अध्यात्म

महासमर की महागाथा-01 सभी को प्रेरणा देती भगवद्गीता

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)
हिंदू जाति का बच्चा-बच्चा भगवद्गीता के नाम से परिचित है। भारत में इस पुस्तक के जितने संस्करण छपे हैं उतने शायद किसी और के नहीं छपे होंगे। यहाँ जितना अध्ययन इसका किया जाता है उतना किसी और का शायद ही किया जाता हो। आर्य जाति के पुराने विद्वानों में कोई विरला ही ऐसा होगा, जिसने भगवद्गीता पर अपनी टीका न लिखी हो। देश की विभिन्न भाषाओं में भगवद्गीता पर कई टीकाएँ लिखी गई हैं। विदेशी भाषाओं में शायद ही कोई ऐसी हो, जिसमें भगवद्गीता का अनुवाद विद्यमान न हो।
मुसलमानों में भी भगवद्गीता का सम्मान रहा है। मुसलमानों में बुखारा का राजकुमार अलबरूनी ऐसा पहला व्यक्ति था, जिसका ध्यान भगवद्गीता की तरफ गया। उसे महमूद गजनवी ने कैद कर रखा था। हिरासत में रखने के लिए वह उसे हिंदुस्तान पर आक्रमणों के समय भी अपने साथ लिये रहता। अलबरूनी ने युद्धकाल में बड़ी कठिनाइयों के बाद संस्कृत का अध्ययन किया। अपनी प्रसिद्ध पुस्तक भारत, जो तात्कालिक हिंदुस्तान का एक चित्र है, में उसने भगवद्गीता के कई श्लोक उद्धृत किए हैं। उसने आध्यात्मिक दृष्टि से इसे बड़ी उच्च कोटि की और पवित्र पुस्तक बताया है।
मुगलकाल में अकबर के आदेश से फैजी ने भगवद्गीता का अनुवाद फारसी भाषा में किया। दाराशिकोह ने इसका नाम सरे अकबर रखा और भूमिका में भगवद्गीता तथा महर्षि व्यास के संबंध में ये विचार प्रकट किए-
सचाई का मार्ग बतलाने वाली, हक को पहचाननेवाली, मारफत से भरी हुई, गहरे भेदों को खोलनेवाली, एकता दिखानेवाली, आनंददायिनी यह कृति विलक्षण मनुष्यों में सर्वश्रेष्ठ ज्ञानी स्वामी व्यासजी की है। व्यासजी का गुणानुवाद करना वाणी और लेखनी की शक्ति से बाहर है। संसार का प्रथम प्रसिद्ध दार्शनिक अफलातून, जो अरब तथा यूनान के दार्शनिकों का शिरोमणि है, विभिन्न विद्याओं का मर्मज्ञ होने पर भी ज्ञान की दृष्टि से तन्मीम हिंदी के तुच्छ शिष्यों में से एक था। तन्मीम हिंदी का इतना बड़ा दार्शनिक था कि अफलातून ने परिपूर्णता से भरे उसके गुणों का वर्णन अपनी कलम से किया है। यह तन्मीम हिंदी स्वामी व्यास के अनुगामी वर्ग में से एक था। स्वामी व्यास के बड़प्पन का अनुमान इस एक बात से ही लगाया जा सकता है।
भगवद्गीता और उपनिषदों के फारसी अनुवाद जब यूरोप में पहुँचे, तब यूरोप के दार्शनिक इनको पढ़कर आश्चर्यचकित हो गए। प्रसिद्ध दर्शनवेत्ता श्लेगल भगवद्गीता को पढ़कर वज्द में आ गया और इसकी प्रशंसा करने लगा। शापनहावर और मत्सीनी या मेजिनी के विचारों पर भगवद्गीता का गहरा असर हुआ। एमर्सन का गुरु थोरो भगवद्गीता का भक्त बन गया। उसने एक स्थान पर कहा है, मैं प्रतिदिन भगवद्गीता के पवित्र जल में स्नान करता हूँ। वर्तमान काल की कृतियों से यह कहीं बढ़-चढ़कर है। जिस काल में यह लिखी गई वह सचमुच ही निराला समय रहा होगा।
