धर्म-अध्यात्म

सत्व गुण से उत्पन्न होता ज्ञान

श्रीमद् भगवत गीता का प्रबोध-72

 

श्रीमद् भगवत गीता का प्रबोध-72
जिस तरह मर्यादा पुुरुषोत्तम श्रीराम के चरित्र को लेकर कहा गया है कि ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता…’ उसी प्रकार भगवान कृष्ण के मुखार बिन्दु से प्रस्फुटित हुई श्रीमद् भगवत गीता का सार भी अतल गहराइयों वाला है। विद्वानों ने अपने-अपने तरह से गीता के रहस्य को समझने और समझाने का प्रयास किया है। गीता का प्रारंभ ही जिस श्लोक से होता है उसकी गहराई को समझना आसान नहीं है। कौरवों और पांडवों के मध्य जो युद्ध लड़ा गया वह भी धर्म क्षेत्रे अर्थात धर्म भूमि और कुरु क्षेत्रे अर्थात तीर्थ भूमि पर लड़ा गया जिससे युद्ध में वीर गति प्राप्त होने वालों का कल्याण हो गया। इसी तरह की व्याख्या स्वामी रामसुख दास ने गीता प्रबोधनी में की है जिसे हम हिफी के पाठकों के लिए क्रमशः प्रकाशित करने का प्रयास करेंगे। हम स्वामी जी के आभारी हैं जिन्होंने गीता के श्लोकों की सरल शब्दों में व्याख्या
की है। -प्रधान सम्पादक

सत्व गुण से उत्पन्न होता ज्ञान

लोभः प्रवृत्तिरारम्भः कर्मणामशमः स्पृहा।
रजस्येतानि जायन्ते विवृद्धे भरतर्षभ।। 12।।
हे भारतवंश श्रेष्ठ अर्जुन! रजोगुण के बढ़ने पर लोभ, प्रवृत्ति, कर्मों का आरम्भ, अशान्ति और स्पृहा-ये वृत्तियाँ पैदा होती हंै।
व्याख्या-जब रजोगुण बढ़ता है तब लोभ, प्रवृत्ति आदि वृत्तियाँ बढ़ती हैं। अतः ऐसे समय साधक को चह विचार करना चाहिये कि जब अनन्त ब्रह्माण्डों में लेश मात्र भी कोई वस्तु अपनी नहीं है, सब वस्तुएँ मिलने-बिछुड़ने वाली हैं, फिर अपने लिये क्या चाहिये? ऐसा विचार करके रजोगुण की वृत्तियों को मिटा दे, उनसे उदासीन हो जाय।
रजोगुण असंगता का विरोधी है-‘रजो रागात्मकं विद्धि’ (गीता 14/7)। मनुष्य क्रिया और पदार्थ से असंग होने पर ही योगारूढ़ होता है (गीता 6/4)। परन्तु क्रिया और पदार्थ का संग करने के कारण रजोगुण मनुष्य को योगारूढ़ नहीं होने देता।
अप्रकाशोऽप्रवृत्तिश्च प्रमादो मोह एव च।
तमस्येतानि जायन्ते विवृद्धे कुरुनन्दन।। 13।।
हे कुरुनन्दन! तमोगुण के बढ़ने पर अप्रकाश, अप्रवृत्ति तथा प्रमाद और मोह-ये वृत्तियाँ भी पैदा होती हैं।
व्याख्या-भगवान् पूर्वोक्त तीन श्लोकों में क्रमशः सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण की वृद्धि के लक्षणों का वर्णन करके साधक को सावधान करते हैं कि गुणों के साथ अपना सम्बन्ध मानने से ही गुणों में होने वाली वृत्तियाँ उसे अपने में प्रतीत होती हैं। वास्तव में साधक का इन वृत्तियों के साथ किंचिन्मात्र भी सम्बन्ध नहीं है। गुण तथा गुणों की वृत्तियाँ प्रकृति का कार्य होने से परिवर्तनशील हैं और स्वयं परमात्मा का अंश होने से अपरिवर्तनशील है। परिवर्तनशील के साथ अपरिवर्तनशील का सम्बन्ध कैसे हो सकता है?

यदा सत्त्वे प्रवृद्धे तु प्रलयं याति देहभृत्।
तदोत्तमविदां लोकानमलान्प्रतिपद्यते।। 14।।
जिस समय सत्त्व गुण बढ़ा हो, उस समय यदि देहधारी मनुष्य मर जाता है तो वह उत्तमवेत्ताओं के निर्मल लोकों में जाता है।
व्याख्या-गुणों से उत्पन्न होने वाली वृत्तियाँ कर्मों की अपेक्षा कमजोर नहीं हैं। सात्त्विक वृत्ति भी पुण्य कर्मों के समान ही श्रेष्ठ है। तात्पर्य यह हुआ कि शास्त्र विहित पुण्य कर्मों मंे भी भाव का ही महत्त्व है, पुण्य कर्म का नहीं। पदार्थ, क्रिया, भाव और उद्देश्य-ये चारों उत्तरोत्तर श्रेष्ठ हैं।
यदि उत्तम वेत्ता (विवेकवान्) मनुष्य सत्त्वगुण को अपना मानते हुए उसमें रमण न करे और भगवान् के सम्मुख रहे तो वह सत्त्व गुण से भी असंग (गुणातीत) होकर भगवान् के परमधाम को चला जायगा, अन्यथा सत्त्वगुण का सम्बन्ध रहने पर वह ब्रह्म लोक तक के ऊँचे लोकांे तक ही जायगा।

