
श्रीमद् भगवत गीता का प्रबोध-87
जिस तरह मर्यादा पुुरुषोत्तम श्रीराम के चरित्र को लेकर कहा गया है कि ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता…’ उसी प्रकार भगवान कृष्ण के मुखार बिन्दु से प्रस्फुटित हुई श्रीमद् भगवत गीता का सार भी अतल गहराइयों वाला है। विद्वानों ने अपने-अपने तरह से गीता के रहस्य को समझने और समझाने का प्रयास किया है। गीता का प्रारंभ ही जिस श्लोक से होता है उसकी गहराई को समझना आसान नहीं है। कौरवों और पांडवों के मध्य जो युद्ध लड़ा गया वह भी धर्म क्षेत्रे अर्थात धर्म भूमि और कुरु क्षेत्रे अर्थात तीर्थ भूमि पर लड़ा गया जिससे युद्ध में वीर गति प्राप्त होने वालों का कल्याण हो गया। इसी तरह की व्याख्या स्वामी रामसुख दास ने गीता प्रबोधनी में की है जिसे हम हिफी के पाठकों के लिए क्रमशः प्रकाशित करने का प्रयास करेंगे। हम स्वामी जी के आभारी हैं जिन्होंने गीता के श्लोकों की सरल शब्दों में व्याख्या की है। -प्रधान सम्पादक
फलेच्छा का त्यागी कभी दुखी नहीं होगा
कार्यमित्येव यत्कर्म नियतं क्रियतेऽर्जुन।
संगत्यक्त्वा फलं चैव स त्यागः सात्त्विको मतः।। 9।।
हे अर्जुन! ‘केवल कर्तव्य मात्र करना है’-ऐसा समझकर जो नियत कर्म आसक्ति और फलेच्छा का त्याग करके किया जाता है, वही सात्त्विक त्याग माना गया है।
व्याख्या-राजस त्याग में शारीरिक परिश्रम के भय से और तामस त्याग में मोहपूर्वक कर्मों का स्वरूप से त्याग किया जाता है। परन्तु सात्त्विक त्याग में कर्मों का स्वरूप से त्याग नहीं किया जाता, प्रत्युत कर्मों को कर्तव्य मात्र समझकर निष्काम भाव से तत्परता पूर्वक किया जाता है। राजस तथा तामस त्याग में बाहर से तो कर्मों से सम्बन्ध-विच्छेद दीखता है, पर भीतर से सम्बन्ध जुड़ा रहता है। परन्तु सात्त्विक त्याग में हर से कर्म करने पर भी भीतर से सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है।
एक मार्मिक बात है कि कर्तव्य मात्र से समझकर जो भी कर्म किया जाता है, उससे सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है। लौकिक साधन (कर्म योग तथा ज्ञान योग) में शरीर-संसार से सम्बन्ध-विच्छेद मुख्य है, इसलिये साधक को प्रत्येक कर्म कर्तव्य मात्र समझकर करना चाहिये। स्वरूप से कर्मों का त्याग करने से तो बन्धन होता है, पर सम्बन्ध न जोड़कर कर्तव्य मात्र समझकर कर्म करने से मुक्ति होती है।
अलौकिक साधन (भक्ति योग) में भगवान् से सम्बन्ध जोड़ना मुख्य है। इसलिये भक्त को जप, ध्यान, कथा, कीर्तन आदि कर्तव्य समझकर नहीं करने चाहिये, प्रत्युत अपने प्रेमास्प का कार्य (सेवा-पूजन) समझकर उनकी प्रसन्नता के लिये प्रेम पूर्वक करने चाहिये। जैसे, दवा कर्तव्य समझकर ली जाती है, पर भोजन कर्तव्य समझकर नहीं किया जाता है, प्रत्युत अपनी भूख मिटाने के लिये किया जाता है। ऐसे ही भक्त को भी जप, ध्यान आदि कर्तव्य समझकर नहीं करने चाहिये, प्रत्युत अपनी स्वयं की भूख (आवश्यकता) मिटाकर भगवान के साथ नित्य-सम्बन्ध जाग्रत् करने के लिये करने चाहिये। यदि वह जप, ध्यान आदि कर्तव्य समझकर करेगा तो भगवत्सम्बन्ध (प्रेम) जाग्रत नहीं होगा।
न द्वेष्ट्यकुशलं कर्म कुशले नानुषज्जयते।
त्यागी सत्त्वसमाविष्टो मेधावी छिन्नसंशयः।। 10।।
जो अकुशल कर्म से द्वेष नहीं करता और कुशल कर्म में आसक्त नहीं होता, वह त्यागी, बुद्धिमान, सन्देह रहित और अपने स्वरूप में स्थित है।
