
श्रीमद् भगवत गीता का प्रबोध-89
जिस तरह मर्यादा पुुरुषोत्तम श्रीराम के चरित्र को लेकर कहा गया है कि ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता…’ उसी प्रकार भगवान कृष्ण के मुखार बिन्दु से प्रस्फुटित हुई श्रीमद् भगवत गीता का सार भी अतल गहराइयों वाला है। विद्वानों ने अपने-अपने तरह से गीता के रहस्य को समझने और समझाने का प्रयास किया है। गीता का प्रारंभ ही जिस श्लोक से होता है उसकी गहराई को समझना आसान नहीं है। कौरवों और पांडवों के मध्य जो युद्ध लड़ा गया वह भी धर्म क्षेत्रे अर्थात धर्म भूमि और कुरु क्षेत्रे अर्थात तीर्थ भूमि पर लड़ा गया जिससे युद्ध में वीर गति प्राप्त होने वालों का कल्याण हो गया। इसी तरह की व्याख्या स्वामी रामसुख दास ने गीता प्रबोधनी में की है जिसे हम हिफी के पाठकों के लिए क्रमशः प्रकाशित करने का प्रयास करेंगे। हम स्वामी जी के आभारी हैं जिन्होंने गीता के श्लोकों की सरल शब्दों में व्याख्या की है। -प्रधान सम्पादक
कर्म प्रेरणा व कर्म संग्रह
ज्ञानं ज्ञेयं परिज्ञाता त्रिविधा कर्मचोदना।
करणं कर्म कर्तेति त्रिविधः कर्मसंग्रहः।। 18।।
ज्ञान, ज्ञेय और परिज्ञाता-इन तीनों से कर्म प्रेरणा होती है तथा करण, कर्म और कर्ता-इन तीनों से कर्म संग्रह होता है।
व्याख्या-जब मनुष्य के भीतर अहंकार और लिप्तता रहती है, तब ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय-इस त्रिपुटी से ‘कर्म प्रेरणा’ अर्थात् कर्म करने में प्रवृत्ति होती है कि मैं अमुक कार्य करूँगा तो मुझे अमुक फल मिलेगा। कर्म प्रेरणा होने से कर्ता, करण और कर्म-नसे ‘कर्म संग्रह’ अर्थात् पाप-कर्म अथवा पुण्य-कर्म का संग्रह होता है। यदि कर्म संग्रह न हो तो कर्म बाँधने वाला नहीं होता, केवल क्रिया मात्र होती है।
ज्ञानं कर्म च कर्ता च त्रिवैध गुणभेदतः।
प्रोच्यते गुणसंगख्याने यथावच्छृणु तान्यपि।। 19।।
गुणों का विवेचन करने वाले शास्त्र में गुणों के भेद से ज्ञान और कर्म तथा कर्ता तीन-तीन प्रकार से ही कहे जाते हैं, उनको भी तुम यथार्थ रूप से सुनो।
सर्वभूतेषु येनैकं भावमव्ययमीक्षते।
अविभक्तं विभक्तेशु तज्ज्ञानं विद्धि सात्त्विकम्।। 20।।
जिस ज्ञान के द्वारा साधक सम्पूर्ण विभक्त प्राणियों में विभाग रहित एक अविनाशी भाव (सत्ता) को देखता है, उस ज्ञान को तुम सात्त्विक समझो।
व्याख्या-अलग-अलग वस्तु, व्यक्ति आदि का नहीं है, प्रत्युत उन सबमें परिपूर्ण एक परमात्मा का है। उन वस्तु, व्यक्ति आदि की स्वतन्त्र सत्ता नहीं है, क्योंकि उनमें प्रतिक्षण परिवर्तन हो रहा है। परन्तु अपनी अज्ञता से उनकी सत्ता दीखती है। जब अज्ञता मिट जाती है, तब अलग-अलग वस्तु, व्यक्ति आदि का अलग-अलग ज्ञान और यथा योग्य अलग-अलग व्यवहार होेते हुए भी वह उमें परिपूर्ण एक निर्विकार तत्त्व को देखता है।
साधक की दृष्टि में प्राणियों की भी सत्ता रहने के कारण यह ‘सात्त्विक ज्ञान’ (विवेक) कहा गया है। यदि उसकी दृष्टि में प्राणियों की सत्ता न रहे, केवल एक अविनाशी सत्ता ही रहे तो यह गुणतीन ‘तत्त्व ज्ञान’ (ब्रह्म की प्राप्ति) ही है। वह अविनाशी सत्ता सब जगह समान रूप से विद्यमान है। उस सत्ता के साथ हमारी स्वाभाविक एकता है।
पृथक्त्वेन तु यज्ज्ञानं नानाभावान्पृथग्विधान्।
वेत्ति सर्वेषु भूतेषु तज्ज्ञानं विद्धि राजसम्।। 21।।
