(महासमर की महागाथा-09) योग दर्शन के तत्व हैं- प्रकृति, आत्मा और ब्रह्म

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)
नैतिक संसार की भी यही हालत है। फलतः राग-द्वेष साथ-साथ चलते हैं। किसी एक से प्रेम करने का अर्थ दूसरों से द्वेष रखना है। जो मनुष्य अपने बच्चों को ही प्यार करता है, वह दूसरों के बच्चों को उनके बराबर कभी नहीं समझ सकता। जिन जातियों में देशभक्ति का भाव बहुत ज्यादा होता है, उनके लिए दूसरी जातियों से घृणा रखना आवश्यक होता है। उनके अंदर मानव-प्रेम का भाव नहीं उत्पन्न हो सकता।
यही हाल सत्य और असत्य का है। कहा जा सकता है कि जो कुछ दिल में हो, उसे प्रकट करना सत्य है और उसके विरुद्ध असत्य। निस्संदेह यह बात ठीक है परंतु मस्तिष्क की बनावट कुछ ऐसी है कि विभिन्न मनुष्यों के अंदर एक ही बात विभिन्न तरीकों पर प्रकट होती है। एक मनुष्य व्याख्यान देता है। हर एक सुननेवाला अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार समझता, खयाल करता और बखान करता है। एक आदमी जब देश-प्रेम के प्रभाव के अधीन होता है तो उसे सत्य का एक विशेष रूप दिखाई देता है परंतु वह मनुष्य जब भयभीत होता है तब सत्य के रूप को वह बिलकुल बदला हुआ पाता है। अमेरिका के दार्शनिक जेम्ज का दर्शन, जो कृत्यसाधकतावाद के नाम से प्रसिद्ध है, इसी सिद्धांत पर आश्रित है कि निरुपाधिरे तथा शुद्ध सत्य को जानना बेहूदा खयाल है। प्रत्येक व्यक्ति के सत्य का खयाल उसकी मानसिक स्थिति के अनुसार हुआ करता है। जो बात एक मनुष्य को उसकी विशेष अवस्था में संतोष या हर्ष प्रदान कर सकती है, वही उसके लिए सत्य है। इस दर्शन के अनुसार इस बात की कुछ परवाह नहीं कि सचमुच कोई ऐसी सत्ता है या नहीं, जिसको जनसाधारण ईश्वर का नाम देते हैं। केवल इतना ही पर्याप्त है क्योंकि ईश्वर का एक विचार उन लोगों को लाभ पहुँचाता है। इसलिए उनके वास्ते वह सत्य का महत्त्व रखता है। भगवद्गीता के अध्याय दो के श्लोक 693 में इसी प्रकार का विचार प्रकट किया गया है, जो अज्ञानी की रात है, वह ज्ञानी का दिन है। मूर्ख के लिए दिन ज्ञानी के लिए रात है।
भगवद्गीता के अध्याय दो के श्लोक 29 में कहा गया है-कुछ लोग उसे आश्चर्य से देखते हैं, कुछ आश्चर्य से कहते हैं और कुछ आश्चर्य से सुनते हैं परंतु यह सबकुछ करते हुए कोई उसे जानता नहीं। छांदोग्य उपनिषद् ने बड़े सुंदर ढंग से यह रहस्य खोला, यह सब किसके सहारे है? इसे क्रमशः हल करने का प्रयत्न किया गया है। अध्याय एक में उल्लेख आता है कि सूर्य के प्रकाश से प्राणियों का जीवन चलता है और चाँद के प्रकाश से वनस्पतियों का। इस कारण शायद सूर्य और चाँद के सहारे ही यह सारा जगत् चलता है।
सत्यकाम जब ज्ञान की खोज में एक ऋषि के पास जाता है तो उसे बड़े लंबे-चौड़े दृष्टांत देकर ऋषि बतलाते हैं-शायद यह अग्नि ही ब्रह्म है जो सब कुछ हजम करती है। आगे चलकर कहा गया है-शायद यह प्राण ही है जो सबको जलाता है इसलिए प्राण ही ब्रह्म है।
श्वेतकेतु के विद्या समाप्त करने पर उसके पिता ने पूछा, जिस प्रकार मुट्ठी भर मिट्टी से सारी पृथ्वी का ज्ञान हो जाता है उस प्रकार कौन सा एक तत्त्व है जिसके जानने से यह सब जाना जाता है? जब श्वेतकेतु को इसका उत्तर समझ में नहीं आया, तब उद्दालक ने उसे समझाने के लिए कुछ देर प्यासा रखकर बताया-
