
श्रीमद् भगवत गीता का प्रबोध-86
जिस तरह मर्यादा पुुरुषोत्तम श्रीराम के चरित्र को लेकर कहा गया है कि ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता…’ उसी प्रकार भगवान कृष्ण के मुखार बिन्दु से प्रस्फुटित हुई श्रीमद् भगवत गीता का सार भी अतल गहराइयों वाला है। विद्वानों ने अपने-अपने तरह से गीता के रहस्य को समझने और समझाने का प्रयास किया है। गीता का प्रारंभ ही जिस श्लोक से होता है उसकी गहराई को समझना आसान नहीं है। कौरवों और पांडवों के मध्य जो युद्ध लड़ा गया वह भी धर्म क्षेत्रे अर्थात धर्म भूमि और कुरु क्षेत्रे अर्थात तीर्थ भूमि पर लड़ा गया जिससे युद्ध में वीर गति प्राप्त होने वालों का कल्याण हो गया। इसी तरह की व्याख्या स्वामी रामसुख दास ने गीता प्रबोधनी में की है जिसे हम हिफी के पाठकों के लिए क्रमशः प्रकाशित करने का प्रयास करेंगे। हम स्वामी जी के आभारी हैं जिन्होंने गीता के श्लोकों की सरल शब्दों में व्याख्या की है। -प्रधान सम्पादक
संन्यास और त्याग का तत्व
(अठारहवाँ अध्याय)
सन्न्यासस्य महाबाहो तत्त्वमिच्छामि वेदितुम्।
त्यागस्य च हृषीकेश पृथक्केशिनिषूदन।। 1।।
अर्जुन बोले-हे महाबाहो! हे हृषीकेश! हे केशिनिषूदन! मैं संन्यास और त्याग का तत्त्व अलग-अलग जानना चाहता हूँ।
व्याख्या-विवेक द्वारा प्रकृति से अपना सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद कर लेने का नाम ‘संन्यास’ (सांख्य योग) है, और कर्म तथा फल की आसक्ति छोड़ने का नाम ‘त्याग’ (कर्म योग) है।
काम्यानां कर्मणां न्यासं सन्नयासं कवयो विदुः।
सर्वकर्मफलत्यागं प्राहुस्त्यागं विचक्षणाः।। 2।।
त्याज्यं दोषवदित्येके कर्म प्राहुर्मनीषिणः।
यज्ञदानतपः कर्म न त्याज्यमिति चापरे।। 3।।
श्री भगवान् बोले-कई विद्वान काम्य कर्मों के त्याग को संन्यास समझते हैं और कई विद्वान सम्पूर्ण कर्मों के फल के त्याग को त्याग कहते हैं। कई विद्वान् ऐसा कहते हैं कि कर्मों को दोष की तरह छोड़ देना चाहिये और कई विद्वान् ऐसा कहते हैं कि यज्ञ, दान और तपरूप कर्मों का त्याग नहीं करना चाहिये।
निश्चयं शृण मे तत्र त्यागे भरतसत्तम।
त्यागो हि पुरुषव्याघ्र त्रिविधः सम्प्रकीर्तितः।। 4।।
हे भरत वंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन! तू संन्यास और त्याग-इन दोनों में से पहले त्याग के विषय में मेरा निश्चय सुन, क्योंकि हे पुरुष श्रेष्ठ! त्याग तीन प्रकार का कहा गया है।
यज्ञदानतपः कर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत्।
यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम्।। 5।।
यज्ञ, दान और तप रूप कर्मों का त्याग नहीं करना चाहिये, प्रत्युत उनको तो करना ही चाहिये, क्योंकि यज्ञ, दान और तप-ये तीनों ही कर्म मनीषियों को पवित्र करने वाले हैं।
