अध्यात्म

(महासमर की महागाथा-08) रोग, जीवन और मृत्यु

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)
कहते हैं, एक बुढ़िया ने कई ऊँटों पर लदे रूई से भरे हुए बोरे देखे। उसको यह चिंता लगी कि इतनी रूई कौन कातेगा ? इसी चिंता में वह पागल हो गई। किसी भी इलाज से उसकी बीमारी दूर नहीं हुई। अंत में एक अनुभवी हकीम ने बीमारी का कारण मालूम करके उसके कानों तक यह खबर पहुँचाई कि रूई के उन बोरों में आग लग गई है। बुढ़िया ने आश्चर्य से पूछा, क्या वे सभी जल गए हैं? बस, इसके साथ ही उसके होश-हवास फिर से ठीक हो गए।
थोड़ा विचार करने पर मालूम होता है कि ये बीमारियाँ और मौत भलाई के वैसे ही नमूने हैं जैसे बुराई के । रोग वास्तव में क्या है ? यह हमारी शारीरिक भूलों का सुधार होता है। उदाहरणार्थ- जब हमें कै या उलटी आती है तब उसका अर्थ यह होता है कि हमने कोई ऐसी चीज खा ली है, जिसे हमारा आमाशय अपने अंदर से निकालने का यत्न कर रहा है। जब किसी घाव में पीब पड़ जाती है, तब वह एक प्रकार से हमारे खून के संघर्ष का परिणाम होता है क्योंकि वह अपने अंदर से उस गंदे माद्दे को बाहर निकालना चाहता है, जो हम प्रायः अपनी गलती से अंदर दाखिल कर लेते हैं। इसी प्रकार कई बार ऐसा होता है कि हम गले के अंदर थोड़ी सी खिचखिच, जो प्रायः जरा गरम-सर्द होने से पैदा हो जाती है, को खिचखिच न समझकर अपने अंदर बलगम का आधिक्य समझते हैं और वर्षों तक हर सुबह कफ को बाहर निकालने की कोशिश करते रहते हैं।
उपर्युक्त बातों का आशय यह कि हमारी अपनी आदतें और गलतियाँ ही प्रायः हमारी बीमारियों का कारण होती हैं।
हम अपने इर्द-गिर्द गंदगी रखकर एक विशेष प्रकार का मच्छर पैदा कर लेते हैं, जो हमें काटता है। उससे मलेरिया बुखार शुरू हो जाता है। इस प्रकार अपनी बीमारी का कारण हम खुद पैदा करते हैं परंतु उससे अपनी रक्षा नहीं करते। बीमारियाँ प्रायः हमारी शारीरिक और नैतिक गंदगी से पैदा होती छूत हैं। जब कोई मनुष्य इस प्रकार के रोग में फँस जाय, तब यह उसके लिए चेतावनी है कि अपनी गंदगी से समाज के अन्य लोगों को दुःख में न फँसाए और न संतान उत्पन्न करके उनके लिए दुःख का कारण बने।
महामारियाँ भी इसी प्रकार समाज की सामूहिक गंदगी और गिरावट का परिणाम होती हैं। जिन देशों में लोग अपने मकान साफ और हवादार रखते हैं तथा अपना भोजन स्वच्छ रखते हैं, उनमें इन बीमारियों का कहीं नामोनिशान भी नहीं मिलता। यद्यपि संक्रामक रोगों का आरंभ किसी विशेष मनुष्य या स्थान में गंदगी या जहरीले कीटाणुओं के जमा हो जाने से होता है, तथापि वह समाज पहले से ही इस जहर से प्रभावित होने के योग्य बना हुआ होता है।
सामाजिक पापों के विषय में एक विचित्र कानून काम करता है। यदि समाज का एक सदस्य कोई सामाजिक पाप करे तो उसकी सजा उस व्यक्ति तक ही सीमित नहीं रहती, बल्कि उसका असर समस्त समाज के लिए घातक सिद्ध होता है क्योंकि प्रकृति समस्त समाज को भी एक ही शरीरी या सामूहिक अवस्था में एक ही शरीर समझती है। समाज के सिर पर यह बड़ा भारी पाप होता है कि उसने अपने एक अंग या अवयव को इतना गंदा तथा गुमराह रहने दिया।
