
श्रीमद् भगवत गीता का प्रबोध-80
जिस तरह मर्यादा पुुरुषोत्तम श्रीराम के चरित्र को लेकर कहा गया है कि ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता…’ उसी प्रकार भगवान कृष्ण के मुखार बिन्दु से प्रस्फुटित हुई श्रीमद् भगवत गीता का सार भी अतल गहराइयों वाला है। विद्वानों ने अपने-अपने तरह से गीता के रहस्य को समझने और समझाने का प्रयास किया है। गीता का प्रारंभ ही जिस श्लोक से होता है उसकी गहराई को समझना आसान नहीं है। कौरवों और पांडवों के मध्य जो युद्ध लड़ा गया वह भी धर्म क्षेत्रे अर्थात धर्म भूमि और कुरु क्षेत्रे अर्थात तीर्थ भूमि पर लड़ा गया जिससे युद्ध में वीर गति प्राप्त होने वालों का कल्याण हो गया। इसी तरह की व्याख्या स्वामी रामसुख दास ने गीता प्रबोधनी में की है जिसे हम हिफी के पाठकों के लिए क्रमशः प्रकाशित करने का प्रयास करेंगे। हम स्वामी जी के आभारी हैं जिन्होंने गीता के श्लोकों की सरल शब्दों में व्याख्या की है। -प्रधान सम्पादक
दैवी सम्पदा प्राप्त मनुष्य के लक्षण
(सोलहवाँ अध्याय)
अभयं सत्त्वसंशुद्धिज्र्ञानयोगव्यवस्थितिः।
दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम्।। 1।।
श्री भगवान् बोले-भय का सर्वथा अभाव, अन्तःकरण की अत्यन्त शुद्धि, ज्ञान के लिये योग में दृढ़ स्थिति और सात्त्विक दान, इन्द्रियों का दमन, यज्ञ, स्वाध्याय, कर्तव्य-पालन के लिये कष्ट सहना और शरीर-मन-वाणी की सरलता।
अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम्।
दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं हृीरचापलम्।। 2।।
अहिंसा, सत्य भाषण, क्रोध न करना, संसार की कामना का त्याग, अन्तःकरण में राग-द्वेषजनित हलचल का न होना, चुगली न करना, प्राणियों पर दया करना, सांसारिक विषयों में न ललचाना, अन्तःकरण की कोमलता, अकर्तव्य करने में लज्जा, चपलता का अभाव।
तेजः क्षमा धृतिः शौचमद्रोहो नातिमानिता।
भवन्ति सम्पदं दैवीमभिजातस्य भारत।। 3।।
तेज (प्रभाव), क्षमा, धैर्य, शरीर की शुद्धि, वैर-भाव का न होना और मान को न चाहना, हे भरतवंशी अर्जुन! ये सभी दैवी सम्पदा को प्राप्त हुए मनुष्य के लक्षण हैं।
दम्भो दर्पोऽभिमानश्च क्रोधः पारुष्यमेव च।
अज्ञानं चाभिजातस्य पार्थ सम्पदमासुरीम्।। 4।।
हे पृथानन्दन! दम्भ करना घमण्ड करना और अभिमान करना, क्रोध करना तथा कठोरता रखना और अविवेक का होना भी-ये सभी आसुरी सम्पदा को प्राप्तु हुए मनुष्य के लक्षण हैं।
दैवी सम्पद्विमोक्षाय निबन्धायासुरी मता।
मा शुचः सम्पदं दैवीमभिजातोऽसि पाण्डव।। 5।।
दैवी सम्पत्ति मुक्ति के लिये और आसुरी सम्पत्ति बन्धन के लिये मानी गयी है। हे पाण्डव! तुम दैवी-सम्पत्ति को प्राप्त हुए हो, इसलिए तुम शोक (चिन्ता) मत करो।
व्याख्या-जीव के एक ओर भगवान् हैं और एक ओर संसार है। जब वह भगवान् के सम्मुख होता है तब उसमें दैवी-सम्पत्ति आती है और जब वह संसार के सम्मुख होता है तब उसमें आसुरी-सम्पत्ति आती है।
दूसरों के सुख के लिये कर्म करना अथवा दूसरों का सुख चाहना ‘चेतनता’ है और अपने सुख के लिये कर्म करना अथवा अपना सुख चाहना ‘जड़ता’ है। भजन-ध्यान भी अपने सुख के लिये, अपने मान-आदर के लिये करना जड़ता है। चेतनता की मुख्यता से दैवी-सम्पत्ति आती है और जड़ता की मुख्यता से आसुरी-सम्पत्ति आती है।
