धर्म-अध्यात्म

वायु की तरह निर्लिप्त रहता जीव

श्रीमद् भगवत गीता का प्रबोध-77

 

श्रीमद् भगवत गीता का प्रबोध-77
जिस तरह मर्यादा पुुरुषोत्तम श्रीराम के चरित्र को लेकर कहा गया है कि ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता…’ उसी प्रकार भगवान कृष्ण के मुखार बिन्दु से प्रस्फुटित हुई श्रीमद् भगवत गीता का सार भी अतल गहराइयों वाला है। विद्वानों ने अपने-अपने तरह से गीता के रहस्य को समझने और समझाने का प्रयास किया है। गीता का प्रारंभ ही जिस श्लोक से होता है उसकी गहराई को समझना आसान नहीं है। कौरवों और पांडवों के मध्य जो युद्ध लड़ा गया वह भी धर्म क्षेत्रे अर्थात धर्म भूमि और कुरु क्षेत्रे अर्थात तीर्थ भूमि पर लड़ा गया जिससे युद्ध में वीर गति प्राप्त होने वालों का कल्याण हो गया। इसी तरह की व्याख्या स्वामी रामसुख दास ने गीता प्रबोधनी में की है जिसे हम हिफी के पाठकों के लिए क्रमशः प्रकाशित करने का प्रयास करेंगे। हम स्वामी जी के आभारी हैं जिन्होंने गीता के श्लोकों की सरल शब्दों में व्याख्या की है। -प्रधान सम्पादक 