सामाजिक नियम यह है कि मनुष्य अकेला या कुछ मनुष्य मिलकर शेष सारे समाज को पीछे छोड़ स्वयं उन्नति नहीं कर सकते। जहाँ पर जिस मनुष्य में आगे बढ़ने की इच्छा हो, वहाँ पर उसके लिए आवश्यक है कि समाज के बाकी हिस्सों को भी वह अपने साथ ले। इस प्रकार समाज की भलाई में व्यक्तियों की अपनी-अपनी भलाई पाई जाती है। यह कैसी फिजूल बात है कि हम खुद ही भूलें करके अपने अंदर बीमारियाँ पैदा करें, फिर उन्हें दूर करने के लिए हर मौके पर ईश्वर को बुलाते फिरें ।
एक अन्य दृष्टि से देखने पर मालूम होता है कि जीवन और मृत्यु की एक दूसरे से अलग पहचान नहीं की जा सकती। यदि संसार में मृत्यु का अस्तित्व न होता तो नया जीवन कहाँ से आता? प्रकृति के अंदर केवल परिवर्तन का एक नियम काम करता है, जिससे एक जगह मृत्यु और दूसरी जगह जीवन उत्पन्न होता नजर आता है। बत्ती का जलना उसका जीवन है। बत्ती का जल चुकना ही उसकी मृत्यु है। इसी प्रकार हम भी ज्यों-ज्यों जीवन में बढ़ते हैं त्यों-त्यों मृत्यु के निकट चले जाते हैं।
इसको एक और दृष्टि से देखिए। यदि साधारण प्राणियों के अंदर मौत न हो तो थोड़े समय में ही यह पृथ्वी किसी एक प्रकार के प्राणियों से इतनी भर जाए कि अन्य असंख्य प्रकार के प्राणियों के लिए इस पर कोई स्थान ही न रहे। हाथी संसार में संख्या में सबसे कम उत्पन्न होनेवाला जानवर समझा जाता है। कहते हैं, यह सौ वर्ष से अधिक जीता है। हथिनी छह बरस में केवल एक बच्चा देती है। उम्र भर में एक जोड़े से लगभग दस बच्चे पैदा होते हैं परंतु डारविन ने हिसाब लगाकर देखा है कि अगर हाथी की मृत्यु न होती तो सात सौ चालीस वर्ष के अंदर उसके केवल एक जोड़े से एक करोड़ पचास लाख हाथी पैदा हो जाते। इसी एक उदाहरण से अनुमान लगाया जा सकता है कि मृत्यु न होने पर पृथ्वी थोड़े समय के लिए भी जीवन को सँभाल नहीं सकती। जीवन का मूल्य सिर्फ मृत्यु से ही होता है। यदि सृष्टि के आरंभ से आज तक किसी मनुष्य और किसी पशु (क्योंकि यह तो असंभव है कि मनुष्य न मरें और पशु मरते चले जाएँ) की कोई मृत्यु न होती तो आज पृथ्वी के भूभाग का क्या हाल होता? वृद्धावस्था का जीवन कोई पसंद नहीं करता। बचपन में वह रह नहीं सकता क्योंकि हर एक के लिए संतान उत्पन्न करना भी आवश्यक होता है। फिर सबके लिए यौवन कैसे होता? बाप, दादा, परदादा आदि अनेक पीढ़ियों तक सब लोग जवान ही कैसे होंगे ?- यह एक और समस्या है।
कुछ लोगों को भूचाल बहुत ही भयानक मालूम होते हैं परंतु वे यह भी भूल जाते हैं कि वही कारण, जो इस पृथ्वी को विभिन्न वस्तुएँ उत्पन्न करने के योग्य बनाता है, भूचाल भी पैदा करता है। आरंभ में पृथ्वी आग के गोले के समान थी। समय गुजरने पर ज्यों-ज्यों उसमें गरमी कम होती गई, त्यों-त्यों उसके ऊपर जीवन उत्पन्न होता गया। अब भी पृथ्वी की आंतरिक आग के गोले की गरमी दिन-प्रतिदिन कम हो रही है। इससे पृथ्वी पर कहीं-न-कहीं भूचाल आता है। भूचाल अधिकतर ज्वालामुखी पहाड़ों के निकट आते हैं। अब ज्वालामुखी का अस्तित्व मनुष्यों के लिए पर्याप्त चेतावनी है कि वे इनसे बचकर रहें। यदि कोई मनुष्य जान-बूझकर आग में पड़ना चाहे तो ईश्वर उसको बचा नहींसकता।-क्रमशः (हिफी)

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button