धर्म-अध्यात्म

ऊँ तत्, सत् से परमात्मा को अर्पण

श्रीमद् भगवत गीता का प्रबोध-85

 

श्रीमद् भगवत गीता का प्रबोध-85
जिस तरह मर्यादा पुुरुषोत्तम श्रीराम के चरित्र को लेकर कहा गया है कि ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता…’ उसी प्रकार भगवान कृष्ण के मुखार बिन्दु से प्रस्फुटित हुई श्रीमद् भगवत गीता का सार भी अतल गहराइयों वाला है। विद्वानों ने अपने-अपने तरह से गीता के रहस्य को समझने और समझाने का प्रयास किया है। गीता का प्रारंभ ही जिस श्लोक से होता है उसकी गहराई को समझना आसान नहीं है। कौरवों और पांडवों के मध्य जो युद्ध लड़ा गया वह भी धर्म क्षेत्रे अर्थात धर्म भूमि और कुरु क्षेत्रे अर्थात तीर्थ भूमि पर लड़ा गया जिससे युद्ध में वीर गति प्राप्त होने वालों का कल्याण हो गया। इसी तरह की व्याख्या स्वामी रामसुख दास ने गीता प्रबोधनी में की है जिसे हम हिफी के पाठकों के लिए क्रमशः प्रकाशित करने का प्रयास करेंगे। हम स्वामी जी के आभारी हैं जिन्होंने गीता के श्लोकों की सरल शब्दों में व्याख्या की है। -प्रधान सम्पादक 

