
श्रीमद् भगवत गीता का प्रबोध-74
जिस तरह मर्यादा पुुरुषोत्तम श्रीराम के चरित्र को लेकर कहा गया है कि ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता…’ उसी प्रकार भगवान कृष्ण के मुखार बिन्दु से प्रस्फुटित हुई श्रीमद् भगवत गीता का सार भी अतल गहराइयों वाला है। विद्वानों ने अपने-अपने तरह से गीता के रहस्य को समझने और समझाने का प्रयास किया है। गीता का प्रारंभ ही जिस श्लोक से होता है उसकी गहराई को समझना आसान नहीं है। कौरवों और पांडवों के मध्य जो युद्ध लड़ा गया वह भी धर्म क्षेत्रे अर्थात धर्म भूमि और कुरु क्षेत्रे अर्थात तीर्थ भूमि पर लड़ा गया जिससे युद्ध में वीर गति प्राप्त होने वालों का कल्याण हो गया। इसी तरह की व्याख्या स्वामी रामसुख दास ने गीता प्रबोधनी में की है जिसे हम हिफी के पाठकों के लिए क्रमशः प्रकाशित करने का प्रयास करेंगे। हम स्वामी जी के आभारी हैं जिन्होंने गीता के श्लोकों की सरल शब्दों में व्याख्या
की है। -प्रधान सम्पादक
दुःख-सुख में एक समान रहने वाला गुणातीत
उदासीनवदासीनो गुणैर्यो न विचाल्यते।
गुणा वर्तन्त इत्येव योऽवतिष्ठति नेगंते।। 23।।
जो उदासीन की तरह स्थित है और जो गुणों के द्वारा विचलित नहीं किया जा सकता तथा गुण ही गुणों में बरत रहे हैं-इस भाव से जो (अपने स्वरूप में ही) स्थित रहता है और स्वयं कोई भी चेष्टा नहीं करता।
व्याख्या-तीन विभाग हैं-‘करना’, ‘होना’ और ‘है’। ‘करना’ होने में और ‘होना’ ‘है’ में बदल जाय तो अहंकार सर्वथा नष्ट हो जाता है। जिसके अन्तःकरण में क्रिया और पदार्थ का महत्त्व है, ऐसा संसारी मनुष्य मानता है कि क्रिया कर रहा हूँ-‘अहंकार विमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते’ (गीता 3/27)। जो कर्ता बनता है, उसे भोक्ता बनना ही पड़ता है। जिसमें विवेक की प्रधानता है, ऐसा साधक तो अनुभव करता है कि क्रिया हो रही है-गुण गुणेनु वर्तन्ते’ (गीता 3/28) अर्थात् मैं कुछ भी नहीं करता हूँ-नैव किंचित्करोमीति (गीता 5/8) । परन्तु जिसे तत्त्वज्ञान हो गया है, ऐसा गुणातीत महापुरुष केवल स़़त्ता तथा ज्ञप्ति मात्र (‘है’) का ही अनुभव करता है-‘‘योऽवतिष्ठति नेगंते।’ वह चिन्मय सत्ता सम्पूर्ण क्रियाओं में ज्यों-की-त्यों परिपूर्ण है। क्रियाओं का तो अन्त हो जाता है, पर चिन्मय सत्ता ज्यों-की-त्यों रहती है। महापुरुष की दृष्टि क्रियाओं पर न रहकर स्वतः एकमात्र चिन्मय सत्ता (‘है’) पर ही रहती है।
समदुःखसुखः स्वस्थः समलोष्टाश्मकाचनः।
तुल्यप्रियाप्रियो धीरस्तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः।। 24।।
मानापमानयोस्तुल्यस्तुल्यो मित्रारिपक्षयोः।
सर्वारम्भपरित्यागी गुणातीतः स उच्यते।। 25।।
जो धीर मनुष्य दुःख-सुख में सम तथा अपने स्वरूप में स्थित रहता है जो मिट्टी के ढेले, पत्थर और सोने में सम रहता है, जो प्रिय-अप्रिय में सम रहता है, जो अपनी निन्दा-स्तुति में सम रहता है, जो मान-अपमान में सम रहता है, जो मित्र-शत्रु के पक्ष में सम रहता है और जो सम्पूर्ण कर्मों के आरम्भ का त्यागी है, वह मनुष्य गुणातीत कहा जाता है।
