(महासमर की महागाथा-56) धर्म की रक्षा में बलिदान

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)
महाभारत के युद्ध के समय की एक कथा आती है। एक व्यक्ति ब्रुवाहन का उल्लेख आता है, जिसे आज तक टेसू महाराज बनाकर प्रतिवर्ष पूजा जाता है। वह हाथ में धनुष-बाण लिये युद्ध क्षेत्र की ओर जा रहा था। श्रीकृष्ण वेश बदले हुए उसके पास पहुँचे। उन्होंने पूछा, किधर जा रहे हो? जवाब मिला, युद्ध क्षेत्र की ओर। उन्होंने प्रश्न किया, धनुष-बाण क्यों लिये हुए हो?
जब वक्त आएगा तब मैं भी युद्ध में भाग लूँगा।
श्रीकृष्ण ने फिर पूछा, किस पक्ष की ओर से लड़ोगे ?
जो पक्ष कमजोर होकर हारने लगेगा, उसकी सहायता करूँगा। धनुष-बाण से क्या होगा?
इसमें ऐसी शक्ति है कि एक तीर चलाने से वृक्ष के सब पत्तों में छेद हो सकता है।
कृष्ण इससे घबराए। सोचने लगे कि यह तो बहुत शक्तिशाली शत्रु साबित होगा। आखिर उन्होंने एक युक्ति निकाली। उससे बोले, तुम इतने शूरवीर हो, माँगने पर कुछ दान दोगे?
टेसू महाराज बोले, माँगो, क्या माँगते हो?
कृष्ण ने कहा, पहले वचन दो कि जो माँगूँगा वह दोगे।
उन्होंने वचन दे दिया। श्रीकृष्ण ने उनका सिर माँग लिया। टेसू ने आह भरी। कृष्ण बोले, अब क्या प्रतिज्ञा पूरी करने में दुःख हो रहा है? उसने कहा, और तो कोई दुःख नहीं। बस, मैं युद्ध का तमाशा देखना चाहता था, इसलिए कुछ बुरा लगा। अंत में उसका सिर काटकर एक ऊँची जगह रख दिया गया, ताकि युद्ध को देख सके।
दूसरा युग वह है, जब ईसा मसीह से तीन सौ वर्ष पूर्व सिकंदर ने अपनी यूनानी सेना लेकर भारतवर्ष पर आक्रमण किया। एक जगह पर उसने हिंदू योगियों को देखा। उसने उन्हें बुला भेजा। जवाब मिला कि मिलने की कोई आवश्यकता नहीं। सिपाहियों ने तलवारें दिखाकर धमकी दी। वे चुपचाप बैठे रहे। सिकंदर के मन में बहुत तीव्र इच्छा हुई कि वह ज्ञान सिखाने के लिए किसी दार्शनिक को साथ ले जाए। बहुतेरा यत्न किया, कोई साथ जाने के लिए तैयार न होता था। अंत में कालानूस नामक एक व्यक्ति साथ चल पड़ा। ईरान की सीमा पर पहुँचकर उसने सिकंदर से प्रार्थना की कि मेरे लिए चिता तैयार की जाए, मैं इस शरीर को जला देना चाहता हूँ। सिकंदर ने पूछा, क्या बात है ? उसने कहा, मेरी अवस्था अब अस्सी वर्ष से अधिक हो गई। मुझे कभी ज्वर या कोई रोग नहीं हुआ। अब मुझे बुखार आया है, जिससे यह शरीर अपवित्र हो गया है और मैं इसे त्याग देना चाहता हूँ। सिकंदर ने सब प्रकार से यत्न किया और उसे समझाया कि अपना विचार बदल दे। परंतु जब वह नहीं माना तो चिता तैयार की गई। उसके हाथ में रत्न थे, जिन्हें वह चारों तरफ फेंकता जाता था। वह सीधा जाकर चिता पर चढ़ गया और उसे आग लगा दी।
