पूर्वजों के लिये श्रद्धा के साथ करें तर्पण

ज्योतिषाचार्य पं. राकेश पाण्डेय
महर्षि पाराशर ज्योतिष संस्थान ‘ट्रस्ट’
पूर्वजों से ही हमारा अस्तित्व है। उनकी स्मृति में प्रति वर्ष भाद्रपद की पूर्णिमा से आश्विन की अमावस्या तक श्राद्ध पक्ष मनाया जाता है।
इस बार श्राद्ध पक्ष 17 सितम्बर से ही प्रारम्भ हो चुका है। पूरे 16 दिन हमें अपने पूर्वजों का आशीर्वाद पाने का अवसर मिलेगा। पितरों के आशीर्वाद पाने का अवसर मिलेगा। पितरों के आशीर्वाद से पूरे वर्ष सुख शांति रहेगी ऐसा माना जाता है। इसलिए श्रद्धा और समर्पण के साथ तर्पण करें अथवा किसी विद्वान ब्राह्मण से करायें। सामान्य रूप से तर्पण की विधि इस प्रकार है-
पूर्व दिशा की और मुँह कर, दाहिना घुटना जमीन पर लगाकर, सव्य होकर (जनेऊ व अंगोछे को बांयें कंधे पर रखना) गायत्री मंत्र से शिखा बांध कर, तिलक लगाकर, दोनों हाथ की अनामिका अँगुली में कुशों की पवित्री (पैंती) धारण करें। फिर हाथ में त्रिकुशा, जौ, अक्षत और जल लेकर संकल्प पढें-
ऊँ विष्णवे नमः ३। हरिः ऊँ तत्सदद्यैतस्य श्रीब्रह्मणो द्वितीयपरार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे अष्टाविंशतितमे कलियुगे कलिप्रथमचरणे जम्बूद्वीपे भरतखण्डे भारतवर्षे आर्यावर्तैकदेशे आन्नद नाम संवत्सर प्रवर्तते तदुपरान्ते राक्षस नाम संवत्सरे भाद्रपद मासे शुक्ले पक्षे अमुकतिथौ अमुकवासरे अमुकगोत्रोत्पन्नः अमुकशर्मा (वर्मा, गुप्तः) अहं श्रीपरमेश्वरप्रीत्यर्थं देव रिषि मनुष्य पितृतर्पणं करिष्ये।
तीन कुश ग्रहण कर निम्न मंत्र को तीन बार कहें-
ऊँ देवताभ्यः पितृभ्यश्च महायोगिभ्य एव च। नमः स्वाहायै स्वधायै नित्यमेव नमोनमः।
तदनन्तर एक तांबे अथवा चाँदी के पात्र में श्वेत चन्दन, जौ, तिल, चावल, सुगन्धित पुष्प और तुलसीदल रखें, फिर उस पात्र में तर्पण के लिये जल भर दें। फिर उसमें रखे हुए त्रिकुशा को तुलसी सहित सम्पुटाकार दायें हाथ में लेकर बायें हाथ से उसे ढक लें और देवताओं का आवाहन करें।
आवाहन मंत्रः ऊँ विश्वेदेवास आगत श्रृणुता म इम, हवम्। एदं वर्हिनिषीदत।।
‘हे विश्वेदेवगण! आप लोग यहाँ पदार्पण करें, हमारे प्रेमपूर्वक किये हुए इस आवाहन को सुनें और इस कुश के आसन पर विराजे।
इस प्रकार आवाहन कर कुश का आसन दें और त्रिकुशा द्वारा दायें हाथ की समस्त अंगुलियों के अग्रभाग अर्थात् देवतीर्थ से ब्रह्मादि देवताओं के लिये पूर्वोक्त पात्र में से एक-एक अंजुलि तिल चावल-मिश्रित जल लेकर दूसरे पात्र में गिरावें और निम्नांकित रूप से उन-उन देवताओं के नाममन्त्र पढ़ते रहें-
देव तर्पण-