ऊँ तत्, सत् से परमात्मा को अर्पण

यत्तु प्रत्युपकारार्थं फलमुद्दिश्य वा पुनः।
दीयते च परिक्लिष्टं तद्दानं राजसं स्मृतम्।। 21।।
किन्तु जो दान क्लेश पूर्वक और प्रत्युपकार के लिये अथवा फल प्राप्ति का उद्देश्य बनाकर फिर दिया जाता है, वह दान राजस कहा जाता है।
अदेशकाले यद्दानमपात्रेभश्च दीयते।
असत्कृतमवज्ञातं तत्तामसमुदाहृतम्।। 22।।
जो दान बिना सत्कार के तथा अवज्ञा पूर्वक अयोग्य देश और काल में कुपात्र को दिया जाता है, वह दान तामस कहा गया है।
व्याख्या-शास्त्र में आया है कि कलियुग में दान ही एकमात्र धर्म है-‘दानमेकं कलौ युगे’ (मनु स्मृति 1/86, महा0शान्ति0 231/28, स्कन्द0 नागर0 51/67, पù0 सृष्टि0 18/441 आदि)। अतः जिस किसी प्रकार से भी दान दिया जाय, वह कल्याण ही करता है-प्रगट चारि पद धर्म के कलि महुँ एक प्रधान। जेन केन विधि दीन्हें दान करइ कल्यान।। (मानस 7/103 ख)। इसका तात्पर्य है कि कलियुग में यज्ञ, तप, दान, व्रत आदि शुभ कर्मों को विधि पूर्वक करना कठिन है, अतः किसी तरह देने की, त्याग करने की आदत पड़ जाय।
गीता में जहाँ-कहीं सात्त्विक, राजस और तामस भेद किया गया है, वहाँ जो सात्त्विक विभाग है, वह ग्राह्य है, क्योंकि वह मुक्ति देने वाला है-‘दैवी सम्पद्विमोक्षाय’ और जो राजस-तामस विभाग है, वह त्याज्य, क्योंकि वह बाँधने वाला है-‘निबन्ध्यासुरी मता’ (गीता 16/5)।
ऊँ, तत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविधः स्मृतः।
ब्राह्मणास्तेन वेदाश्च यज्ञाश्च विहिताः पुरा।। 23।।
ऊँ, तत्, सत्-इन तीन प्रकार के नामों से जिस परमात्मा का निर्देश (संकेत) किया गया है, उसी परमात्मा से सृष्टि के आदि में वेदों तथा ब्राह्मणों और यज्ञों की रचना हुई है।
तस्मादोमित्युदाहृत्य यज्ञदानतपः क्रियाः।
प्रवर्तन्ते विधानोक्ताः सततं ब्रह्मवादिनाम्।। 24।।
इसलिये वैदिक सिद्धान्तों को मानने वाले पुरुषों की शाó विधि से नियत यज्ञ, दान और तप रूप क्रियाएँ सदा ‘ऊँ’ इस परमात्मा के नाम का उच्चारण करके ही आरम्भ होती हैं।
तदित्यनभिसन्धाय फलं यज्ञतपः क्रियाः।
दान क्रियाश्च विविधाः क्रियन्ते मोक्षकांक्षिभिः।। 25।।
‘तत’ नाम से कहे जाने वाले परमात्मा के लिये ही सब कुछ है-ऐसा मानकर मुक्ति चाहने वाले मनुष्यों द्वारा फल की इच्छा से रहित होकर अनेक प्रकार की यज्ञ और तप रूप क्रियाएँ तथा दान रूप क्रियाएँ की जाती हैं।
स˜ावे साधुभावे च सदित्येतत्प्रयुज्यते।
प्रशस्ते कर्माणि तथा सच्छब्दः पार्थ युज्यते।। 26।।
हे पार्थ! ‘सत्’-ऐसा यह परमात्मा का नाम सत्ता-मात्र से और श्रेष्ठ भाव में प्रयोग किया जाता है तथा प्रशंसनीय कर्म के साथ ‘सत्’ शब्द जोड़ा जाता है।
व्याख्या-परमात्मा के अस्तित्व या होने पन को ‘स˜ा’ कहते हैं, जिसका कभी अभाव नहीं होता-‘नाभावो विद्यते सतः‘ (गीता 2/16)। सभी आस्तिक जन यह तो मानते ही हैं कि सर्वोपरि सर्वनियन्ता कोई विलक्षण शक्ति है, जो अपरिवर्तनशील है। संसार प्रतिक्षण बदलने वाला है। संसार पहले भी नहीं था, आगे भी नहीं रहेगा और वर्तमान में प्रतिक्षण नाश की ओर जा रहा है। समस्त प्राणी-पदार्थ मिले हैं और बिछुड़ जायँगे-यह सभी का अनुभव है। फिर भी संसार में जो होना पन दीख रहा है, वह वास्तव में परमात्मा का है, संसार का नहीं। परमात्मा की सत्ता से ही प्रतिक्षण बदलने वाला संसार सत्तावान् की तरह दीख रहा है।
