लेखक की कलमसम-सामयिक

गूंगा सिस्टम और बहरा लोकतंत्र

 

लोेकतांत्रिक व्यवस्था में जितना अन्याय लोक के साथ किया जा रहा है उसे शब्दों में व्यक्त कर पाना संभव नहीं है। यहां कानून अंधा है जिसे साक्ष्य देखने के लिए महाभारत का संजय चाहिए जो शब्द बा शब्द घटना बयान करे क्योंकि कानून का तराजू व्यवस्था के धृतराष्ट्र के हाथों में सौंप दिया गया है और भीष्म पितामह लोकतंत्र की इस असफल व नाकाम व्यवस्था को बनाए रखने के लिए दुर्योधन और दुशासन के समक्ष आत्मसमर्पण की मुद्रा में घुटने टेक कर खड़े हैं। समूचे देश में इन दिनों कोलकाता के मेडिकल कालेज में युवती डॉक्टर के साथ हुई दरिंदगी व बर्बरता को लेकर आक्रोश गहरा रहा है। दरअसल देश में महिला उत्पीड़न दोष कानूनों में नहीं, उन्हें लागू करने वाले सिस्टम में है।

यह कितना दुर्भाग्यपूर्ण व शर्मनाक है कि ऋषि-मुनियों की सत्य सनातन परम्परा वाले हमारे देश में महिलाओं का शारीरिक एवं मानसिक उत्पीड़न लगातार जारी है। जब तक कोई इतनी गंभीर और जघन्य हिंसक घटना न हो जाए जिसमें किसी पीड़िता की नृशंसता से हत्या न हो जाए तब तक लोगों का ध्यान उस घटना की ओर नहीं जाता।अभी हाल ही में कथित कानून के राज वाले राज्यों में भी पुलिस अधिकारियों और सत्ताधीशों के दरवाजे पर कई महिलाओं युवतियों ने जहर खाकर तो कभी पैट्रोल छिड़क कर आत्मदाह कर लिया है। क्या कोई युवती बेवजह अपनी जान देगी? क्या आत्मदाह या जहर खाकर आत्महत्या करना हंसी मजाक है? लेकिन जब अंधी व्यवस्था में अपने ऊपर बीते जुल्म की कोई सुनवाई नहीं होती है तब कोई युवती या महिला बहरे तंत्र की नींद तोड़ने के लिए ऐसा कदम उठाने को मजबूर होती है।

एक बात यह भी है कि इस तरह की अमानवीय घटनाओं के मामले में राजनीतिक फायदे के लिए आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला हमेशा जारी रहता है। आरोपियों को बचाने के लिए किसी तरह से मामला लटकाने की कोशिश की जाती है। इसका परिणाम यह होता है कि सबूत गायब हो जाते हैं और मामले कमजोर पड़ जाते हैं। आखिर हमारे समाज में यौन अत्याचार और हिंसा की इतनी अधिक दुर्भावना आई कहां से? क्यों ऐसा है कि एक छोटी बच्ची से लेकर बड़ी आयु की महिला तक के साथ इस प्रकार की दरिंदगी की जा रही है।

इसका कारण यह है कि हमारा समाज पितृ प्रधान  है। इसमें पुरुष जो चाहते हैं। वही होता है। कामकाजी महिलाओं के बारे में हमारे समाज में यही समझा जाता है कि वे 2-4 वर्ष काम करने के बाद शादी करके घर पर बैठ जाएंगी। एक बंधी बंधाई विचारधारा सी बन गई है जिसमें हमारा समाज महिलाओं को समानता का अधिकार नहीं देना चाहता। हमारी पितृसत्ता की परम्परा ही इसके लिए दोषी है  महिलाओं का शोषण घर से ही शुरू होता है। पढ़ाई-लिखाई, अधिक स्वतंत्रता तो दूर की बात है अपने शरीर, समय और विरासत पर भी कोई अधिकार समाज उसे नहीं देना चाहता।इस तरह के हालात में उचित रूप से यह पूछा जा सकता है कि इस समय कोलकाता के सरकारी कालेज में बलात्कार की शिकार डाक्टर युवती के पक्ष में प्रदर्शन करने वाले पुरुष और महिलाओं के साथ ममता बनर्जी प्रदर्शन क्यों कर रही हैं? सरकार भी उनकी, पुलिस भी उनकी तो फिर कार्रवाई क्यों नहीं हो रही। प्रश्न यह भी है कि महिलाओं के विरुद्ध अपराधों के मामले में पुलिस क्यों हमेशा लाचार हो जाती है?

