वैश्विक उष्णता दुनिया की सबसे बड़ी समस्या!

(मनोज कुमार अग्रवाल-हिफी फीचर)
वैश्विक उष्णता या ग्लोबल वार्मिंग दुनिया के लिए सबसे चिंता का पहलू होना चाहिए। आप जानते हैं कि पूरी दुनिया काफी तेजी से प्रगति कर रही है, लेकिन कुछ समस्याएं ऐसी हैं जिनका समाधान अगर समय रहते नहीं किया गया, तो धरती पर आने वाले समय में रहना मुश्किल हो जाएगा। मौजूदा समय में पूरी दुनिया जलवायु परिवर्तन को लेकर चिंतित है, क्योंकि ग्लोबल वार्मिंग एक बड़ी समस्या बनकर उभरी है। कहा जा रहा है कि जल्द ही इसे काबू नहीं किया गया, तो इंसान ही नहीं बहुत सी और प्रजातियों के अस्तित्व के लिए खतरा बन जाएगा। दुनिया भर में बढ़ते तापमान और जर्मनी, कनाडा और ग्रेट ब्रिटेन जैसे देशों में भयावह प्राकृतिक आपदाओं ने पूरी दुनिया को झकझोर कर रख दिया।
हकीकत यह है कि प्रकृति ने अपना विध्वंसक रूप धीरे-धीरे दिखाना शुरू कर दिया है। जलवायु परिवर्तन के चलते कभी सूखे का सामना करना पड़ता है तो कभी बाढ़ का सामना करना पड़ता है। गर्मी साल दर साल बढ़घ्ती ही जा रही है। अब तो देश के कई राज्य सर्दियों में भी गैस चैंबर बन जा रहे हैं। अब नई रिसर्च में पता चला है कि बारिश के दौरान कई शहरों में अम्लीय वर्षा ज्यादा हो रही है। इन शहरों में प्रयागराज, विशाखापत्तनम और असम का मोदनबाड़ी शामिल है। इसी प्रकार थार मरुस्थल से उठने वाली धूल की वजह से जोधपुर, पुणे और श्रीनगर में बारिश का पानी क्षारीय हो रहा है। देश में बढ़ता वायु प्रदूषण बारिश के पानी को अम्लीय (एसिडिक) बनाना निश्चित तौर पर गंभीर खतरे की बात है। एसिड रेन एक तरह की बारिश है जो असामान्य रूप से अम्लीय होती है। इसके होने के पीछे का मुख्य कारण औद्योगिक और जीवाश्म से निकलने वाले सल्फर और नाइट्रोजन के ऑक्साइड और धूल, कण और वायु प्रदूषण होता है। इसमें एसिड की मात्रा ज्यादा होती है। यह बारिश उस समय होती है जब वायुमंडल की शुद्ध हवा में कोई अनावश्यक तत्व आकर मिलते है। इसकी मात्रा अधिक होना एसिड रेन का कारण बनती है। एसिड रेन होने का मुख्य कारण कारखानों की चिमनियों से निकले वाला धुंआ, वाहन में प्रयोग होने वाला डीजल, गाड़ियों से निकलने वाले धुआं आदि में मौजूद सल्फर ऑक्साइड और नाइट्रोजन ऑक्साइड है। इसके अलावा कोयला को जलाने से भी सल्फर गैस निकलती है। ऐसे में जब पहली बारिश होती है तो उसे एसिड रेन माना जाता है। एसिड रेन पौधों के पत्तों को नुकसान पहुंचा सकती है। इसके साथ ही उनके ग्रोइंग पावर को कम करता है।
एसिड रेन नदियों और झीलों में जीवों के जीवन को नुकसान पहुंचा सकती हैं। अम्लीय बारिश के कारण खेत की मिट्टी भी अम्लीय हो जाती है और खेतों में इसका बुरा असर पड़ता है। अम्लीय वर्षा के कारण सतही जल के उपजाऊ शक्ति में कमी आती है और एल्युमीनियम की सांद्रता बढ़ती है। ये कारक जलीय जीवों के जीवन को नुकसान पहुंचाते हैं। पीएच 5 से कम होने पर अधिकांश मछलियों के अंडे फूटने में असमर्थ होते हैं। भारत मौसम विभाग और भारतीय उष्णकटिबंधीय मौसम विज्ञान संस्थान के एक अध्ययन की रिपोर्ट के अनुसार संस्थानों ने 34 साल के अध्ययन के बाद यह निष्कर्ष निकाला है कि देश के कई हिस्सों में वर्षा जल तेजी से अम्लीय हो रहा है। यह स्थिति विशाखापत्तनम (आंध्रप्रदेश), प्रयागराज (उत्तरप्रदेश) और मोदनवाड़ी (असम) जैसे शहरों में ज्यादा चिंताजनक है। अगर समय रहते प्रदूषण पर नियंत्रण नहीं किया गया, तो इसके दूरगामी प्रभाव सामने आ सकते हैं।
1987 से 2021 के बीच देश के 10 ग्लोबल एटमॉस्फियर बाँध स्टेशनों (श्रीनगर, जोधपुर, प्रयागराज, मोहनवाड़ी, पुणे, नागपुर, विशाखापत्तनम, कोडाईकनाल, मिनिकॉय और पोर्ट ब्लेयर) पर यह