व्याख्या-मनीषी का अर्थ है-विचारशील। जो कर्म अपनी कोई कामना न रखकर दूसरों के हित के लिये किये जाते हैं, वे कर्म पवित्र करने वाले हो जाते हैं अर्थात् दुर्गुण-दुराचार, पाप आदि मल को दूर करके महान् आनन्द देने वाले हो जाते हैं। परन्तु वे ही कर्म यदि अपनी कामना रखकर और दूसरों का अहित करने के लिये किये जायँ तो वे अपवित्र करने वाले अर्थात् लोक-परलोक में महान् दुःख देने वाले हो जाते हैं।
एतान्यपि तु कर्माणि संग त्यक्त्वा फलानि च।
कर्तव्यानीति मे पार्थ निश्चितं मतमुत्तमम्।। 6।।
हे पार्थ! इन (यज्ञ, दान और तप रूप) कर्मों को तथा दूसरे भी कर्मों को आसक्ति और फलों की इच्छा का त्याग करके करना चाहिये-यह मेरा निश्चित किया हुआ उत्तम मत है।
व्याख्या-कर्मा सक्ति और फलासक्ति ही खास बन्धन है, जिससे छूटने पर ही मनुष्य योगारूढ़ होता है (गीता 6/4)। इसलिये इस श्लोक में कर्मा सक्ति और फला सक्ति-दोनों के त्याग की बात आयी है।
शुभ-कर्म भी निष्काम भाव होने से ही कल्याण करने वाले होेते हैं। यदि निष्काम भाव न हो तो शुभ-कर्म भी बन्धन कारक हो जाते हैं-‘आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन’ (गीता 8/16)
नियतस्य तु सन्न्यासः कर्मणो नोपपद्यते।
मोहात्तस्य परित्यागस्तामसः परिकीर्तितः।। 7।।
नियत कर्म का तो त्याग करना उचित नहीं है। उसका मोहपूर्वक त्याग करना तामस कहा गया है।
व्याख्या-शास्त्रों ने जिन कर्मों को करने की आज्ञा दी है, वे सभी ‘विहित’ कर्म कहलाते हैं। उन विहित कर्मों में भी वर्ण, आश्रम और परिस्थिति के अनुसार जिसके लिये जो कर्तव्य आवश्यक है, उसके लिये वह ‘नियत’ कर्म कहलाता है। विहित की अपेक्षा भी नियत कर्म में मनुष्य की विशेष जिम्मेवारी होती है। जैसे, किसी को पहरे पर खड़ा कर दिया अथवा जल पिलाने के लिये प्याऊ पर बैठा दिया तो यह उसके लिये नियत कर्म हो गया। नियत कर्म के त्याग का अधिक दोष लगता है। नियत का त्याग करने से ही विप्लव होता है। नियत कर्म का त्याग करने के कारण ही आजकल सामज में अव्यवस्था हो रही है। अतः रूपये कम मिलें या अधिक, सुख-आराम कम मिले या अधिक, अपने नियत कर्म का कभी त्याग नहीं करना चाहिये। नियत का मोह पूर्वक त्याग करना तामस है, जिसका फल अधोगति की प्राप्ति है-‘अधोगच्छन्ति तामसाः’ (गीता 14/18)।
दुःखमित्येव यत्कर्म कायक्लेशभ्यात्तयजेत्।
स कृत्वा राजसं त्यागं नैव त्याग फलं लभेत्।। 8।।
जो कुछ कर्म है, वह दुःख रूप ही है-ऐसा समझकर कोई शारीरिक परिश्रम के भय से उसका त्याग कर दे तो वह राजस त्याग करके भी त्याग के फल को नहीं पाता।
व्याख्या-त्याग का फल शान्ति है-‘त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्’ (गीता 12/12) और राग का फल दुःख है-‘रजसस्तु फलं दुःखम्’ (गीता 14/16)। राजस मनुष्य को त्याग का फल ‘शान्ति’ तो नहीं मिलती, पर राग का फल ‘दुःख’ तो मिलता ही है!
राजस मनुष्य त्याग करके भी उसके फल (शान्ति) को नहीं पाता, क्योंकि उसने जो त्याग किया है, वह अपने सुख-आराम के लिये ही किया है। ऐसा त्याग तो पशु-पक्षी आदि भी करते हैं। अपने सुख-आराम के लिये शुभ-कर्मों का त्याग करने से राजस मनुष्य को उसका फल दण्ड रूप से अवश्य भोगना पड़ता है।-क्रमशः (हिफी)