होने वाले सत्त्व, रज और तम-ये तीनों गुण अविनाशी देही (जीवात्मा) को देह में बाँध देते हैं।
व्याख्या-प्रकृति से उत्पन्न होने के कारण सत्त्व, रज और तम ये तीनों गुण प्रकृति-विभाग में ही हैं। परन्तु प्रकृति के कार्य शरीर से अपना सम्बन्ध मान लेने के कारण ये गुण अविनाशी चेतन को नाशवान्, जड़ शरीर में बाँध देते हैं अर्थात् मैं शरीर हूँ, शरीर मेरा है-ऐसा देहाभिमान उत्पन्न कर देते हैं। तात्पर्य है कि सभी विकार प्रकृति से सम्बन्ध से उत्पन्न होते हैं। चिन्मय सत्ता मात्र स्वरूप मंे कोई भी विकार नहीं है-‘असंगो ह्यायं पुरुषः’ (बृहदारण्यक0 4/3/15), ‘देहेऽस्मिन्पुरुषः परः’ (गीता 13/22़। विकारों के कारण ही जन्म-मरण होता है।
वास्तव में गुण जीव को नहीं बाँधते, प्रत्युत जीव ही उनका संग करके बँध जाता है। अगर गुण बाँधने वाले होते तो गुणों के रहते हुए कोई उनसे छूट सकता ही नहीं, गुणातीत (जीवन्मुक्त) हो सकता ही नहीं!-क्रमशः (हिफी)