अन्तःकरण के श्रेष्ठ भावों को ‘साधु भाव’ कहते हैं। परमात्मा की प्राप्ति कराने वाले होने से श्रेष्ठ भावों के लिये ‘सत्’ शब्द का प्रयोग किया जाता है। श्रेष्ठ भाव अर्थात् सद्गुण-सदाचार दैवी-सम्पत्ति है। दैवी-सम्पत्ति ‘सत’ है। मुक्ति देने वाले, परमात्म प्राप्ति कराने वाले सब साधन ‘सत्’ हैं।
यज्ञ, तप, दान, तीर्थ, व्रत, पूजा-पाठ, विवाह आदि जितने भी शाó विहित शुभ-कर्म हैं, वे स्वयं ही प्रशंसनीय होने से सत्कर्म हैं। यदि इन प्रशंसनीय कर्मों का सम्बन्ध भगवान् के साथ न हो तो ये ‘सत्’ न कहलाकर केवल शाó विहित कर्म मात्र रह जाते हैं। यद्यपि दैत्य-दानव भी यज्ञ, तप आदि प्रशंसनीय कर्म करते हैं, तथापि असद्भाव अर्थात् अपने स्वार्थ और दूसरे के अहित का भाव होने से बाँधने वाले असत्कर्म हो जाते हैं (गीता 17/19)। उनसे यदि ब्रह्म लोक की प्राप्ति भी हो जाय तो वहाँ से लौटकर आना पड़ता है (गीता 8/16)। परन्तु भगवत्प्राप्ति के लिये कर्म करने वाले मनुष्य दुर्गति को प्राप्त नहीं होते (गीता 6/40), क्योंकि उसका फल ‘सत्’ होता है। जो कर्म स्वार्थ और अभिमान का त्याग करके प्राणि मात्र के हित के भाव से किये जाते हैं, वही वास्तव में प्रशंसनीय कर्म होते हैं।
यज्ञे तपसि दाने च स्थितिः सदिति चोच्यते।
कर्म चैव तदर्थीयं सदित्येवाभिधीयते।। 27।।
यज्ञ तथा तप और दान रूप क्रिया में जो स्थिति (निष्ठा) है, वह भी ‘सत्’-ऐसे कही जाती है और उस परमात्मा के निमित्त किया जाने वाला कर्म भी ‘सत्’-ऐसा कहा जाता है।
व्याख्या-मुक्ति चाहने वाले निष्काम भाव से कर्म करते हैं-‘मोक्षकाडंक्षिभिः (गीता 17/25), और भक्ति चाहने वाले भगवान् के लिये कर्म करते हैं (गीता 9/26-28)।
अश्रद्वया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत्।
असदित्युच्यते पार्थ न च तत्प्रेत्य नो इह।। 28।।
हे पार्थ! अश्रद्धा से किया हुआ हवन, दिया हुआ दान और तपा हुआ तप तथा और भी जो कुछ किया जाय, वह सब ‘असत’-ऐसा कहा जाता है। उसका फल न तो यहाँ होता है और न मरने के बाद ही होता है अर्थात् उसका कहीं भी सत् फल नहीं होता।
व्याख्या-छोटे-से-छोटा और साधारण-से-साधारण कर्म भी यदि परमात्मा के उद्देश्य से निष्काम भाव पूर्वक किया जाय तो वह कर्म ‘सत्’ हो जाता है अर्थात् परमात्मप्राप्ति कराने वाला हो जाता है। परन्तु बड़े-से-बड़ा यज्ञादि कर्म भी यदि श्रद्धापूर्वक और शास्त्रीय विधि-विधान से सकाम भाव पूर्वक किया जाय तो वह कर्म नाशवान् फल देकर नष्ट हो जाता है। यदि वे यज्ञादि कर्म वेदों पर, शास्त्रों पर तथा भगवान् पर अश्रद्धा करके, केवल अपनी मान-बड़ाई, आदर-सत्कार पाने के उद्देश्य से किये जायँ तो वे सब असत् हो जाते हैं। उनका न इस लोक में फल मिलता है, न परलोक में अर्थात् उसका कहीं भी सत् (श्रेष्ठ, कल्याण कारक) फल नहीं होता।
पूर्व पक्ष-यदि भगवन्नाम-तप, कीर्तन आदि अश्रद्धापूर्वक किये जायँ तो वे भी असत् हो जायँगे! फिर शास्त्रों में आयी नाम-जप, कीर्तन आदि की अतुलनीय महिमा की सार्थकता क्या हुई?
उत्तर पक्ष-नाम-जप, कीर्तन आदि यदि अश्रद्धापूर्वक भी किये जाते हैं तो वे असत् नहीं होते, क्योंकि उनमें भगवान् का सम्बन्ध होने से वे ‘कर्म’ नहीं हैं, प्रत्युत ‘उपासना’ हैं। ऊँ तत्सदिति श्रीम˜गवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां
योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुन संवादे श्रद्धात्रयविभागयोगो नाम सप्तदशोऽध्यायः।। 17।।-क्रमशः (हिफी)

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