व्याख्या-मनुष्य का स्वभाव है कि वह राग पूर्वक ग्रहण और द्वेष पूर्वक त्याग करता है। राग और द्वेष-दोनों से ही संसार से सम्बन्ध जुड़ता है। भगवान कहते हैं कि वास्तव में वही मनुष्य श्रेष्ठ है जो शुभ कर्म का ग्रहण तो करता है, पर राग पूर्वक नहीं और अशुभ कर्म का त्याग तो करता है, पर राग पूर्वक नहीं और अशुभ कर्म का त्याग तो करता है, पर द्वेष पूर्वक नहीं।
न हि देहभृता शक्यं त्युक्तं कर्माण्यशेषतः।
यस्तु कर्म फलत्यागी स त्यागीत्यभिधीयते।। 11।।
कारण कि देहधारी मनुष्य के द्वारा सम्पूर्ण कर्मों का त्याग करना सम्भव नहीं है। इसलिये जो कर्मफल का त्यागी है, वही त्यागी है-ऐसा कहा जाता है।
व्याख्या-‘कर्मफल त्याग’ का तात्पर्य है-कर्मफल की इच्छा का त्याग। कारण कि कर्मफल का त्याग हो ही नहीं सकता, जैसे-शरीर भी कर्मफल
है, फिर उसका त्याग कैसे होगा? भोजन करने पर तृप्ति का त्याग कैसे
होगा? खेती करने पर अन्न का त्याग कैसे होगा? अतः साधक को कर्मफल की इच्छा का त्याग करना है। फलेच्छा का त्याग करने से साधक सुखी-दुःखी नहीं होगा। इसलिये गीता में फलेच्छा के त्याग को ही फल का त्याग कहा गया है। कर्म योग में कर्म फल की इच्छा का त्याग होता है और ज्ञान योग में कर्तृत्वाभिमान का।
बाहर का त्याग वास्तव में त्याग नहीं है, प्रत्युत भीतर का त्याग ही त्याग है। यदि कोई बाहर से त्याग करके एकान्त में, वन में या हिमालय में चला जाय तो भी संसार का बीज शरीर तो उसके साथ ही है। मरने वाले का अपने शरीर सहित सब व्यक्तियों और पदार्थों का त्याग हो जाता है, पर इससे उसका मोक्ष नहीं हो जाता। अतः हमारे भीतर की कामना-ममता-आसक्ति ही बाँधने वाली हैं, संसार बाँधने वाला नहीं है। इसलिये अपने लिये कुछ न करने से कर्मों से सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है-‘यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते’ (गीता 4/23)। यदि कोई समाधि लगा ले तो उस समय बाहर की क्रियाओं का सम्बन्ध छूट जाता है। परन्तु समाधि भी एक क्रिया है, इसलिये समाधि से भी व्युत्थान हो जाता है, क्योंकि समाधि में प्रकृति जन्य कारण-शरीर का सम्बन्ध बना रहता है।
अनिष्टमिष्टं मिश्रं च त्रिविधं कर्मणः फलम्।
भवत्यत्यागिनां प्रेत्य न तु सन्नयासिनां क्वचित्।। 12।।
कर्म फल का त्याग न करने वाले मनुष्यों को कर्मों का इष्ट, अनिष्ट और मिश्रित-ऐसे तीन प्रकार का फल करने के बाद भी होता है, परन्तु कर्मफल का त्याग करने वालों को कहीं भी नहीं होता।
व्याख्या-जिस परिस्थिति को मनुष्य चाहता है, वह ‘इष्ट’ (अनुकूल) कर्मफल है, जिस परिस्थिति को मनुष्य नहीं चाहता, वह ‘अनिष्ट’ (प्रतिकूल) कर्मफल है, और जिसमें कुछ भाग इष्ट का तथा कुछ भाग अनिष्ट का होता है, वह मिश्रित कर्मफल है। वास्तव में देखा जाय तो संसार में प्रायः मिश्रित ही फल होता है अर्थात् इष्ट में भी आंशिक अनिष्ट और अनिष्ट में भी आंशिक इष्ट रहता ही है। जो मनुष्य फल की इच्छा रखकर कर्म करते हैं, उन्हें उपर्युक्त तीनों कर्मफल अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थिति के रूप में प्राप्त होते हैं, जिनसे वे सुखी-दुःखी होते रहते हैं। अनुकूल परिस्थिति से सुखी होना और प्रतिकूल परिस्थिति से दुःखी होना ही बन्धन है। परन्तु फलेच्छा का त्याग करके कार्य करने वाले मनुष्यों को इस जन्म में या मरने के बाद भी कर्म फल भोगना नहीं पड़ता। पूर्व जन्म में किये हुए कर्मों के अनुसार इस जन्म में सके सामने अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थिति तो आती है, वर वे उनसे सुखी-दुःखी नहीं होते।-क्रमशः (हिफी)