कई शताब्दियाँ और बीत गईं। वैदिक धर्म को बौद्ध मत ने पीछे हटा दिया। एक राजा की लड़की रो रही थी और कह रही थी, क्या करूँ? किधर जाऊँ ? कौन धर्म की रक्षा करेगा? कुमारिल भट्ट नामक एक ब्राह्मण पास से गुजर रहा था। यह सुनकर वह बोला, हे राजपुत्री ! मत रो। धर्म को क्या डर है, जब कुमारिल भट्ट पृथ्वी पर जीवित है! कुमारिल भट्ट को बौद्धों के विरुद्ध कार्य करना था। वह उनके विद्यालय में दाखिल हो गए और उनके मत का अच्छी प्रकार अध्ययन किया। उसके पश्चात् उन्होंने अपना जीवन उनके मजहब के खंडन और वेद की रक्षा में लगा दिया। आचार्य कुमारिल भट्ट और शंकराचार्य दो बड़े नाम हैं, जिनके विषय में कहा जाता है कि उनके विद्याबल और प्रचार के द्वारा बौद्ध मत इस देश से एक प्रकार से निकाल दिया गया। आचार्य कुमारिल भट्ट के मन में सदा एक बात का दुःख रहता था कि उन्होंने बौद्धों को गुरु बनाकर एक प्रकार का धोखा किया। अपनी आत्मा के इस धब्बे को धोने के लिए वे प्रायश्चित्त करना चाहते थे। अपना कार्य पूर्ण करने के बाद उन्होंने यह निश्चय किया कि धान के भूसे में जलकर प्राण दे दें। चावल के छिलके एकत्र किए, ढेर में बैठकर आग लगा दी। इस प्रकार उन्होंने शरीर को जला दिया, ताकि आत्मा पर धब्बा न रहे।
और शताब्दियाँ बीत गईं। औरंगजेब का समय आया। हिंदू लोग अन्याय से तंग आ गए। कश्मीर के ब्राह्मणों पर अत्याचार और अन्याय की सीमा न रही। वे गुरु तेग बहादुर के पास सहायता के लिए गए। धन्य हैं वे परिवार, जिन्होंने सभी कष्ट झेले, किंतु सारा कश्मीर मुसलमान हो जाने के बावजूद यज्ञोपवीत और टीके की लाज रखी। गुरुजी ने कहा कि किसी महापुरुष के बलिदान से यह अन्याय दूर होगा। तेगबहादुर बोले-
बंधन पड़े और बल गयो कछु न होत उपाय।
कहो नानक अब ओट हर तुम ही हो सहाय।
इस पर गुरु गोविंद सिंह बोल उठे-
बंधन टूटे और बल हो यह सब ही होत उपाय।
सब कुछ तुमरे हाथ हैं तुम ही हो सहाय।
बादशाह के पास सूचना पहुँची कि एक गुरु को मुसलमान बना लेने से सब हिंदू मुसलमान हो जाएँगे। बादशाह ने गुरु को बुलवा भेजा। गुरु तेगबहादुर पहले ही उधर चल पड़े थे। लगभग पाँच सौ शिष्य (सिख) उनके साथ थे। कुछ दूर जाकर उन्होंने सबको लौटा दिया, केवल पाँच-सात रह गए। वे आगरा में पकड़े गए और दिल्ली में कैद कर दिए गए। उनके साथ एक ब्राह्मण भाई मतिदास थे। उनके पूर्वज बाबा परागा गुरु हरिगोविंद की सेना में जत्थेदार थे। बादशाह ने काजी लोग गुरु के पास भेजे। वे गुरु से प्रश्न करते थे, जिस पर मतिदास को कुछ जोश सा आ गया। उसने गुरु से कहा, यदि आप आज्ञा दें तो एक क्षण में बादशाही का नाश कर दूँ! यह खबर बादशाह के पास पहुँची। बादशाह ने हुक्म दिया कि उस व्यक्ति के सिर पर आरा रखकर चीर दिया जाए। सिर पर आरा रखा गया। धीरे-धीरे शरीर के दो टुकड़े होने लगे। दोनों भागों से ब्रह्म नाम की आवाज निकलती थी। उनकी आत्मा ब्रह्म में लीन हो गई। उनके लिए राजपाट की शोभा क्षण भर में नष्ट हो गई। यह एक ब्राह्मण था, जिसका दिल्ली नगर में सबसे पहला बलिदान हुआ।-समाप्त (हिफी)