व्याख्या-यहाँ भगवान् ने सुख-दुःख, प्रिय-अप्रिय, निन्दा-स्तुति और मान-अपमान-ये आठ परस्पर-विरुद्ध नाम लिये हैं, जिनमें साधारण मनुष्यों की तो विषमता हो ही जाती है, साधकों की भी कभी-कभी विषमता हो जाती है। इन आठ कठिन स्थलों में जिसकी समता हो जाती है, उसके लिए अन्य सभी अवस्थाओं में समता रखना सुगम हो जाता है। गुणातीत महापुरुष की इन आठों स्थलों में स्वतः स्वाभाविक समता रहती है।
मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते।
स गुणान्समतीत्यैतान्ब्रह्मभूयाय कल्पते।। 26।।
और जो मनुष्य अव्यभिचारी भक्तियोग के द्वारा मेरा सेवन करता है, वह इन गुणों का अतिक्रमण करके ब्रह्म प्राप्ति का पात्र हो जाता है।
व्याख्या-भक्ति से साधक जो भी चाहता है, उसी की प्राप्ति हो जाती है। जो साधक मुख्य रूप से ब्रह्म की प्राप्ति अर्थात् मुक्ति, तत्त्व ज्ञान चाहता है, उसे भक्ति से ब्रह्म की प्राप्ति हो जाती है, क्योंकि ब्रह्म की प्रतिष्ठा भगवान् ही हैं (गीता 14/27)। ब्रह्म समग्र भगवान् का ही एक अंग (स्वरूप) है (गीता 7/29-30)। तेरहवें अध्याय के दसवें श्लोक में भी भक्ति को ज्ञान प्राप्ति का साधन बताया गया है।
श्रीम˜ागवतमहापुराण में सगुण की उपासना को निर्गुण (सत्त्वादि गुणों से अतीत) बताया गया है जैसे-‘मन्निकेतं तु निर्गुणम्’ (11/25/25) ‘मत्सेवायां तु निर्गुणा’ (11/25/27) आदि। इसलिये सगुणोपासक भक्त तीनों गुणों से अतीत हो जाता है।
सगुण भगवान् भी गुणों के आश्रित नहीं हैं, प्रत्युत गुण उनके आश्रित हैं। जो सत्त्व-रज-तम गुणों के वश में है, उसका नाम ‘सगुण’ नहीं है, प्रत्युत जिसमें असीम ऐश्वर्य, माधुर्य, सौन्दर्य, औदार्य अनन्त दिव्य गुण नित्य विद्यमान रहते हैं, उसका नाम ‘सगुण’ है। भगवान् के द्वारा सात्त्विक,
राजस अथवा तामस क्रियाएँ तो हो सकती हैं, पर वे उन गुणों के वश में नहीं होते।
भगवान् की तरफ चलने से भक्त स्वतः और सुगमता से गुणातीत हो जाता है। इतना ही नहीं, उसे भगवान् के समग्र रूप का भी ज्ञान हो जाता है और प्रेम भी प्राप्त हो जाता है।
ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहममृतस्याव्ययस्य च।
शाश्वतस्य च धर्मस्य सुखस्यैकान्तिकस्य च।। 27।।
क्योंकि ब्रह्म का और अविनाशी अमृत का तथा शाश्वत धर्म का और ऐकान्तिक सुख का आश्रय मैं ही हूँ।
व्याख्या-‘ब्रह्म तथा अविनाशी अमृत का आश्रय मैं हूँ’-यह निर्गुण-निराकार की तथा ‘ज्ञान योग’ की बात है। ‘शाश्वत धर्म का आश्रय मैं हूँ’-यह सगुण-साकार की तथा ‘कर्मयोग’ की बात है। ‘एकान्तिक सुख का आश्रय मैं हूँ‘-यह सगुण-निराकार की तथा ‘ध्यान योग’ की बात है। तात्पर्य यह हुआ कि मेरी (सगुण-साकार की) उपासना करने से, मेरा आश्रय लेने से भक्त को ज्ञान योग, कर्म योग और ध्यान योग-तीनों की सिद्धि हो जाती है। कारण कि समग्र भगवान् के एक अंश में सब कुछ विद्यमान है (गीता 10/42)। भगवान् ज्ञानयोग, कर्मयोग, भक्ति योग आदि सबकी प्रतिष्ठा (आश्रय) हैं।
ऊँ तत्सदिति श्रीम˜गवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे गुणत्रयविभागयोगो नाम चतुर्दशोऽयायः।। 14।।-क्रमशः (हिफी)