
श्रीमद् भगवत गीता का प्रबोध-95
जिस तरह मर्यादा पुुरुषोत्तम श्रीराम के चरित्र को लेकर कहा गया है कि ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता…’ उसी प्रकार भगवान कृष्ण के मुखार बिन्दु से प्रस्फुटित हुई श्रीमद् भगवत गीता का सार भी अतल गहराइयों वाला है। विद्वानों ने अपने-अपने तरह से गीता के रहस्य को समझने और समझाने का प्रयास किया है। गीता का प्रारंभ ही जिस श्लोक से होता है उसकी गहराई को समझना आसान नहीं है। कौरवों और पांडवों के मध्य जो युद्ध लड़ा गया वह भी धर्म क्षेत्रे अर्थात धर्म भूमि और कुरु क्षेत्रे अर्थात तीर्थ भूमि पर लड़ा गया जिससे युद्ध में वीर गति प्राप्त होने वालों का कल्याण हो गया। इसी तरह की व्याख्या स्वामी रामसुख दास ने गीता प्रबोधनी में की है जिसे हम हिफी के पाठकों के लिए क्रमशः प्रकाशित करने का प्रयास करेंगे। हम स्वामी जी के आभारी हैं जिन्होंने गीता के श्लोकों की सरल शब्दों में व्याख्या की है। -प्रधान सम्पादक
ममता, काम, क्रोध का त्याग ब्रह्म प्राप्ति का मार्ग
भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वतः।
ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम्।। 55।।
उस पराभक्ति से मुझे, मैं जितना हूँ और जो हूँ-इसको त़त्त्व से जान लेता है, फिर तत्त्व से जानकर तत्काल मुझमें प्रविष्ट हो जाता है।
व्याख्या-मैं जितना हूँ और जो हूँ-यह बात सगुण ईश्वर की ही है, क्योंकि ‘यावान्-तावान्’ सगुण में ही हो सकता है, निर्गुण में कदापि नहीं। ‘यावान्यश्चास्मि’ का वर्णन सातवें अध्याय के तीसवें श्लोक में‘साधिभूताधिदैवं मां साधियज्ञं च ये विदुः’ पदों से कर चुके हैं। इससे सगुण की विशेषता तथा मुख्यता सिद्ध होती है।
यहाँ ‘भक्त्या मामभिजानाति’ पदों में भगवान् को दृढ़ता पूर्वक मानना (सन्देह रहित विश्वास) ही उन्हें जानना है।
ज्ञान मार्ग से चलने वाले को जब (ज्ञानोत्तर काल में) भक्ति प्राप्त होती है, तब उसमें तत्त्व से जानना (ज्ञात्वा) और प्रविष्ट होना (विशते)-ये दो ही होते हैं, दर्शन नहीं होते। उनमें कोई कमी तो नहीं रहती, पर दर्शन की इच्छा उनमें नहीं होती। परन्तु आरम्भ से ही भक्ति मार्ग से चलने वाले को तत्त्व से जानने और प्रविष्ट होने के सिवाय भगवान् के दर्शन भी होते हैं। (गीता 19/54)। इसलिये ज्ञानमार्गी सन्तों में भगवत्प्रेम (भक्ति) की बात तोे आती है, पर दर्शन की बात नहीं आती।
जैसे विभिन्न मार्गों से आने वाले व्यक्ति द्वार में प्रविष्ट होने पर एक साथ मिल जाते हैं, ऐसे ही विभिन्न योग-मार्गों पर चलने वाले साधक भगवान् में प्रविष्ट होने पर (विशते) एक हो जाते हैं। अर्थात् अहम् की सूक्ष्म गन्ध भी न रहने से उनमं कोई मतभेद नहीं रहता।
सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्व्यपाश्रयः।
मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम्।। 56।।
मेरा आश्रय लेने वाला भक्त सदा सब कर्म करता हुआ भी मेरी कृपा से शाश्वत अविनाशी पद को प्राप्त हो जाता है।
व्याख्या-ज्ञान योगी के लिये तो भगवान् ने बताया कि वह सब विषयों का त्याग करके संयम पूर्वक निरन्तर ध्यान के परायण रहे, तब वह अहंता, ममता, काम, क्रोध आदि का त्याग करके ब्रह्म प्राप्ति का पात्र होता है (गीता 16/51-53)। परन्तु भक्त के लिये भगवान् यहाँ बताते हैं कि वह सम्पूर्ण कर्तव्य-कर्मों को सदा करते हुए भी मेरी कृपा से परम पद को प्राप्त हो जाता है, क्योंकि उसने मेरा आश्रय लिया है। तात्पर्य है कि भक्त को अपना कल्याण खुद नहीं करना पड़ता। कारण कि वह अपने बल, बुद्धि, योग्यता आदि का किंचिन्मात्र भी आश्रय न रखकर केवल भगवान् का ही आश्रय रखता है। फिर भगवत्कृपा ही उसका कल्याण कर देती है।