यदि भगवद्गीता के विषय का अध्ययन और उसका मुकाबला हिंदू शास्त्रों से किया जाय तो स्पष्ट दीख पड़ता है कि इसके रचयिता ने इसे लिखने में लगभग सभी आर्य शास्त्रों से सहायता ली है। वेदांत, सांख्य, योग आदि सभी दर्शनों और वेदों की झलक इसके श्लोकों में साफ पाई जाती है। उपनिषदों के तो कई शब्द एवं वाक्य इसमें दोहराए गए हैं। इसके रचयिता ने हिंदू-साहित्य तथा दर्शन के सार को संक्षेप में एक जगह एकत्र कर दिया है। इसीलिए पुराण में यह कहा गया है सभी उपनिषद् गौएँ हैं, अर्जुन बछड़ा है, श्रीकृष्ण दूध दुहने वाले हैं और भगवद्गीता अमृत-रूपी दूध है।’ यदि कोई आदमी हिंदू संस्कृति के समुद्र-धर्म, साहित्य और दर्शन- को एक कूजे के अंदर बंद देखना चाहे तो वह भगवद्गीता पढ़ ले। यदि शेष सभी शास्त्र नष्ट हो गए होते और केवल भगवद्गीता ही रह जाती, तो भी हिंदू जाति के बड़प्पन की स्मृति दुनिया में कायम रहती। हिंदू सभ्यता इस समय इसमें यहाँ तक सुरक्षित है कि भगवद्गीता का प्रचार या विनाश हिंदू धर्म का प्रसार या विनाश है। सच ही कहा गया है कि वैदिक धर्म के कल्पवृक्ष का पका हुआ अमृत-रूपी फल भगवद्गीता है।
आधुनिक भारत के एक बड़े विद्वान् स्वामी दयानंद ने भगवद्गीता को यह पद नहीं दिया। विचार करने पर मालूम होता है कि उनके ऐसा न करने का खास कारण है। उनके जीवन में एक ही भाव काम करता है-वैदिक धर्म की रक्षा। स्वामी दयानंद को वेदों से इतना प्रेम था कि जब कोई चीज उन्हें इसके रास्ते में बाधक मालूम देती तो वे उसे अलग कर देते। दूसरे, हर युग में हिंदू आचार्यों ने भगवद्गीता का आश्रय लेकर अपने-अपने विचारों का प्रचार करने का प्रयत्न किया है। इन्हीं मत-मतांतरों के झगड़े के समय नवीन वेदांत की नींव पड़ी। प्रकट रूप में भगवद्गीता भी नवीन वेदांत को सहायता देती मालूम पड़ती है। स्वामी दयानंद इन मत-मतांतरों और नवीन वेदांत की शिक्षा को जाति के धार्मिक एवं नैतिक पतन के लिए उत्तरदायी समझते थे। इस कारण उन्होंने भगवद्गीता की भी उपेक्षा की।
वेद के बारे में भगवद्गीता के विचार परस्पर विरोधी मालूम पड़ते हैं। कई स्थलों पर, उदाहरणार्थ- अध्याय तीन के श्लोक 15 में, अध्याय सात के श्लोक 8 में और अध्याय पंद्रह तथा सत्रह में भी-वेद को ब्रह्म और ब्रह्म से ही पैदा हुआ बतलाया गया है लेकिन अध्याय दो के श्लोक 42, 45, 46, 53 आदि में वेद को पीछे छोड़कर आगे जाने की शिक्षा दी गई है। इस प्रकट विरोध का दूर होना तभी संभव है, जब हम यह समझ लें कि महाभारत के काल से पहले ही वेद शब्द के प्रयोग में भिन्नता आ गई थी। उस समय न केवल संहिता को ही वेद कहा जाता था, बल्कि ब्राह्मण ग्रंथों, सूत्र ग्रंथों आदि के लिए भी वेद शब्द प्रयुक्त किया जाता था। इन ग्रंथों में विशेष रीतियाँ पूरी करके उनसे विशेष फल प्राप्त करने पर जोर दिया गया है। भगवद्गीता
के अध्याय दो में इनको ही
वैदिक विधियाँ कहकर इनके
कर्मकांड को निचला दरजा दिया गया है। -क्रमशः (हिफी)

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