ऊँ ब्रह्मास्तृप्यताम्। ऊँ विष्णुस्तृप्यताम्। ऊँ रुद्रस्तृप्यताम्। ऊँ प्रजापतिस्तृप्यताम्। ऊँ देवास्तृप्यन्ताम्। ऊँ छन्दांसि तृप्यन्ताम्। ऊँ वेदास्तृप्यन्ताम्। ऊँ ऋषयस्तृप्यन्ताम्। ऊँ पुराणाचार्यास्तृप्यन्ताम्। ऊँ गन्धर्वास्तृप्यन्ताम्। ऊँ इतराचार्यास्तृप्यन्ताम्। ऊँ संवत्सरः सावयवस्तृप्यताम्। ऊँ देव्यस्तृप्यन्ताम्। ऊँ अप्सरसस्तृप्यन्ताम्। ऊँ देवानुगास्तृप्यन्ताम्। ऊँ नागास्तृप्यन्ताम्। ऊँ सागरास्तृप्यन्ताम्। ऊँ पर्वतास्तृप्यन्ताम्। ऊँ सरितस्तृप्यन्ताम्। ऊँ मनुष्यास्तृप्यन्ताम्। ऊँ यक्षास्तृप्यन्ताम्। ऊँ रक्षांसि तृप्यन्ताम्। ऊँ पिशाचास्तृप्यन्ताम्। ऊँ सुपर्णास्तृप्यन्ताम्। ऊँ भूतानि तृप्यन्ताम्। ऊँ पशवस्तृप्यन्ताम्। ऊँ वनस्पतयस्तृप्यन्ताम्। ऊँ ओषधयस्तृप्यन्ताम्। ऊँ भूतग्रामश्चतुर्विधस्तृप्यताम्।
ऋषि तर्पण-
इसी प्रकार निम्नांकित मन्त्रवाक्यों से मरीचि आदि ऋषियों को भी एक-एक अंजुलि जल दें-
ऊँ मरीचिस्तृप्यताम्। ऊँ अत्रिस्तृप्यताम्। ऊँ अङ्गिरास्तृप्यताम्। ऊँ पुलस्त्यस्तृप्यताम्। ऊँ पुलहस्तृप्यताम्। ऊँ क्रतुस्तृप्यताम्।
ऊँ वसिष्ठस्तृप्यताम्। ऊँ प्रचेतास्तृप्यताम् । ऊँ भृगुस्तृप्यताम्। ऊँ नारदस्तृप्यताम्।
दिव्य मनुष्य तर्पण-
उत्तर दिशा की ओर मुँह कर, जनेऊ व गमछे को माला की भाँति गले में धारण कर, सीधा बैठ कर निम्नांकित मन्त्रों को दो-दो बार पढते हुए दिव्य मनुष्यों के लिये प्रत्येक को दो-दो अञ्जलि जौ सहित जल प्राजापत्यतीर्थ (कनिष्ठिका के मूला-भाग) से अर्पण करें-
ऊँ सनकस्तृप्यताम्-2 ऊँ सनन्दनस्तृप्यताम्-2 ऊँ सनातनस्तृप्यताम्-2 ऊँ कपिलस्तृप्यताम्-2 ऊँ आसुरिस्तृप्यताम्-2 ऊँ वोढुस्तृप्यताम्-2 ऊँ पञ्चशिखस्तृप्यताम्-2
दिव्य पितृ तर्पण-
दोनों हाथ के अनामिका में धारण किये पवित्री व त्रिकुशा को निकाल कर रख दे-
अब दोनों हाथ की तर्जनी अंगुली में नया पवित्री धारण कर मोटक नाम के कुशा के मूल और अग्रभाग को दक्षिण की ओर करके अंगूठे और तर्जनी के बीच में रखे, स्वयं दक्षिण की ओर मुँह करे, बायें घुटने को जमीन पर लगाकर अपसव्यभाव से (जनेऊ को दायें कंधेपर रखकर बाँये हाथ जे नीचे ले जायें) पात्रस्थ जल में काला तिल मिलाकर पितृतीर्थ से (अंगुठा और तर्जनी के
मध्यभाग से) दिव्य पितरों के लिये निम्नाङ्कित मन्त्र-वाक्यों को पढ़ते हुए तीन-तीन अंजुलि जल दें-
ऊँ कव्यवाडनलस्तृप्यताम् इदं सतिलं जलं गङ्गाजलं वा) तस्मै स्वधा नमः-3
ऊँ सोमस्तृप्यताम् इदं सतिलं जलं गङ्गाजलं वा) तस्मै स्वधा नमः-3
ऊँ यमस्तृप्यताम् इदं सतिलं जलं गङ्गाजलं वा) तस्मै स्वधा नमः-3
ऊँ अर्यमा तृप्यताम् इदं सतिलं जलं गङ्गाजलं वा) तस्मै स्वधा नमः-3