अध्ययन किया गया। इन जगहों पर बारिश के पानी में रसायनों की मात्रा और पीएच स्तर की निगरानी की गई। वर्षा जल का सामान्य पीएच (पीएच) स्तर लगभग 5.6 होता है। बारिश का पानी वायुमंडलीय कार्बन डाइऑक्साइड के कारण स्वाभाविक रूप से थोड़ा अम्लीय होता है लेकिन, जब यह स्तर 5.65 से नीचे चला जाए, तो इसे अम्लीय वर्षा माना जाता है। अध्ययन के अनुसार, पिछले तीन दशकों में कई शहरों में वर्षा जल का पीएच लगातार गिरता जा रहा है, जो पर्यावरण और स्वास्थ्य के लिए खतरे की घंटी है। अध्ययन में पाया गया है कि प्रयागराज में बारिश के दौरान पीएच में हर दशक 0.74 यूनिट की गिरावट दर्ज की गई। पुणे में हर दशक 0.15 यूनिट घटा है। विशाखापत्तनम की अम्लीयता के पीछे तेल रिफाइनरी, उर्वरक संयंत्र और शिपिंग यार्ड से निकलने वाले प्रदूषक माने जा रहे हैं। जोधपुर और श्रीनगर जैसे स्थानों पर आसपास के रेगिस्तानी क्षेत्रों से आने वाली धूल अम्लीय तत्वों को बेअसर करने में सहायक है। देश के 10 प्रमुख शहरों में बारिश के पानी में पीएच लेवल का अध्ययन कर रिपोर्ट तैयार की गयी है। इस अध्ययन में भारतीय उष्णकटिबंधीय मौसम विज्ञान संस्थान के वैज्ञानिक शामिल रहे हैं। वैज्ञानिकों के मुताबिक निगरानी के लिए चिन्हित अधिकांश स्थानों पर पीएच स्तर में काफी गिरावट दर्ज हुई है। यह गिरावट चिंताजनक है। यह स्थिति शहरीकरण और औद्योगिकीकरण की वजह से बनी है। रिसर्च में शामिल वैज्ञानिकों के मुताबिक चाहे अम्लीय बारिश हो या क्षारीय (अल्कलाइन) दोनों ही प्रकार की वर्षा का प्रभाव खतरनाक हो सकता है। इससे जलीय जीवों के साथ ही वनस्पतियों का भी जीवन प्रभावित हो सकता है। वैज्ञानिकों के मुताबिक फिलहाल तो इस एसिड रेन या क्षारीय बारिश से कोई खतरा तो नहीं, लेकिन यह परिस्थिति चिंताजनक जरूर है। बारिश के पानी में पीएच जितना कम होगा, अम्लता उतनी ही अधिक होगी। वैज्ञानिकों ने अपनी रिपोर्ट में बताया है कि 14 के पैमाने में पीएच लेबल की जांच होती है। इसमें सात का पैमाना न्यूट्रल है। इसी से तय किया जाता है कि पानी कितना अम्लीय है और कितना क्षारीय। इस पानी के
अध्ययन के लिए 1987 से 2021 तक ग्लोबल एटमॉस्फियर वाच स्टेशन बनाए गए थे। इन स्टेशनों पर बारिश के पानी का अध्ययन किया गया। इसमें अधिकांश स्थानों पर पीएच लेबल में कमी पाई गई है। इसकी वजह वाहनों और औद्योगिक गतिविधियों को बताया गया है। अम्लीय वर्षा रोकने का एक मात्र उपाय है कि हवा को प्रदूषित होने से रोका जाए। इसके लिए धरती को हराभरा करने की जरूरत है लेकिन देखा जा रहा है कि हमारे जंगलों की कीमत पर बुनियादी ढांचे के निर्माण पर ध्यान केन्द्रित करने वाली राज्य सरकारों का ढुलमुल रवैया पहले से खराब हालात को और बदतर बना रहा है। उत्तर भारत से लेकर दक्षिण भारत तक बड़े पैमाने पर वनों की कटाई हुई है। शोध बताते हैं कि बड़े पैमाने पर वनों की कटाई ने हमारे मानसून पर प्रतिकूल असर डाला है, नतीजतन वर्षा का स्तर कम हो गया है। अगर धरती को बचाना है तो वृक्षारोपण ज्यादा से ज्यादा करना होगा, पहले ही काफी देर हो चुकी है, अगर इंसान अभी भी नहीं संभलता है, तो इसके भयानक परिणाम के लिए तैयार रहना होगा।जानकार लोगों का तो यहां तक मानना है कि यदि उष्णता इसी तरह बढती रही तो पृथ्वी पर जीवन बेहद कठिन स्तर पर पहुंच जाएगा।
मानवीय गतिविधियों, जैसे कि जीवाश्म ईंधन का जलना, वनों की कटाई, और औद्योगिक प्रक्रियाएं, ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को बढ़ाती हैं। कोयला, तेल, और प्राकृतिक गैस जैसे जीवाश्म ईंधन का जलना कार्बन डाइऑक्साइड का सबसे बड़ा स्रोत है। पेड़ कार्बन डाइऑक्साइड को अवशोषित करते हैं, इसलिए वनों की कटाई से वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड का स्तर बढ़ता है। (हिफी)