यह पानी ही जीवन का सहारा है यही ब्रह्म है। फिर कुछ देर के लिए भूखा रखकर बताया, यह अन्न ही जीवन का सहारा है इसलिए यही ब्रह्म है। जब इससे भी ठीक-ठीक समझ में नहीं आया तब नमक और पानी के दृष्टांत से समझाया- जैसे यह नमक पानी के अंदर घुला हुआ है, परंतु दिखलाई नहीं देता वैसे ही वह तत्त्व सबके अंदर है, परंतु दिखलाई नहीं देता।
आगे चलकर सनत्कुमार से नारद मुनि ने ब्रह्म को जानने की इच्छा प्रकट की। उसने बताया- वेद, अग्नि, सूर्य आदि सब उस एक ब्रह्म ही के चिह्न हैं। इन सबके द्वारा उसका ध्यान करो।
अंत में प्रजापति ने इंद्र को बतलाया- मन, प्राण, वाणी- सबसे परे वह ब्रह्म है। उस ब्रह्म को भूमा कहते हैं क्योंकि सबकुछ उसके सहारे पर है, वह किसी के सहारे नहीं है ।
न्याय और योग दर्शन तीन अंतिम तत्त्वों को स्वीकार करते हैं – प्रकृति, आत्मा और ब्रह्म । प्रकृति जड़ रूप है। जीवात्मा अल्पज्ञ है, पुण्य-पाप करनेवाला और फल भोगनेवाला है। ब्रह्म सर्वज्ञ है, इन सबको रचनेवाला और चलानेवाला है। सांख्य दर्शन प्रकृति और पुरुष – दो अंतिम तत्त्वों को ही पर्याप्त समझता है, जिनके पारस्परिक मेल से यह सारा संसार चल रहा है। सांख्य को ब्रह्म पर बड़ी आपत्ति यह है कि वह इस संसार को क्यों बनाता है? अपनी इच्छा से या मजबूर होकर ? यदि अपनी इच्छा से ऐसा करता है तो उसे क्या आवश्यकता थी? और यदि विवश होकर ऐसा करता है तो वह परमात्मा ही नहीं रहता क्योंकि तब उसे विवश करनेवाली कोई और शक्ति है।
वेदांत दर्शन प्रकृति और पुरुष की जगह केवल एक ही तत्त्व बतलाता है। वह है ब्रह्म। प्रकृति ब्रह्म की शक्ति की अभिव्यक्ति का नाम है।
बौद्ध दर्शन में इस सिद्धांत के संबंध में तीन मत पाए जाते हैं-क्षणिकवाद, विज्ञानवाद ’ और शून्यवाद। क्षणिकवाद के अनुसार यह संसार केवल परिवर्तन का नाम है। हर एक चीज प्रतिक्षण बदलती रहती है कोई भी वस्तु स्थिर नहीं रहती।
इसका एक दृष्टांत नदी है। पानी की लहर और मिट्टी के किनारे को नदी कहते हैं ये लहर और किनारा क्षण-क्षण में बदलते रहते हैं। इसीलिए परिवर्तन के प्रकट रूप को ही नदी का नाम दिया जाता है। इसी प्रकार दीये की लौ है, जिसमें प्रतिक्षण बत्ती और तेल बदलते रहते हैं। संसार का एक और उदाहरण अग्निचक्र है, जिसमें लकड़ी के दोनों सिरों में आग लगाकर उसे जोर से घुमाने पर अग्नि का एक चक्कर-सा बन जाता है।
विज्ञानवाद सारे बाह्य संसार को मन या कल्पना की उपज मानता है। (स्कॉटलैंड के बक्लें और हाम का मत विज्ञानवाद से मिलता है ) इसके अनुसार, जो कुछ हम जानते हैं, वे इंद्रियों के द्वारा मन पर पड़े हुए संस्कार हैं। उदाहरणार्थ- एक मेज का ज्ञान हमारे लिए उसके रंग, ऊँचाई, सख्ती, नरमी आदि से सीमित है। यह हमें छूने और देखने से प्राप्त होती है। वास्तव में मेज क्या है, यह हम नहीं जानते। इसी प्रकार सारा संसार उन संस्कारों का संग्रह कहा जा सकता है। संस्कार मन के द्वारा होते हैं। इसलिए यह संसार मन की शक्ति से बना हुआ है।
शून्यवाद का अभिप्राय यह है कि वास्तव में इस संसार का कोई अस्तित्व नहीं है। इसकी कल्पना मन से होती है। मन के न रहने पर कल्पना उड़ जाती है। बस, इससे भिन्न संसार कुछ नहीं है।-क्रमशः (हिफी)