धर्म-अध्यात्म

भगवान स्वकर्म को ही ‘स्वधर्म’ मानते हैं

श्रीमद् भगवत गीता का प्रबोध-93

 

श्रीमद् भगवत गीता का प्रबोध-93
जिस तरह मर्यादा पुुरुषोत्तम श्रीराम के चरित्र को लेकर कहा गया है कि ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता…’ उसी प्रकार भगवान कृष्ण के मुखार बिन्दु से प्रस्फुटित हुई श्रीमद् भगवत गीता का सार भी अतल गहराइयों वाला है। विद्वानों ने अपने-अपने तरह से गीता के रहस्य को समझने और समझाने का प्रयास किया है। गीता का प्रारंभ ही जिस श्लोक से होता है उसकी गहराई को समझना आसान नहीं है। कौरवों और पांडवों के मध्य जो युद्ध लड़ा गया वह भी धर्म क्षेत्रे अर्थात धर्म भूमि और कुरु क्षेत्रे अर्थात तीर्थ भूमि पर लड़ा गया जिससे युद्ध में वीर गति प्राप्त होने वालों का कल्याण हो गया। इसी तरह की व्याख्या स्वामी रामसुख दास ने गीता प्रबोधनी में की है जिसे हम हिफी के पाठकों के लिए क्रमशः प्रकाशित करने का प्रयास करेंगे। हम स्वामी जी के आभारी हैं जिन्होंने गीता के श्लोकों की सरल शब्दों में व्याख्या की है। -प्रधान सम्पादक 

