मलिन बस्तियों की सूरत भी बदले

भारत में मलिन बस्तियां एक विकट समस्या है। हम विकसित भारत की बात करते हैं किन्तु जब बात झुग्गी-झोपडियों की होती है तो उनकी दशा को देखकर हमें विकसित भारत की कल्पना दूर की लगती है। मलिन बस्तियों के वाशिदें वोट देते हैं लेकिन चुन जाने के बाद नेता उनकी तरफ रूख नहीं करते हैं।
हमारे देश की एक बड़ी आबादी इन्हीं मलिन बस्तियों में रहती है। इन बस्तियों में रहने वाले मजदूर, कारीगर, इलैक्ट्रीशिएन, प्लम्बर, मैकेनिक, राज-मिस्त्री, बढ़ई व मैकेनिक आदि हुनरमंद लोग हैं, जो किसी कारखाने में काम करते हैं, जिन्हें रहने को कमरा नहीं मिलता, इन्हीं बस्तियों के आशियानों में किराये में कमरा लेते हैं। मुंबई की महानगरी में यह 3000 से 4000 रू0 मासिक से कम नहीं होता। कई बस्तियां नाले के पास गटर के ऊपर बनी हैं। इन बस्तियों में बने छोटे-छोटे कमरे में रहने वाले लोगों से भवन स्वामी अच्छा किराया वसूलते हैं। कमरे में न किचन होती है न बाथरूम। टायलेट पब्लिक की होती है। स्वच्छ पेयजल उपलब्ध नहीं होता। गलियों में घुप अंधेरा होता है जहंा सूर्य की रोशनी नहीं पड़ती। बस्तियां इतनी तंग कि एक व्यक्ति ही इस गली में चल पाता है। महानगरों में ऐसी बस्तियों की भरमार है। मुंबई की धारावी एशिया की सबसे बड़ी मलिन बस्ती है। यह बस्ती 240 हेक्टेयर क्षेत्र में फैली है। 12.15 लाख लोग इन बस्तियों में रहते हैं। अधिकतर लोग दूसरे राज्यों से रोजगार की तलाश में आये हैं और महानगर के दूसरे इलाकों में नौकरी या अपना रोजगार कर रहे हैं। बस्तियों में कमरों को प्लास्टिक की पन्नियों से ढक कर वर्षा से रक्षा की जाती है। निचली बस्तियां बाढ़ में डूब जाती है। कई बच्चे स्कूल नहीं जाते। घर पर ही गुलदस्ते बनाते हैं या खिलौने तैयार करते हैं। कारीगरी में परिवारजनों का हाथ बंटाते हैं। इन्हंे बाजार में बेचकर रुपये कमाते हैं। छोटी सी आय से मकान का किराया ही निकलता है। घर मुश्किल से चल पाता है। इन बस्तियों के कुछ बच्चे पढ़ लिख रहे हैं ताकि उनका जीवन सफल हो। धारावी को अपना इतिहास है परन्तु इस बस्ती पर बिल्डर्स की नजर है ताकि यहां पर विशालकाय काम्प्लैक्स बने। अगर यह रिपोर्ट सच है यदि धारावी का उजाड़ा जाता है तो यहां रहने वाली 12 लाख की आबादी कहां जायेगी। उच्चतम न्यायालय का आदेश है कि बस्ती को हटाने से पहले वहां के निवासियांे के पुनर्वास की व्यवस्था हो। यह एक मानवीय पहलू है। इसे भी ध्यान में रखना होगा।
रेलवे लाइन के किनारे झुग्गी-झोपड़ियां बनी है। चाहे दिल्ली हो या मुंबई, कोलकता हो या कोई और शहर या कस्बा। रेलवे लाइनों के किनारे बस्तियां बस गयी हैं। यहां के बच्चे रेलवे हादसों के शिकार होते हैं। असामाजिक तत्व बच्चों से अनैतिक कार्य कराते हैं। कोई जगह रहने को नहीं मिली तो रेलवे लाइन के किनारे झोपड़ी बना देते हैं। भारत की 18 फीसद आबादी झुग्गी-झोपड़ियों में रहती है। एक सर्वे में कहा गया है कि 90 लाख से अधिक लोग झुग्गियों में रहते हैं। रोजगार की तलाश में शहर की तरफ पलायन बढ़ रहा है। लोग महानगरों की ओर रूख कर रहे हैं जहां काम है भले ही दाम कम हो। रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2050 तक भारत की 50 फीसद आबादी शहरों में रहने लगेगी। जब शहर में सस्ता कमरा नहीं मिलता तो लोग इन बस्तियों में जाकर रहते हैं। एक ही कमरे में रहना, खाना, सोना, नहाना, बाथरूम होता है। यहां रहना व दिन भर रोजगार के लिए अन्यत्र काम करना उनकी दिनचर्या बन जाती है।
झुग्गी-झोपडियों में रहने वाले दूषित वातावरण मंे रहते हैं। वे शीघ्र रोगों का शिकार हो जाते है। मलिन बस्तियांे में रहने वाले लोगों को सरकारी योजनाओं की जानकारी नहीं होती। राशन कार्ड बनाने की प्रक्रिया में तकनीकी कारणों से उनके राशनकार्ड नहीं बन पाते, जिस कारण उन्हें फ्री राशन का लाभ नहीं मिलता। भूख व कुपोषण के कारण बच्चे अल्पायु में ही मर जाते है। बालिकाओं का कम आयु में विवाह कर दिया जाता है ताकि घर में रहने वाले परिवार का सदस्य घटे। बच्चे भी 4-5 होते हैं। इनके पालन पोषण का बोझ होता है।
मलिन बस्तियों में रहने वाले परिवारों के पुनर्वास की व्यवस्था हो। उन्हें स्वरोजगार के लिए उचित प्रशिक्षण दिया जाये। विभिन्न श्रम कल्याण योजनाओं के बारे में उन्हें जानकारी दी जाये। बस्तियों में रहने वाले सभी बच्चों को शिक्षा प्रदान करायी जाये। इसके लिये उनके अभिभावकों को जागरूक बनाया जाना बहुत जरूरी है। (हिफी)
(बृजमोहन पन्त-हिफी फीचर)