चेतसा सर्वकर्माणि मयि सन्यस्य मत्परः।
बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चितः सततं भव।। 57।।
चित्त से सम्पूर्ण कर्म मुझमें अर्पण करके मेरे परायण होकर तथा समता का आश्रय लेकर निरन्तर मुझमें चित्त वाला हो जा।
व्याख्या-पूर्व श्लोक में शाश्वत पद की प्राप्ति बताकर अब उसकी विधि बताते हैं कि वह कैसे प्राप्त होगा? साधक के लिये दो ही मुख्य कार्य हैं-संसार के सम्बन्ध का त्याग करना, और भगवान् के साथ सम्बन्ध जोड़ना। पूर्व श्लोक में आये ‘मद्व्यपाश्रयः’ पद में भगवान् के साथ सम्बन्ध जोड़ने की मुख्यता है। एकमात्र भगवान् का चिन्तन करने से संसार से सम्बन्ध-चिच्छेद होकर स्वतः समता आ जाती है। भगवान् का निरन्तर चिन्तन तभी होगी, जब मैं भगवन की हूँ-इस प्रकार अहंता भगवान में हो जायेगी। अहंता भगवान में लग जाने पर चि़त्त स्वतः स्वाभाविक भगवान मंे लग जाता है।
भगवान् के साथ जीव मात्र का स्व्तः सिद्ध नित्य सम्बन्ध है। केवल संसार के साथ सम्बन्ध मानने से ही इस नित्य सम्बन्ध की विस्मृति हुई है। इस विस्मृति को मिटाने के लिये भगवान् कहते हैं कि निरन्तर मुझमें चित्त वाला हो जा।
मच्च्त्तिः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि।
अथ चेत्त्वमहंकारन्न श्रोष्यसि विनंक्ष्यसि।। 58।।
मुझमें चित्त वाला होकर तू मेरी कृपा से सम्पूर्ण विघ्नों को तर जायगा और यदि तू अहंकार के कारण मेरी बात नहीं सुनेगा तो तेरा पतन हो जायगा।
व्याख्या-साधन का काम केवल संसार से विमुख होकर भगवान के सम्मुख होना है। सम्मुख हो जाने पर जो कुछ कमी रह जायगी, वह भगवान की कृपा से दूर हो जायगी। तात्पर्य है कि उस कमी को दूर करने की साधक पर कोई जिम्मेवारी नहीं रहती, प्रत्युत उसे दूर करने की पूरी जिम्मेवारी भगवान की हो जाती है। भगवान विशेष कृपा करके उसके साधन की सम्पूर्ण विघ्न-बाधाओं को भी दूर कर देते हैं और अपनी प्राप्ति भी करा देते हैं।
यदहंकारमाश्रित्य न योत्स्य इति मन्यसे।
मिथ्यैष व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति।। 59।।
अहंकार आश्रय लेकर तू जो ऐसा मान रहा है कि मैं युद्ध नहीं करूँगा, तेरा यह निश्चय मिथ्या (झूठा) है, क्योंकि तेरी क्षात्र-प्रकृति तुझे युद्ध में लगा देगी।
व्याख्या-भगवान् ने कहा कि मेरी कृपा से तू मेरी प्राप्ति भी कर लेगा और सभी विघ्नों से भी छूट जायगा। (गीता 18/56, 58)। परन्तु इतना कहने पर भी अर्जुन कुछ बोले नहीं तो भगवान कहते हैं कि यदि तू भूल से मेरी बात न सुने तो कोई दोष नहीं, पर तू अहंकार से मेरी बात नहीं सुनेगा तो तेरा पतन हो जायगा। भगवान का भाव है कि जैसे भक्त का सब काम (साधन और सिद्धि) मैं कर देता हूँ, ऐसे ही भक्त को भी चाहिये कि वह सब प्रकार से मेरा ही आश्रय ले। यदि मेरा आश्रय न लेकर वह अहंकार का आश्रय लेगा तो उसका पतन हो जायगा। कर्तव्य-कर्म (युद्ध) में एक तो मैं लगाता हूँ और एक प्रकृति लगाती है। यदि तू मेरी बात नहीं मानेगा तो तेरी क्षात्र-प्रकृति तुझे जबर्दस्ती युद्ध में लगा देगी, तू युद्ध किये निा रह नहीं सकेगा। फिर सब जिम्मेवारी तेरी होगी, मेरी नहीं।-क्रमशः (हिफी)