भगवान स्वकर्म को ही ‘स्वधर्म’ मानते हैं

स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः।
स्वकर्मनिरतः सिद्धिं यथा विन्दति तच्छृणु।। 45।।
अपने-अपने कर्म में प्रीति पूर्वक लगा हुआ मनुष्य सम्यक् सिद्धि (परमात्मा़) को प्राप्त कर लेता है। अपने कर्म में लगा हुआ मनुष्य जिस प्रकार सिद्धि को प्राप्त होता है, उस प्रकार तू मुझसे सुन।
व्याख्या-अपने वर्ण के सिवाय जिसने जो-जो कर्म स्वीकार किये हैं, वे सब भी ‘स्व स्वे कर्मण’ के अन्तर्गत लेने चाहिये। जैसे, मनुष्य अपने को वकील,
अध्यापक, चिकित्सक, नौकर आदि मानता है तो उसके कर्तव्य का प्रेमपूर्वक, आदर पूर्वक निःस्वार्थ भाव से भलीभाँति पालन करना भी उसके लिये ‘स्वकर्म’ है।
मनुष्य स्वार्थ बुद्धि, पक्षपात, कामना आदि को लेकर कर्म करता है तो वह ‘आसक्ति’ होती है। वह प्रेम पूर्वक, निष्काम भाव से और दूसरों के हित के लिये कर्म करता है तो वह ‘अभिरति’ होती है। भगवान् कर्मों में आसक्ति का निषेध किया है-‘न कर्मस्वनुषज्जते’ (गीता 6/4)। मनुष्य जाति आदि को लेकर न अपने को ऊँचा समझे, न नीचा समझे, प्रत्युत घड़ी के पुर्जे की तरह अपनी जगह ठीक कर्तव्य का पालन करें और दूसरे की निन्दा, तिरस्कार न करें तथा अपना अभिमान भी न करे, तब ‘अभिरति’ होगी।
वास्तव में ‘कर्म’ की प्रधानता नहीं है, प्रत्युत ‘भाव’ की प्रधानता है। कर्ता का भाव शुद्ध होगा तो वह कल्याण करने वाला हो जायगा, चाहे कर्ता किसी वर्ण का हो। ‘कर्म’ में वर्ण की मुख्यता है और भाव में दैवी अथवा आसुरी सम्पत्ति की मुख्यता है। अतः दैवी अथवा आसुरी सम्पत्ति किसी वर्ण को लेकर नहीं होती, प्रत्युत सबमें हो सकती है। इसलिये यदि ब्राह्मण में भी अपनी जाति आदि को लेकर अभिमान हो जाय तो वह आसुरी-सम्पत्ति वाला हो जायगा अर्थात् उसका पतन हो जायगा।
यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्।
स्वकर्मणा तमभ्यच्र्य सिद्धिं विन्दति मानवः।। 46।।
जिस परमात्मा से सम्पूर्ण प्राणियों की प्रवृत्ति (उत्पत्ति) होती है और जिससे यह सम्पूर्ण संसार व्याप्त है, उस परमात्मा का अपने कर्म के द्वारा पूजन करके मनुष्य मात्र सिद्धि को प्राप्त हो जाता है।
व्याख्या-यह संसार भगवान् का प्रथम अवतार है-‘आद्योऽवतारः पुरुषः परस्य’ (श्रीम˜ा0 2/6/41)। अतः यह संसार भगवान् की ही मूर्ति है। जैसे
मूर्ति में हम भगवान् का पूजन करते हैं, पुष्प चढ़ाते हैं, चन्दन लगाते हैं तो
हमारा भाव मूर्ति में न होकर भगवान् की पूजा करते हैं, ऐसे ही हमें अपनी
प्रत्येक क्रिया से संसार रूप में भगवान् का पूजन करना है। श्रोता सुनकर
वक्ता का पूजन करे, वक्ता सुनाकर श्रोता का पूजन करे-इस प्रकार सभी अपने-अपने कर्मों के द्वारा एक-दूसरे का पूजन करें। दृष्टि भगवान् की तरफ ही हो, ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि वर्ण की तरफ नहीं। जैसे-ऋषि-मुनि भगवान् श्रीराम को प्रणाम करते हैं तो भगवान् के भाव से प्रमाण करते हैं, क्षत्रिय के भाव से नहीं।
पूजन मंे मुख्य भाव यह रहना चाहिये कि सब कुछ भगवान और भगवान के लिये ही है। जैसे गंगा जल से गंगा का पूजन और दीपक से सूर्य का पूजन करने हैं, ऐसे ही भगवान की वस्तुओं से भगवान का पूजन करना है। इस प्रकार भगवान का पूजन करने से संसार लुप्त हो जायगा और एकमात्र भगवान रह जाएंगे अर्थात ‘सब कुछ भगवान् ही हैं’-इसका अनुभव हो जायगा।
दसवें अध्याय में भगवान ने कहा था कि सम्पूर्ण प्राणियों के भीतर स्थित आत्मा मैं ही हूँ-‘अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः’ (गीता 10/20)। अतः भगव˜ाव से हम किसी भी प्राणी की सेवा, आदर-सत्कार करंेगे तो वह भगवान की ही सेवा होगी। यदि किसी प्राणी का अनादर-तिरस्कार करेंगे तो वह भगवान का ही अनादर-तिरस्कार होगा।
साधक यदि जगत् को जगत्-रूप से देखे तो उसकी ‘सेवा’ करंे और भगवद् रूप से देखें तो उसका ‘पूजन’ करें। अपने लिये कुछ न करें। मात्र कर्म अपने लिये करना बन्धन है, संसार के लिये करना सेवा है और भगवान के लिये करना पूजन है।
श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्।। 47।।
अच्छी तरह अनुष्ठान किये हुए पर धर्म से गुण रहित भी अपना धर्म श्रेष्ठ है। कारण कि स्वभाव से नियत किये हुए स्वधर्म रूप कर्म को करता हुआ मनुष्य पाप को प्राप्त नहीं होता।
व्याख्या-स्वधर्म रूप कर्म को करने से पाप बन तो सकता है, पर लग नहीं सकता, क्योंकि पाप लगने में मुख्य कारण भाव है, क्रिया नहीं। पाप क्रिया से नहीं लगता, प्रत्युत भाव से अर्थात् स्वार्थ और अभिमान आने से लगता है।
सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत्।
सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः।। 48।।
हे कुन्तीनन्दन! दोषयुक्त होने पर भी सहज कर्म का त्याग नहीं करना चाहिये, क्योंकि सम्पूर्ण कर्म धुएँ से अग्नि की तरह (किसी-न-किसी) दोष से युक्त हैं।
व्याख्या-निषिद्ध कर्म में आसक्ति होने से अथवा निषिद्ध रीति से भोग भोगने के कारण ही विहित कर्म कठिन प्रतीत होता है। वास्तव में विहित कर्म सहज-स्वाभाविक है। इसमें परिश्रम नहीं है।
इकतालीसवें श्लोक से यहाँ तक ‘स्वकर्म’, ‘स्वधर्म’ और ‘सहज कर्म’ शब्दों का प्रयोग हुआ है। इससे यह सिद्ध होता है कि भगवान स्वकर्म और सहज कर्म को ही ‘स्वधर्म’ मानते हैं (गीता 2/31)।
विहित कर्म करने में कुछ-न-कुछ दोष होता तो है, पर कामना, सुख बुद्धि, भोग बुद्धि न रहने से दोष लगता नहीं। तात्पर्य है कि दोष लगना या न लगना कर्ता की नीयत पर निर्भर है, जैसे-डाॅक्टर की नीयत ठीक हो, पैसों का उद्देश्य न होकर सेवा का उद्देश्य हो तो आॅपरेशन मंे रोगी का अंग काटने पर भी उसे दोष नहीं लगता, प्रत्युत निःस्वार्थ भाव और रोगी के हित का भाव होने से पुण्य होता है।-क्रमशः (ंहिफी)

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