मूल दोष एक ही है, जिससे सम्पूर्ण आसुरी-सम्पत्ति उत्पन्न होती है, और मूल गुण भी एक ही है, जिससे सम्पूर्ण दैवी-सम्पत्ति प्रकट होती है। मूल दोष है-शरीर-संसार की सत्ता और महत्ता स्वीकार करके उससे सम्बन्ध-जोड़ना है। यह मूल दोष और मूल गुण ही स्थान भेद से अनेक रूपों में दीखता है।
जब तक गुणों के साथ अवगुण रहते हैं, तभी तक गुणों की महत्ता दीखती है और उनका अभिमान होता है। कोई भी अवगुण न रहे तो अभिमान नहीं होता। अभिमान आसुरी-सम्पत्ति का मूल है। अभिमान के कारण मनुष्य को दूसरों की अपेक्षा अपने में विशेषता दीखने लगती है-यह आसुरी-सम्पत्ति है। अभिमान होने के कारण दैवी-सम्पत्ति भी आसुरी-सम्पत्ति की वृद्धि करने वाली बन जाती है। जब गुणों के साथ अवगुण नहीं रहते, तब गुणों की महत्ता नहीं दीखती और उनका अभिमान भी नहीं होता। अभिमान न होने के कारण अर्जुन को अपने में गुण (श्रेष्ठता) नहीं दीखते। इसलिये उनकी चिन्ता दूर करने के लिये भगवान उनसे कहते हैं कि तुम्हारे में दैवी-सम्पत्ति है, भले ही वह तुम्हें न दीखे।
गीता में ‘मा शुचः’ पद दो बार आये हैं-एक यहाँ और दूसरा अठारहवें अध्याय के छाछठवें श्लोक मंे। यहाँ ये पद ‘साधन’ के विषय में और अठारहवें अध्याय में ‘सिद्धि’ के विषय में चिन्ता न करने के लिये आये हैं। अतः भक्त को इन दोनों ही विषयों में चिन्ता नहीं करनी चाहिये।
द्वौ भूतसर्गौ लोकेऽस्मिन्दैव आसुर एव च।
दैवो विस्तरशः प्रोक्त आसुरं पार्थ मे शृणु।। 6।।
इस लोक में दो तरह के प्राणियों की सृष्टि है-दैवी और आसुरी। दैवी को तो मैंने विस्तार से कह दिया, अब हे पार्थ! तुम मुझसे आसुरी को (विस्तार से) सुनो।
प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च जना न विदुरासुराः।
न शौचं नापि चाचारो न सत्यं तेषु विद्यते।। 7।।
आसुरी प्रकृति वाले मनुष्य किसमें प्रवृत्त होना चाहिये और किससे निवृत्त होना चाहिये-इसको नहीं जानते और उनमें न तो बाह्य शुद्धि, न श्रेष्ठ आचरण तथा न सत्य-पालन ही होता है।
व्याख्या-आसुर मनुष्य केवल अपना सुख-आराम, अपना स्वार्थ देखते हैं। जिससे अपने को सुख मिलता दीखे, उसी में उनकी प्रवृत्ति होती है और जिससे दुःख मिलता दीखे, स्वार्थ सिद्ध होता न दीखे, उसी से उनकी निवृत्ति में शास्त्र ही प्रमाण है (गीता 16/24), परन्तु अपने शरीर और प्राणों में मोह रहने के कारण आसुर मनुष्यों की प्रवृत्ति और निवृत्ति शास्त्र को लेकर नहीं होती। आसुर स्वभाव के कारण वे शास्त्र की बात सुनते ही नहीं और अगर सुन भी लें तो उसे समझ सकते ही नहीं। कभी सन्त-महात्माओं से शास्त्र की बात सुनने पर भी वे उन्हें स्वीकार नहीं करते।
असत्यम प्रतिष्ठं ते जगदाहुरनीश्वरम्।
अपरस्परसम्भूतं किमन्यत्कामहैतुकम्।। 8।।
वे कहा करते हैं कि संसार असत्य, बिना मर्यादा के और बिना ईश्वर के अपने-आप केवल स्त्री-पुरुष के संयोग से पैदा हुआ है। इसलिये काम ही
इसका कारण है, इसके सिवाय और क्या कारण है? और कारण हो ही नहीं सकता।-क्रमशः (हिफी)