पश्चिम बंगाल की महिला मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को जवाब देना चाहिए कि इतनी बड़ी घटना होने के बाद सबूत मिटाने के लिए इतनी बड़ी संख्या में भीड़ हमला करने आ गई और उसे रोकने के लिए पुलिस ने कोई इंतजाम नहीं किया। यह हालात बताते हैं कि ममता बनर्जी की प्रशासनिक क्षमता खत्म हो गई है उनका प्रशासनिक तंत्र पर कोई प्रभावी नियंत्रण नहीं है? यह कितना शर्मनाक है कि हर बार जब भी बलात्कार का कोई केस होता है, तो उसकी थोड़ी-बहुत चर्चा मीडिया में आती है परंतु अंत में मीडिया वाले तथा अन्य सभी चले जाते हैं और केवल न्याय के लिए तरस रही पीड़िता तथा उसके परिवार वाले ही अकेले रह जाते हैं। कई बार तो उलटे पीड़िता पर ही सवाल उठाए जाते हैं कि वह देर से घर से निकली होगी, परिधान ठीक नहीं पहने होंगे, वह अमुक जगह क्यों सो रही थी, जैसा कि कोलकाता के अस्पताल बलात्कार कांड में हुआ है। जहां कालेज प्रबंधन ने महिला डाक्टरों के रहने के लिए कमरा नहीं बनवाया था, जबकि पुरुष डाक्टरों के लिए यह व्यवस्था थी। यहां तक कि महिला डाक्टरों के लिए बाथरूम तक नहीं था। यदि सुविधाएं ही नहीं होंगी, तो महिला सुरक्षा सम्बन्धी कानून कैसे लागू किए जा सकेंगे?

पश्चिम बंगाल की सरकार यह कह रही है कि दोषी को फांसी दे दो परंतु जब तक दोषी को यह संदेश नहीं जाएगा कि बलात्कार करके वह बच नहीं सकता और हर हालत में सजा मिल कर ही रहेगी, तब तक इस समस्या का समाधान नहीं होगा। सबसे बड़ी बात यह है कि जहां पुलिस और वकीलों में पुरुषों की बहुसंख्या होती है वहां उन्हीं के दृष्टिकोण से फैसले होते हैं। भारत में प्रति घंटे बलात्कार के 4 केस होते हैं जबकि केस केवल 30 प्रतिशत मामलों में ही चलते हैं। ऐसे हालात में लोग महिलाओं को सम्मान देना कहां से सीख पाएंगे? कामकाजी तथा अन्य महिलाओं के मामले में हमारे कानून पहले भी अच्छे थे तथा नए कानूनों को और भी कठोर बना दिया गया है परंतु उन्हें लागू करने के लिए उसी तरह के लोगों की भी जरूरत है। जैसा कि कोलकाता बलात्कार और हत्या केस में सामने आया है जहां मामले को शुरू से ही दबाने की कोशिश की जा रही थी। कालेज के प्रिंसीपल का दूसरी संस्था में तबादला कर दिया गया है। जब तक प्रबंधन किसी घटना के प्रति जवाबदेह नहीं होगा तब तक ऐसे कदमों से कोई लाभ होने वाला नहीं है। थोड़ा प्रोटैस्ट तो होगा परंतु एक महीने के बाद सब शांत हो जाएगा। जैसा कि हाल ही के दिनों में मणिपुर, उत्तर प्रदेश और कर्नाटक में पूर्व प्रधानमंत्री देवेगौड़ा के पोते प्रज्वल रेवन्ना द्वारा महिलाओं के उत्पीड़न के मामले में हमने देखा है।

इस समूचे सिस्टम को देखते हुए सिर्फ यही कहा जा सकता है कि हमारा सिस्टम ही सबूत नष्ट करके, मामले को दबा कर या लटका कर वास्तविकता पर पर्दा डालने की कोशिश करता है क्योंकि हमारी मानसिकता ही ऐसी बन चुकी है जिसमें हम महिलाओं को समानता का अधिकार देना नहीं चाहते। एक ओर नारी को देवी दुर्गा के स्वरूप में पूजन करने की विरासत और दूसरी ओर दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की राज व्यवस्था और इस सबके बावजूद बच्चियों महिलाओं के साथ ऐसी बर्बरता जो आदिम युग की असभ्यता से भी कई गुना अमानवीय और अमानुषिकता से भरा है। बर्बरता चाहे हाथरस में हो या मणिपाल में संदेशखाली में हो या कोलकाता में सभी राजनीतिक दलों का स्वर एक होना चाहिए लेकिन शर्मनाक बात यह है कि राजनीति इन वीभत्स वारदातों को भी अलग अलग चश्मे से देखती है। (हिफी)

(मनोज कुमार अग्रवाल-हिफी फीचर)

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