परन्तु जो ज्ञान अर्थात् जिस ज्ञान के द्वारा मनुष्य सम्पूर्ण प्राणियों में अलग-अलग रूप से अनेक भावों को अलग-अलग जानता है, उस ज्ञान को तुम राजस समझो।
व्याख्या-राजस ज्ञान में राग की मुख्यता होती है, क्रिया, पदार्थ और व्यक्ति को सत्ता देकर उनके साथ राग पूर्वक सम्बन्ध जोड़ने के कारण सब अलग-अलग दीखते हैं।
यत्तु कृत्स्नवदेकस्मिन्कार्ये सक्तमहैतुकम्।
अतत्त्वार्थवदल्पं च तत्तामसमुदाहृतम्।। 22।।
किन्तु जो ज्ञान अर्थात् जिस ज्ञान के द्वारा मनुष्य एक कार्य रूप शरीर में ही सम्पूर्ण की तरह आसक्त रहता है तथा जो युक्ति रहित, वास्तविक ज्ञान से रहित और तुच्छ है, वह तामस कहा गया है।
व्याख्या-तामस मनुष्य में मूढ़ता की प्रधानता होती है। वह उत्पन्न और नष्ट होने वाले पांच भौतिक शरीर को ही अपना स्वरूप मानता है।
इस श्लोक में ‘ज्ञान’ शब्द न देने का तात्पर्य है कि वास्तव में यह ज्ञान नहीं है, प्रत्युत अज्ञान ही है। भागवत् में इसे ‘पशु बुद्धि’ कहा गया है-‘पशुबुद्धिमिमां जहि’ (12/5/2)।
नियतं संगरहितमराद्वेषतः कृतम्।
अफलप्रेप्सुना कर्म यत्तत्सात्त्विकमुच्यते।। 23।।
जो कर्म शास्त्र विधि से नियत किया हुआ और कर्तृत्वाभिमान से रहित हो तथा फलेच्छा रहित मनुष्य के द्वारा बिना राग-द्वेष के किया हुआ हो, वह सात्त्विक कहा जाता है।
व्याख्या-जब तक अत्यन्त सूक्ष्म रूप से भी प्रकृति के साथ सम्बन्ध है, तब तक वह ‘सात्त्विक कर्म’ है। प्रकृति से सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद होने पर यह ‘अकर्म’ हो जाता है।
यत्तु कामेप्सुना कर्म साहंकारेण वा पुनः।
क्रियते बहुलायासं तद्राजसमुुदाहृतम्।। 24।।
परन्तु जो कर्म भोगों की इच्छा से अथवा अहंकार से और परिश्रम पूर्वक किया जाता है, वह राजस कहा गया है।
व्याख्या-कर्म करते समय प्रत्येक मनुष्य के शरीर में परिश्रम होता ही है, परन्तु शरीर में राग रहने के कारण राजस मनुष्य शरीर का आराम चाहता है, जिससे उसे थोड़े काम में भी अधि परिश्रम प्रतीत होता है।
अनुबन्धं क्षयं हिंसामनवेक्ष्य च पौरुषम्।
मोहादारभ्यते कर्म यत्तत्तामसमुच्यते।। 25।।
जो कर्म परिणाम, हानि, हिंसा और सामथ्र्य को न देखकर मोहपूर्वक आरम्भ किया जाता है, वह तामस कहा जाता है।
व्याख्या-तामस मनुष्य अपनी शक्ति, परिणाम आदि का विचार न करके मूढ़ता से काम करता है। वह स्वाभाविक ही ऐसे काम करता है, जिनसे दूसरों को बाधा पहुँचे, जैसे-रास्ते में खड़े होकर बात करने लग जाना, रास्ते में स्कूटर, साइकिल आदि खड़ी कर देना, दरवाजे के बीच में खड़े हो जाना, आदि-आदि। दूसरों को लगने वाली बाधा की तरफ उसका ध्यान जाता ही नहीं!।
सात्त्विक स्वभाव स्वतः उत्थान की ओर जाता है, राजस स्वभाव मंे उत्थान रुक जाता है और तामस स्वभाव स्वतः पतन की ओर जाता है।
मुक्तसंगोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वितः।
सिद्ध्यसिद्ध्योर्निर्विकारः कर्ता सात्त्विक उच्यते।। 26।।
जो कर्ता राग रहित, कर्तृत्वाभिमान से रहित, धैर्य और उत्साहयुक्त तथा सिद्धि और असिद्धि में निर्विकार है, वह सात्त्विक कहा जाता है।
व्याख्या-सात्विक मनुष्य संग और अहंवदनशीलता-इन दो बातों से रहित होता है, धृति और उत्साह-इन दो बातों से युक्त होता है, तथा सिद्धि और असिद्धि-इन दो बातों में निर्विकार (सम) रहता है। -क्रमशः (हिफी)