वायु की तरह निर्लिप्त रहता जीव

शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्वरः।
गृहीत्वैतानि संयाति वायुर्गन्धानिवाशयात्।। 8।।
जैसे वायु गन्ध के स्थान से गन्ध को (ग्रहण करके ले जाती है), ऐसे ही शरीरादि का स्वामी बना हुआ जीवात्मा भी जिस शरीर को छोड़ता है, वहाँ से इन (मन सहित इन्द्रियों) को ग्रहण करके फिर जिस शरीर को प्राप्त होता है, उसमें चला जाता है।
व्याख्या-वास्तव में शुद्ध चेतन (आत्मा) का किसी शरीर को प्राप्त करना और उसका त्याग करके दूसरे शरीर में जाना हो नहीं सकता, क्योंकि आत्मा अचल और समान रूप से सर्वत्र व्याप्त है (गीता 2/17, 24)। शरीरों का ग्रहण और त्याग परिच्छिन्न (एक देशीय) तत्त्व के द्वारा ही होना सम्भव है, जबकि आत्मा कभी किसी भी देश-कालादि में परिच्छिन्न नहीं हो सकती परन्तु जब यह आत्मा प्रकृति के कार्य शरीर से तादात्मय कर लेती है अर्थात् शरीर को ‘मैं’ और ‘मेरा’ मान लेती है, तब सूक्ष्म शरीर के आने-जाने को उसका आना-जाना कहा जाता है।
वायु का दृष्टान्त देने का तात्पर्य है कि जीव वायु की तरह निर्लिप्त रहता है। शरीर से लिप्त होने पर भी वास्तव में इसकी निर्लिप्तता ज्यों-की- त्यों रहती है। ‘शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते’ (गीता 13/31)।
श्रोत्रं चक्षुः स्पर्शनं च रसनं घ्राणमेव च।
अधिष्ठाय मनश्चायं विषयानुपसेवते।। 9।।
यह जीवात्मा मन का आश्रय लेकर ही श्रोत्र और नेत्र तथा त्वचा, रसना और घ्राण इन पाँचों इन्द्रियों के द्वारा विषयों का सेवन करता है।
व्याख्या-जैसे कोई व्यापारी किसी कारण वश एक जगह से दुकान उठाकर दूसरी जगह लगाता है, ऐसे ही जीवात्मा एक शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर में जाता है और जैसे पहले शरीर में विषयों का रागपूर्वक सेवन करता था, ऐसे ही दूसरे शरीर में जाने पर (वही स्वभाव होने से) विषयों का सेवन करने लगता है। इस प्रकार जीवात्मा बार-बार विषयों में आसक्ति के कारण ऊँच-नीच योनियों में भटकता रहता है। कारण कि विषयों का सेवन करने से स्वयं की गौणता और शरीर-संसार की मुख्यता हो जाती है। इसलिये स्वयं भी जगद्रूप हो जाता है। (गीता 7/13)।
उत्क्रामन्तं स्थितं वापि भुज्जानं वा गुणान्वितम्।
विमूढा नानुपश्यन्ति पश्यन्ति ज्ञानचक्षुषः।। 10।।
शरीर को छोड़कर जाते हुए या दूसरे शरीर में स्थित हुए अथवा विषयों को भोगते हुए भी गुणों से युक्त जीवात्मा के स्वरूप को मूढ़ मनुष्य नहीं जानते, ज्ञानरूपी नेत्रों वाले (ज्ञानी मनुष्य ही) जानते हैं।
व्याख्या-शरीर को छोड़कर जाना, दूसरे शरीर में स्थित होना और विषयों को भोगना-तीनों क्रियाएँ अलग-अलग हैं, पर उनमें रहने वाला जीवात्मा एक ही है-यह बात प्रत्यक्ष होते हुए भी अविवेकी मनुष्य इसको नहीं जानता अर्थात् अपने अनुभव को महत्त्व नहीं देता। कारण कि तीनों गुणांे से मोहित होने के कारण वह बेहोश-सा रहता है (गीता 7/13)।
भगवान ने पिछले श्लोक में पाँच क्रियाएँ बतायी थीं-सुनना, देखना, स्पर्श करना, स्वाद लेना तथा सूँघना, और इस श्लोक में तीन क्रियाएँ बतायी हैं-शरीर को छोड़कर जाना, दूसरे शरीर में स्थित होना तथा विषयों को भोगना। इन आठों में कोई भी क्रिया निरन्तर नहीं रहती, पर स्वयं निरन्तर रहता है। क्रियाएँ तो आठ हैं पर इन सबमंे स्वयं एक ही रहता है। इसलिये इनके भाव और अभाव का, आरम्भ और अन्त का ज्ञान सबको होता है। जिसे आरम्भ और अन्त का ज्ञान होता है, वह स्वयं नित्य होता है-यह नियम है।
अनेक अवस्थाओं में स्वयं एक रहता है और एक रहते हुए अनेक अवस्थाओं में जाता है। यदि स्वयं एक न रहता तो सब अवस्थाओं का अलग-अलग अनुभव कौन करता? परन्तु ऐसी बात प्रत्यक्ष होते हुए भी विमू़ढ़ मनुष्य इस तरफ नहीं देखते, प्रत्युत ज्ञान रूपी नेत्रों वाले योगी मनुष्य ही देखते हैं।
यतन्तो योगिनश्चैनं पश्चन्त्यात्यात्मन्यवस्थितम्।
यजन्तोऽप्यकृतात्मानो नैनं पश्यन्त्यचेतसः।। 11।।
यत्न करने वाले योगी लोग अपने-आपमें स्थित इस परमात्मतत्त्व का अनुभव करते हैं। परन्तु जिन्होंने अपना अन्तःकरण शुद्ध नहीं किया है, ऐसे अविवेकी मनुष्य यत्न करने पर भी इस तत्त्व का अनुभव नहीं करते।
व्याख्या-सदा न भोग साथ रहता है, न संग्रह साथ रहता है-यह विवेक मनुष्य में स्वतः है परन्तु जो मनुष्य शास्त्र पढ़ते हुए सत्संग करते हुए, साधन करते हुए भी अपने विवेक की तरफ ध्यान नहीं देते, भोग और संग्रह से अलगाव का अनुभव नहीं करते, वे मनुष्य ‘अकृतात्मा’ हैं। ऐसे मनुष्यों को अठारहवें अध्याय के सोलहवें श्लोक में भगवान् ने ‘अकृत बुद्धि’ और ‘दुर्मति’ कहा है। यद्यपि परमात्म प्राप्ति कठिन नहीं है, तथापि भीतर से राग, आसक्ति, सुख बुद्धि पड़ी रहने से वे साधन करते हुए भी परमात्मा को नहीं जानते। कारण कि भोग तथा संग्रह में रुचि रखने वाले मनुष्य का विवेक स्थिर नहीं रहता।
पूर्व श्लोक में जिन्हें ‘विमूढ़ाः’ कहा गया है, उन्हीं को यहाँ ‘अचेतसः’ कहा गया है। गुणों से मोहित होने के कारण वे न तो विषयों के विभाग को जानते हैं और न स्वयं के विभाग को ही जानते हैं अर्थात् भोगों का संयोग-वियोग अलग है और स्वयं अलग है-यह नहीं जानते।
सातवें से ग्यारहवें श्लोक तक के इस प्रकरण में भगवान् यह बताना चाहते हैं कि मेरा अंश जीवात्मा सर्वथा अलग है और जिस सामग्री (शरीरादि पदार्थ और क्रिया) को वह भूल से अपनी मानता है, वह सर्वथा अलग है। सूर्य और अमावस्या की रात्रि की तरह दोनों का विभाग ही अलग-अलग है। उनका परस्पर संयोग होना सम्भव ही नहीं है। जो उपर्युक्त जड़ और चेतन-दोनों के विभाग को सर्वथा अलग-अलग देखता है, वही ज्ञानी और योगी है परन्तु जो दोनों को मिला हुआ देखता है, वह अज्ञानी और भोगी है।-क्रमशः (हिफी)

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