
श्रीमद् भगवत गीता का प्रबोध-79
जिस तरह मर्यादा पुुरुषोत्तम श्रीराम के चरित्र को लेकर कहा गया है कि ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता…’ उसी प्रकार भगवान कृष्ण के मुखार बिन्दु से प्रस्फुटित हुई श्रीमद् भगवत गीता का सार भी अतल गहराइयों वाला है। विद्वानों ने अपने-अपने तरह से गीता के रहस्य को समझने और समझाने का प्रयास किया है। गीता का प्रारंभ ही जिस श्लोक से होता है उसकी गहराई को समझना आसान नहीं है। कौरवों और पांडवों के मध्य जो युद्ध लड़ा गया वह भी धर्म क्षेत्रे अर्थात धर्म भूमि और कुरु क्षेत्रे अर्थात तीर्थ भूमि पर लड़ा गया जिससे युद्ध में वीर गति प्राप्त होने वालों का कल्याण हो गया। इसी तरह की व्याख्या स्वामी रामसुख दास ने गीता प्रबोधनी में की है जिसे हम हिफी के पाठकों के लिए क्रमशः प्रकाशित करने का प्रयास करेंगे। हम स्वामी जी के आभारी हैं जिन्होंने गीता के श्लोकों की सरल शब्दों में व्याख्या की है। -प्रधान सम्पादक
भगवान ने बताया कि मैं पुरुषोत्तम क्यों हूं
उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः।
यो लोत्रयमाविश्य बिभत्र्यव्यय ईश्वरः।। 17।।
उत्तम पुरुष तो अन्य (विलक्षण) ही है, जो ‘परमात्मा’-इस नाम से कहा गया है। वही अविनाशी ईश्वर तीनों लोकों में प्रविष्ट होकर सबका भरण-पोषण करता है।
व्याख्या-पुरुषोत्तम को ‘अन्य’ कहने का तात्पर्य है कि क्षर और अक्षर तो लौकिक हैं, पर पुरुषोत्तम दोनों में विलक्षण अर्थात् अलौकिक हैं। अतः परमात्मा विचार के विषय नहीं हैं, प्रत्युत श्रद्धा-विश्वास के विषय हैं। परमात्मा के होने में भक्त, सन्त-महात्मा, वेद और शास्त्र ही प्रमाण हैं। ‘अप्य’ का स्पष्टीकरण भगवान् ने अगले श्लोक में किया है।
भगवान् मात्र प्राणियों का पालन-पोषण करते हैं। पालन-पोषण करने में भगवान् किसी के साथ कोई पक्षपात (विषमता) नहीं करते। वे भक्त-अभक्त, पापी-पुण्यात्मा, आस्तिक-नास्तिक आदि सबका समान रूप से पालन-पोषण करते हैं। प्रत्यक्ष देखने में भी आता है कि भगवान् द्वारा रचित सृष्टि में सूर्य सबको समान रूप से प्रकाश देता है, पृथ्वी सबको समान रूप से धारण करती है, वायु श्वास लेने के लिए सबको समान रूप से प्राप्त होती है, अन्न-जल सबको समान रूप से तृप्त करते हैं, इत्यादि। जब भगवान् के द्वारा रचित सृष्टि भी इतनी निष्पक्ष, उदार है तो फिर भगवान् स्वयं कितने निष्पक्ष, उदार होंगे!
आधुनिक वेदान्तियों ने ईश्वर को कल्पित बताकर साधक-जगत् की बहुत बड़ी हानि की है। उन्हें इस बात का भय है कि ईश्वर को मानने से अपने अद्वैत सिद्धांत में कमी आ जायगी परन्तु ईश्वर किसकी कल्पना है-इसका उत्तर उनके पास नहीं है। वास्तव में स़त्ता एक ही (अद्वैत़) है, पर अपने राग के कारण दूसरी सत्ता (द्वैत) दीखती है। दूसरी सत्ता का तात्पर्य संसार से है, ईश्वर से नहीं, क्योंकि संसार ‘पर’ है और ईश्वर ‘स्व’ (स्वकीय) है। अपना राग मिटाये बिना दूसरी सत्ता नहीं मिटेगी। राग तो अपना है, पर मान लिया ईश्वर को कल्पित! अतः ईश्वर को कल्पित न मानकर अपना राग मिटाना चाहिये। ईश्वर कल्पित नहीं है, प्रत्युत अलौकिक है। वह माया रूपी धेनु का बछड़ा नहीं है, प्रत्युत साँड़ है! उपनिषद मंे भी आया है-‘मायां तु प्रकृतिं विद्यान्मायिनं तु महेश्वरम्’ (श्वेताश्वतर0 4/10) ‘माया तो प्रकृति को समझना चाहिये और मायापति महेश्वर को समझना चाहिये। आज तक जिस ईश्वर के असंख्य भक्त हो चुके हैं, वह कल्पित कैसे हो सकता है?’
यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः।
अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः।। 18।।
कारण कि मैं क्षर से अतीत हूँ और अक्षर से भी उत्तम हूँ इसलिये लोक में और वेद में ‘पुरुषोत्तम’ नाम से प्रसिद्ध हूँ।
व्याख्या-क्षर और अक्षर की स्वतन्त्र सत्ता नहीं है, पर परमात्मा की स्वतन्त्र सत्ता है। क्षर और अक्षर दोनों परमात्मा में ही रहते हैं। परन्तु अक्षर अर्थात् जीव क्षर के साथ सम्बन्ध जोड़कर उसके अधीन हो जाता है-‘यदेदं धार्यते जगत्’ (गीता 7/5)। परमात्मा अक्षर (जीव) से भी उत्तम हैं। यदि जीव जगत् के साथ सम्बन्ध न जोड़कर उसके स्वामी परमात्मा के साथ सम्बन्ध जोड़े तो वह परमात्मा से अभिन्न (आत्मीय) हो जायगा-‘ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्’ (गीता 7/18)।
मुक्ति में तो अक्षर (स्वरूप) में स्थिति होती है, पर भक्ति में अक्षर से भी उत्तम पुरुषोत्तम की प्राप्ति होती है। स्वरूप अंश है, पुरुषोत्तम अंशी हैं।
यो मामेवमसम्मूढो जानाति पुरुषोत्तमम्।
स सर्ववि˜जति मां सर्वभावेन भारत।। 19।।
हे भरत वंशी अर्जुन! इस प्रकार जो मोह रहित मनुष्य मुझे पुरुषोत्तम जानता है, वह सर्वज्ञ सब प्रकार से मेरा ही भजन करता है।
व्याख्या-किसी विशेष महत्त्वपूर्ण बात पर मन राग पूर्वक लगता है और बुद्धि श्रद्धापूर्वक। जब मनुष्य भगवान् को क्षर से अतीत जान लेता है, तब उसका मन क्षर से हटकर भगवान् में लग जाता है। जब वह भगवान् को अक्षर से उत्तम जान लेता है, तब उसकी बुद्धि भगवान् में लग जाती है फिर उसकी प्रत्येक वृत्ति और क्रिया से स्वतः भगवान् का भजन होता है। कारण कि उसकी दृष्टि में एक भगवान् के सिवाय दूसरा कोई होता ही नहीं।
गीता में ‘सर्ववित्’ शब्द केवल भक्त के लिए ही यहाँ है। भक्त समग्र को अर्थात् लौकिक और अलौकिक-दोनों को जानता है, इसलिये वह सर्ववित् होता है। कारण कि लौकिक के अन्तर्गत अलौकिक नहीं आ सकता, पर अलौकिक के अन्तर्गत लौकिक भी आ जाता है। अतः निर्गुण तत्त्व (अक्षर) को जानने वाला ब्रह्म ज्ञानी सर्ववित् नहीं होता, प्रत्युत समग्र भगवान को जानने वाला भक्त सर्ववित् होता है।
इति गुह्यतमं शास्त्रमिदमुक्तं मयानघ।
एतद्बुद्ध्वा बुद्धिमान्स्यात्कृतकृत्यश्च भारत।। 20।।
हे निष्पाप अर्जुन! इस प्रकार यह अत्यन्त गोपनीय शास्त्र मेरे द्वारा कहा गया है। हे भरत वंशी अर्जुन! इसको जानकर मनुष्य ज्ञानवान् (ज्ञात-ज्ञातव्य) तथा कृतकृत्य हो जाता है।
व्याख्या-भगवान् ने इस अध्याय में अपने-आपको पुरुषोत्तम रूप से अर्थात् अलौकिक समग्र रूप से प्रकट किया है, इसलिये इसे ‘गुह्यतम शास्त्र; कहा गया है।
पूर्व श्लोक में सर्व भाव से भगवान् का भजन करने अर्थात् अव्यभिचारिणी भक्ति की बात विशेष रूप से आयी है। भक्ति में मनुष्य प्राप्त प्राप्तव्य हो जाता है। अतः पूर्व श्लोक में प्राप्त प्राप्तव्य होने की बात माननी चाहिये। इस श्लोक में (बुद्धिमान्स्यात्कृतकृत्यश्च’ पद में) ज्ञात ज्ञातव्य तथा कृतकृत्य होने की बात आयी है।
लौकिक क्षर और अक्षर तो प्राप्त हैं, अतः अलौकिक परमात्मा ही प्राप्तव्य हैं। इस श्लोक में यह भाव निकलता है कि भक्त को ज्ञान योग तथा कर्म योग-दोनों का फल प्राप्त हो जाता है अर्थात् वह ज्ञात ज्ञातव्य और कृत कृत्य भी हो जाता है (गीता 7/29-30, 10/10-11)
ऊँ तत्सदिति श्रीम˜गवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां
योग शास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे पुरुषोत्तमयोगो
नाम पंचदशोऽध्यायः ।। 15।।-क्रमशः (हिफी)