अध्यात्म

(महासमर की महागाथा-03) वंशी बजाई और काटा शिशुपाल का गला

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)
श्रीकृष्ण ज्यों-ज्यों बड़े होते गए त्यों-त्यों उनकी बुद्धि, सुंदरता और उनका वंशी-वादन गोकुल के गोपों तथा गोपियों के दिलों को अपनी ओर आकृष्ट करता गया। श्रीकृष्ण के साथ गोपियों के प्रेम और बचपन की रास-लीलाओं को कुछ लोगों ने अश्लील रूप में प्रकट किया है। ऐसे ही जैसे विषय में फँसा आदमी निर्दोष लड़के-लड़कियों के पारस्परिक प्रेम और खेल का चित्र अपने पापी मन पर अंकित कर लेता है। मथुरा के गोप भी श्रीकृष्ण पर इतने मुग्ध थे कि युवा होते श्रीकृष्ण उन लोगों के नेता तुल्य बन गए। उन्हें अपने आप और अन्य लोगों को कंस के अत्याचार से बचाने का कोई अन्य उपाय नजर नहीं आया तो उन्होंने ग्वाल साथियों की छोटी सी सेना इकट्ठी की और मथुरा पर आक्रमण करके कंस का वध अपने हाथ से कर दिया। मथुरा का राजपाट कंस के पिता और अपने नाना उग्रसेन को सौंप दिया। कंस के ससुर जरासंध, जो मगध का राजा था, ने अपने जामाता की मृत्यु का बदला लेने के लिए मथुरा पर आक्रमण कर दिया। कई लड़ाइयों में तो श्रीकृष्ण उसकी सेना का मुकाबला करते रहे, लेकिन बहुत दिनों तक लड़ते-लड़ते और अपने आपको शक्तिशाली शत्रु के मुकाबले में सफल न होते देखकर उन्होंने मथुरा को छोड़ने का निश्चय कर लिया। तब उन्होंने अपने साथियों को दूर ले जाकर सागर तट पर द्वारका नगर बसाया और एक नए राज्य की नींव डाली।
इसी समय हस्तिनापुर में पांडवों और कौरवों का झगड़ा शुरू हुआ। इसके मूल में उस ईर्ष्या का बीज था, जो वर्तमान काल तक भी राजपूतों, मराठों, सिखों आदि के इतिहास में बराबर फलता हुआ नजर आता है। युधिष्ठिर आदि पाँच पांडव भाई विभिन्न कलाओं में ऐसे निपुण थे कि उनकी ख्याति देखकर उनके चचेरे भाई कौरव, जिनका मुखिया दुर्योधन था, ईर्ष्या की अग्नि में जलने लगे। उसने हर तरह से कोशिश की कि पांडव भाइयों के जीवन का अंत कर दे, यहाँ तक कि एक विशेष प्रकार का महल बनवाकर उसमें उनकी माता कुंती समेत उन्हें जला देने का प्रबंध किया गया पर उनको इसकी खबर पहले ही मिल गई थी। वे वहाँ से भाग निकले। वेश बदलकर वे इधर-उधर समय बिता रहे थे। तभी उनको पांचाल के राजा की पुत्री द्रौपदी के स्वयंवर की सूचना मिली। परिवर्तित वेश में वे भी वहाँ पहुँचे। वहाँ बहुत से राजा-महाराजा पहले ही एकत्र थे। गरीब ब्राह्मण की वेशभूषा में अकेले अर्जुन ने स्वयंवर की कठिन कड़ी शर्त को पूरा किया। द्रौपदी ने उसके गले में जयमाला डाल दी। अन्य क्षत्रिय राजा हैरान रह गए। अर्जुन को ब्राह्मण समझकर वे उसके साथ लड़ने के लिए तैयार हो गए। श्रीकृष्ण वहाँ मौजूद थे। उन्होंने पहली बार अपने संबंधी पांडवों को वहाँ देखा, फिर भी उन्हें पहचान लिया और उनकी सहायता के लिए वे तैयार हो गए। बाद में वे उन्हें हस्तिनापुर ले आए और कौरवों के साथ संधि करा दी। पांडवों ने अपना अलग राज्य स्थापित किया, जिसकी राजधानी का नाम इंद्रप्रस्थ रखा गया।