ऊँ अग्निष्वात्ताः पितरस्तृप्यन्ताम् इदं सतिलं जलं गङ्गाजलं वा) तेभ्यरू स्वधा नमः-3
ऊँ सोमपाः पितरस्तृप्यन्ताम् इदं सतिलं जलं गङ्गाजलं वा) तेभ्यः स्वधा नमः-3
ऊँ बर्हिषदः पितरस्तृप्यन्ताम् इदं सतिलं जलं गङ्गाजलं वा) तेभ्यः स्वधा नमः-3
निम्नांकित मन्त्र से पितरों का आवाहन करें-
‘हे अग्ने ! तुम्हारे यजन की कामना करते हुए हम तुम्हें स्थापित करते हैं । यजन की ही इच्छा रखते हुए तुम्हें प्रज्वलित करते हैं। हविष्य की इच्छा रखते हुए तुम भी तृप्ति की कामनावाले हमारे पितरों को हविष्य भोजन करने के लिये बुलाओ।’
तदनन्तर अपने पितृगणों का नाम-गोत्र आदि उच्चारण करते हुए प्रत्येक के लिये पूर्वोक्त विधि से ही तीन-तीन अंजुलि तिल-सहित जल इस प्रकार दें-
अस्मत्पिता अमुकशर्मा वसुरूपस्तृप्यतांम् इदं सतिलं जलं (गङ्गाजलं वा) तस्मै स्वधा नमः- 3
अस्मत्पितामहः (दादा) अमुकशर्मा रुद्ररूपस्तृप्यताम् इदं सतिलं जलं (गङ्गाजलं वा) तस्मै स्वधा नमः-3
अस्मत्प्रपितामह: (परदादा) अमुकशर्मा आदित्यरूपस्तृप्यताम् इदं सतिलं जलं (गङ्गाजलं वा) तस्मै स्वधा नमः-3
अस्मन्माता अमुकी देवी वसुरूपा तृप्यताम् इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नमः-3
अस्मत्पितामही (दादी) अमुकी देवी रुद्ररूपा तृप्यताम् इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नमः-3
अस्मत्प्रपितामही परदादी अमुकी देवी आदित्यरूपा तृप्यताम् इदं सतिलं जल तस्यै स्वधा नमः-3
इसके बाद नौ बार पितृतीर्थ से जल छोड़े।
इसके बाद सव्य होकर पूर्वाभिमुख हो नीचे लिखे श्लोकों को पढते हुए जल गिरावे-
देवासुरास्तथा यक्षा नागा गन्धर्वराक्षसाः। पिशाचा गुह्यकारू सिद्धारू कूष्माण्डास्तरवः खगाः।
जलेचरा भूमिचराः वाय्वाधाराश्च जन्तवः। प्रीतिमेते प्रयान्त्वाशु मद्दत्तेनाम्बुनाखिलाः।
नरकेषु समस्तेपु यातनासु च ये स्थिताः। तेषामाप्ययनायैतद्दीयते सलिलं मया।
येऽबान्धवा बान्धवा वा येऽन्यजन्मनि बान्धवाः। ते सर्वे तृप्तिमायान्तु ये चास्मत्तोयकांक्षिणः।
अर्थः ‘देवता, असुर, यक्ष, नाग, गन्धर्व, राक्षस, पिशाच, गुह्मक, सिद्ध, कूष्माण्ड, वृक्ष वर्ग, पक्षी, जलचर जीव और वायु के आधार पर रहने वाले जन्तु-ये सभी मेरे दिये हुए जल से शीघ्र तृप्त हों। जो समस्त नरकों तथा वहाँ की यातनाओं में प़ड़े-पडे़ दुःख भोग रहे हैं, उनको पुष्ट तथा शान्त करने की इच्छा से मैं यह जल देता हूँ । जो मेरे बान्धव न रहे हों, जो इस जन्म में बान्धव रहे हों, अथवा किसी दूसरे जन्म में मेरे बान्धव रहे हों, वे सब तथा इनके अतिरिक्त भी जो मुझसे जल पाने की इच्छा रखते हों, वे भी मेरे दिये हुए जल से तृप्त हों। (हिफी)