
श्रीमद् भगवत गीता का प्रबोध-78
जिस तरह मर्यादा पुुरुषोत्तम श्रीराम के चरित्र को लेकर कहा गया है कि ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता…’ उसी प्रकार भगवान कृष्ण के मुखार बिन्दु से प्रस्फुटित हुई श्रीमद् भगवत गीता का सार भी अतल गहराइयों वाला है। विद्वानों ने अपने-अपने तरह से गीता के रहस्य को समझने और समझाने का प्रयास किया है। गीता का प्रारंभ ही जिस श्लोक से होता है उसकी गहराई को समझना आसान नहीं है। कौरवों और पांडवों के मध्य जो युद्ध लड़ा गया वह भी धर्म क्षेत्रे अर्थात धर्म भूमि और कुरु क्षेत्रे अर्थात तीर्थ भूमि पर लड़ा गया जिससे युद्ध में वीर गति प्राप्त होने वालों का कल्याण हो गया। इसी तरह की व्याख्या स्वामी रामसुख दास ने गीता प्रबोधनी में की है जिसे हम हिफी के पाठकों के लिए क्रमशः प्रकाशित करने का प्रयास करेंगे। हम स्वामी जी के आभारी हैं जिन्होंने गीता के श्लोकों की सरल शब्दों में व्याख्या की है। -प्रधान सम्पादक
सूर्य-चंद्र आदि हैं भगवान की विभूतियां
यदादित्यगतं तेजो जग˜सयतेऽखिलम्
यच्चन्द्रमसि यच्चाग्नौ तत्तेजो विद्धि मामकम्।। 12।।
सूर्य को प्राप्त हुआ जो तेज सम्पूर्ण जगत् को प्रकाशित करता है और जो तेज चन्द्रमा में है तथा जो तेज अग्नि में है, उस तेज को मेरा ही जान।
व्याख्या-प्रभाव और महत्त्व की तरफ आकर्षित होना जीव का स्वभाव है। प्राकृत पदार्थों के सम्बन्ध से जीव प्राकृत पदार्थों के प्रभाव और महत्त्व से प्रभावित हो जाता है। अतः जीव पर पड़े प्राकृत पदार्थों के प्रभाव और महत्त्व को हटाने के लिये भगवान् यह रहस्य प्रकट करते हैं कि उन पदार्थों में जो प्रभाव और महत्त्व देखने में आता है, वह वस्तुतः (मूल में) मेरा ही है, उनका नहीं। सर्वोपरि प्रभावशाली तथा महत्त्वशाली मैं ही हूँ। मेरे ही प्रकाश से सब प्रकाशित हो रहे हैं।
गामाविश्य च भूतानि धारयाम्यहमोजसा।
पुष्णामि चैषधीः सर्वाः सोमो भूत्वा रसात्मकः।। 13।।
मैं ही पृथ्वी में प्रविष्ट होेकर अपनी शक्ति से समस्त प्राणियों को धारण करता हूँ और (मैं ही) रस स्वरूप चन्द्रमा होकर समस्त ओषधियों (वनस्पतियों) को पुष्ट करता हूँ।
व्याख्या-पृथ्वी, चन्द्रमा आदि सब भगवान् की अपरा प्रकृति है (गीता 7/4)। अतः इसके उत्पादक, धारक, पालक, संरक्षक, प्रकाशक आदि सब कुछ भगवान् ही हैं। भगवान् की शक्ति होने से अपरा प्रकृति भगवान् से अभिन्न है।
अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः।
प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम्।। 14।।
प्राणियों के शरीर में रहने वाला मैं प्राण-अपान से युक्त वैश्वानर (जठराग्नि) होकर चार प्रकार के अन्न को पचाता हूँ।
व्याख्या-पृथ्वी में प्रविष्ट होकर सम्पूर्ण प्राणियों को धारण करना, चन्द्रमा होकर सम्पूर्ण वनस्पतियों का पोषण करना, फिर उनको खाने वाले प्राणियों के भीतर जठराग्नि होकर खाये हुए अन्न को पचाना आदि सम्पूर्ण कार्य भगवान् की ही शक्ति से होते हैं। परन्तु मनुष्य उन कार्यों को अपने द्वारा किया जाने वाला मानकर व्यर्थ में ही अभिमान कर लेता है, जैसे बैलगाड़ी के नीचे छाया में चलने वाला कुत्ता समझता है कि बैलगाड़ी मैं ही चलाता हूँ।
सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो-
मत्तः स्मृतिज्र्ञानमपोहनं च।
वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो-
वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम्।। 15।।
मैं ही सम्पूर्ण प्राणियों के हृदय में स्थित हूँ तथा मुझसे ही स्मृति, ज्ञान और अपोहन (संशय आदि दोषों का नाश) होता है। सम्पूर्ण वेदों के द्वारा मैं ही जानने योग्य हूँ। वेदों के तत्त्व का निर्णय करने वाला और वेदों को जानने वाला भी मैं ही हूँ।
व्याख्या-पिछले तीन श्लोकों में भगवान् ने प्रभाव और क्रिया रूप से अपनी विभूतियों का वर्णन किया, अब प्रस्तुत श्लोक में स्वयं अपना वर्णन करते हैं। तात्पर्य है कि इस श्लोक में स्वयं भगवान् का वर्णन है, आदित्यगत, चन्द्रगत, अग्निगत अथवा वैश्वानरगत भगवान् का वर्णन नहीं। मूल में एक ही तत्त्व है, केवल वर्णन में भिन्नता है।
पहले ‘ममैवांशो जीवलोके’ (15/7) पदों से यह सिद्ध हुआ कि भगवान् अपने हैं और यहाँ ‘सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टः’ पदों यह सिद्ध होता है कि भगवान् अपने में हैं। भगवान् को अपना स्वीकार करने से उनमें स्वाभाविक प्रेम होगा और अपने में स्वीकार करने से उन्हें पाने के लिये दूसरी जगह जाने की जरूरत नहीं रहेगी। सबके हृदय में रहने के कारण भगवान् की प्राप्ति मात्र को नित्य प्राप्त हैं, अतः किसी भी साधक को भगवान् की प्राप्ति से निराश नहीं होना चाहिये।
भगवान् कहते हैं कि वेद अनेक हैं, पर उन सबमें जानने योग्य एक मैं ही हूँ और उन सबको जानने वाला भी मैं ही हूँ। तात्पर्य है कि सब कुछ मैं ही हूँ-‘वासुदेवः सर्वम्।
द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च।
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते।। 16।।
इस संसार में क्षर ़(नाशवान्) और अक्षर (अविनाशी) ये दो प्रकार के ही पुरुष हैं। सम्पूर्ण प्राणियों के शरीर क्षर और जीवात्मा अक्षर कहा जाता है।
व्याख्या-पहले छठे श्लोक में और फिर बारहवें से पन्द्रहवें श्लोक तक भगवान् ने अलौकिक तत्त्व का वर्णन किया कि स्वतन्त्र सत्ता अलौकिक की ही है, लौकिक की नहीं। लौकिक की सत्ता अलौकिक से ही है। अलौकिक से ही लौकिक प्रकाशित होता है। लौकिक में जो प्रभाव देखने में आता है, वह सब अलौकिक का ही है। अब सोलहवें श्लोक में भगवान् ‘लोके’ पद से लौकिक तत्त्व का वर्णन करते हैं।
क्षर (जगत्) तथा अक्षर (जीव) दोनों लौकिक हैं, और भगवान् इन दोनों से विलक्षण अर्थात् अलौकिक हैं-उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः’ (गीता 15/17)। कर्मयोग और ज्ञानयोग-ये दो योग मार्ग भी लौकिक हैं-‘लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा’ (गीता 3/3़)। क्षर को लेकर कर्मयोग और अक्षर को लेकर ज्ञान योग चलता है, परन्तु भक्ति योग अलौकिक है, जो भगवान् को लेकर चलता है। सातवें अध्याय में वर्णित अपरा प्रकृति को यहाँ ‘क्षर’ नाम से और परा प्रकृति को यहाँ ‘अक्षर’ नाम से कहा गया है।-क्रमशः (हिफी)