श्रीकृष्ण वापस द्वारका चले गए। उनकी ख्याति दिन-प्रतिदिन बढ़ने लगी। उनका बालसखा सुदामा उनका नाम सुनकर एक बार उनसे मिलने के लिए द्वारका आया। सुदामा गुरु सांदीपनि के आश्रम में श्रीकृष्ण के साथ विद्याध्ययन करता थाय परंतु अब बहुत गरीबी की हालत में था। लगातार कई दिनों तक पैदल चलने के बाद वह थका-माँदा द्वारका पहुँचा। घर से चलते समय उसकी स्त्री ने थोड़े से तंडुल श्रीकृष्ण के लिए भेंटस्वरूप ले जाने के लिए उसकी फटी धोती के एक कोने में बाँध दिए थे।
ज्यों ही श्रीकृष्ण को सुदामा के आने की सूचना मिली त्यों ही वे दौड़े-दौड़े महल से बाहर आए। उन्होंने सुदामा को अपनी छाती से लगा लिया। हाथ-पाँव धुलाने के बाद उसे चौकी पर बिठलाया और प्रेम-पगी बातचीत करते हुए पूछा, मेरे लिए क्या उपहार लाए हो? मारे संकोच के सुदामा अपनी धोती के उस कोने को छिपा रहा था। इतने में श्रीकृष्ण ने उठकर उससे वे तंडुल छीन लिये। वे मुँह में थोड़े से दाने डालकर चबाने लगे। शेष उन्होंने रुक्मिणी को दे दिए कि सबमें बाँट दे। श्रीकृष्ण सुदामा की पत्नी की बड़ी प्रशंसा करने लगे कि उसने यह उपहार भेजकर बड़ी कृपा की है ।
यह एक सामान्य घटना थी, परंतु इसकी चर्चा सर्वत्र होने लगी। फलतः इससे श्रीकृष्ण के बड़प्पन और सर्वप्रियता का डंका बजने लगा।
श्रीकृष्ण को खबर मिली कि युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ करना आरंभ किया है। वे वहाँ पहुँचे और अपनी मंत्रणा से सहायता देने लगे। उनकी सम्मति के अनुसार यह निश्चय किया गया कि राजसूय यज्ञ करने से पूर्व जरासंध के मान को तोड़ना जरूरी है। कुछ देर विचार-विमर्श करने के बाद यह निश्चय हुआ कि श्रीकृष्ण, अर्जुन और भीम-ये तीनों उसकी राजधानी में जाएँ। ऐसा ही किया गया। वहाँ भीम ने जरासंध से द्वंद्व युद्ध करके उसका वध कर दिया। फिर उसका बेटा गद्दी पर बैठा दिया।
मगध से वापस आने पर यज्ञ की तैयारी होने लगी। यज्ञ के आरंभ में नियम के अनुसार एक श्रेष्ठ मनुष्य का निर्वाचन आवश्यक था, जिसकी पूजा सबसे पहले की जाए। महाभारत में एतद्विषयक वाद-विवाद का दृश्य वर्णन बड़े सुंदर ढंग से किया गया है। इसमें एक तरफ के लोग, जिनके नेता भीष्म पितामह थे, अग्रपूजा का मान आर्यावर्त के सर्वश्रेष्ठ राजा
श्रीकृष्ण को देना चाहते थे। दूसरी तरफ भी कई राजा लोग थे, जिनका अगुआ शिशुपाल था। ये लोग श्रीकृष्ण को नीचा दिखलाना चाहते थे। शिशुपाल ने श्रीकृष्ण को बहुत कुवचन एवं दुर्वचन कहे। अंत में श्रीकृष्ण ने अपना सुदर्शन चक्र चलाया, जिससे शिशुपाल का सिर धड़ से अलग हो गया। तत्पश्चात् सबसे पहले
श्रीकृष्ण की पूजा की गई। इससे श्रीकृष्ण का कद सबसे ऊँचा हो गया और वे देव-तुल्य पदवी पर स्थापित हो गए। -क्रमशः (हिफी)

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