रजसि प्रलयं गत्वा कर्मसंगिषु जायते।
तथा प्रलीनस्तमसि मूढयोनिषु जायते।। 15।।
रजोगुण के बढ़ने पर मरने वाला प्राणी कर्मसंगी मनुष्य योनि में जन्म लेता है तथा तमोगुण बढ़ने पर मरने वाला मूढ़ योनियों में जन्म लेता है।
व्याख्या-जिसने जीवन भर अच्छे कर्म किये हैं, जिसके अच्छे भाव रहे हैं, वह यदि अन्तकाल में रजोगुण के बढ़ने पर मर जाता है तो मनुष्य योनि में जन्म लेने पर भी उसके आचरण, भाव अच्छे ही रहेंगे।
रजोगुण में ‘राग’-अंश ही जन्म-मरण देने वाला है, ‘क्रिया’ अंश नहीं। पदार्थ, क्रिया अथवा व्यक्ति, किसी में भी राग हो जायगा तो वह मनुष्य योनि में जन्म लेगा। मनुष्य स्वाभाविक कर्मसंगी है, क्योंकि नये कर्म करने का अधिकार मनुष्य योनि में ही है।
कर्मणः सुकृतस्याहु‘ सात्त्विकं निर्मलं फलम्।
रजस्तु फलं दुःखमज्ञानं तमसः फलम्।। 16।।
विवेकी पुरुषों ने शुभ कर्म का तो सात्त्विक निर्मल फल कहा है, राजस कर्म का फल दुःख कहा है और तामस कर्म का फल अज्ञान (मूढ़ता) कहा है।
व्याख्या-वास्तव में कर्म सात्त्विक-राजस-तामस नहीं होते, प्रत्युत कर्ता ही सात्त्विक-राजस-तामस होता है। जैसा कर्ता होता है, उसके द्वारा वैसे ही कर्म होते हैं। जैसे कर्म होते है, वैसा ही भाव दृढ़ होता है। जैसा भाव होता है, उसके अनुसार ही अन्तकालीन चिन्तन होता है। अन्तकालीन चिन्तन के अनुसार ही गति होती है (गीता 8/6)।
सत्त्वात्संजायते ज्ञानं रजसो लोभ एव च।
प्रमादमोहौ तमसो भवतोऽज्ञानमेव च।। 17।।
सत्त्वगुण से ज्ञान और रजोगुण से लोभ (आदि) ही उत्पन्न होते हैं। तमोगुण से प्रमाद, मोह एवं अज्ञान भी उत्पन्न होते हैं।
व्याख्या-ज्ञान (विवेक) सत्त्वगुण से प्रकट होता है और संग न करने पर बढ़ते-बढ़ते तत्त्व ज्ञान में परिणत हो जाता है। परन्तु रजोगुण-तमोगुण से होने वाले लोभ, प्रमाद, मोह, अज्ञान बढ़ते हैं तो कोई नुकसान बाकी नहीं रहता, कोई दुःख बाकी नहीं रहता, कोई मूढ़योनि बाकी नहीं रहती, कोई नरक बाकी नहीं रहता।
ऊध्र्वं गच्छन्ति सत्त्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः।
जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसाः।। 18।।
सत्त्व गुण में स्थित मनुष्य ऊध्र्वलोकों में जाते हैं, रजोगुण में स्थित मनुष्य मृत्युलोक में जन्म लेते हैं और निन्दनीय तमोगुण की वृत्ति में स्थित तामस मनुष्य अधोगति में जाते हैं।
व्याख्या-सात्त्विक, राजस अथवा तामस मनुष्य की गति तो अन्तिम चिन्तन के अनुसार होगी, पर सुख-दुःख का भोग उनके कर्मों के अनुसार ही होगा। उदाहरणार्थ, किसी के कर्म तो अच्छे हैं, पर अन्तिम चिन्तन पशु का हो गया तो अन्तिम चिन्तन के अनुसार वह पशु बन जायगा, परन्तु उस पशु योनि में भी उसे कर्मों के अनुसार बहुत सुख-आराम मिलेगा। इसी प्रकार किसी के कर्म तो बुरे हैं, पर अन्तिम चिन्तन के अनुसार वह मनुष्य बन गया तो उस मनुष्य योनि में भी उसे कर्मों के अनुसार दुःख, शोक, रोग आदि मिलेंगे।-क्रमशः (हिफी)

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