दुनिया के एक चौथाई बच्चे शिक्षा से वंचित

(मनोज कुमार अग्रवाल-हिफी फीचर)
संयुक्त राष्ट्र संघ की शिक्षा से जुड़ी संस्था यूनेस्को की वैश्विक धरातल पर ताजा रिपोर्ट बताती है कि लगभग 27 करोड़ 20 लाख से अधिक बच्चे शिक्षा के अधिकार से वंचित रह जाते हैं। दुनिया भर में बच्चों-किशोरों-युवाओं की शिक्षा संबंधी यह रिपोर्ट न केवल मनोवैज्ञानिक धरातल पर चैंकाती है, अपितु विश्व के अति गरीब और विकासशील देशों में आज भी करोड़ों बच्चों को समुचित शिक्षा न मिल पाने संबंधी चिन्ताजनक हालात को बयान करती है। एक ओर दुनिया के तमाम देश हथियारों की अंधी दौड़ में शामिल हैं और अपने कुल बजट का बड़ा हिस्सा हथियारों पर खर्च कर देते हैं। दूसरी तरफ वैश्विक स्तर पर, 2023 और 2024 के बीच शिक्षा सहायता में 12 फीसद की गिरावट और 2027 तक 14 फीसद की और कटौती होने के कारण कुल शिक्षा सहायता में 2027 तक एक-चैथाई की गिरावट आने की संभावना है। यह निम्न आय वाले देशों के लिए महत्वपूर्ण है, जहां सहायता सार्वजनिक शिक्षा व्यय का 17 फीसद है और जहां कटौती से शिक्षा बजट आधे हो सकते हैं। इसलिए 2030 तक अपने शिक्षा लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए देशों को प्रति वर्ष लगभग 100 बिलियन डॉलर का वित्तीय घाटा उठाना होगा।
वैश्विक स्तर पर सरकारों, परिवारों और दानदाताओं द्वारा कुल शिक्षा व्यय में लगातार वृद्धि हुई है, लेकिन इससे प्रति बच्चे के आवंटन में कोई उल्लेखनीय वृद्धि नहीं हुई है। चार में से तीन देश दो शिक्षा वित्त मानकों में से किसी को भी प्राप्त नहीं कर पा रहे हैं। इस चिन्ता का आधार इस रिपोर्ट का यह अंश बनता है कि इन आंकड़ों में यूनेस्को की पिछली रिपोर्ट से
2.1 करोड़ वंचित बच्चों की वृद्धि दर्ज की गई है। वृद्धि का यह आंकड़ा गरीब देशों में तो विस्तृत हुआ ही है, अनेक विकासशील देश भी इससे अछूते नहीं रहे हैं। निःसंदेह विकासशील देशों के तौर पर इनमें भारत का नाम भी शुमार है हालांकि भारत संबंधी अलग आंकड़े इस रिपोर्ट में नहीं हैं। इस रिपोर्ट के अनुसार चिन्ता यह भी उपजती है कि विश्व धरातल पर अधिकतर देश शिक्षा संबंधी अपने निर्धारित लक्ष्यों से पिछड़ते जा रहे हैं। इस कारण यह आशंका भी उभरती है कि वर्ष 2025 के अन्त तक शिक्षा से वंचित रहने वाले विश्व भर के बच्चों की संख्या ताजा रिपोर्ट के आंकड़ों से कहीं अधिक हो सकती है।
इतनी बड़ी संख्या में बच्चों के शिक्षा से वंचित रहने के वैसे तो अनेक कारण बताये जा सकते हैं किन्तु वर्तमान में दो बड़े कारण उभर कर सामने आते हैं। इनमें से एक तो यह है कि शिक्षा के प्रचार-प्रसार के दृष्टिगत विकासशील और गरीब देशों में स्कूलों में नये प्रवेशार्थियों की संख्या में 80 लाख से अधिक की वृद्धि हुई है जोकि कुल वृद्धि का 38 प्रतिशत बनती है। मौजूदा व्यवस्था इतनी बड़ी संख्या को सम्भाल पाने में समर्थ नहीं है। शिक्षा के अधिकार से वंचित कुल 27 करोड़ 20 लाख बच्चों में से 11 प्रतिशत अर्थात 7.80 करोड़ प्राइमरी स्कूलों से हैं। सैकेंडरी स्कूल तक के वंचित बच्चों की संख्या 6.40 करोड़ अर्थात कुल संख्या का 15 प्रतिशत और सर्वाधिक संख्या 13 करोड़ यानि 31 प्रतिशत सैकेंडरी से ऊपरी शिक्षा वाले बच्चों की है। स्कूलों में शिक्षा प्राप्त करने हेतु न जा पाने वाले बच्चों की संख्या में वृद्धि का एक और बड़ा कारण अफगानिस्तान और इसके जैसे कुछ अन्य कट्टरपंथी देशों में लड़कियों की शिक्षा प्राप्ति के अधिकार पर लगाया गया प्रतिबन्ध है। ऐसे देशों में लड़कियों की शिक्षा पर भांति-भांति के प्रतिबन्ध लगाये जाने से संयुक्त राष्ट्र संघ संस्था की इस संबंधी रिपोर्ट के आंकड़ों में भारी इजाफा हुआ है।
इस रिपोर्ट के अनुसार वैश्विक धरातल पर बढ़ती जन-आबादी भी स्थितियों की इस भयावहता के लिए जिम्मेदार हो सकती है। संयुक्त राष्ट्र की आबादी संबंधी रिपोर्ट में बताया गया है कि बढ़ी आबादी में 6 से 17 वर्ष तक के बच्चों की संख्या कुल आबादी वृद्धि का 3.1 प्रतिशत अर्थात 4.90 करोड़ है। प्रायः इस आयु को स्कूल जाने वाले बच्चों का आधार रूप माना जाता है। स्कूल शिक्षा से वंचित बच्चों की संख्या में वृद्धि निरन्तर होते जाने का एक और बड़ा कारण विश्व-देशों में हो रहे युद्धों और छिट-पुट लड़ाइयों को भी माना जाता है। इनसे एक ओर जहां देशों में निष्क्रमण और प्रवासन बढ़ता है, वहीं आर्थिक संकट भी होता है। ये दोनों स्थितियां स्कूली उम्र के बच्चों को शिक्षा के अधिकार से बुरी तरह से प्रभावित करती हैं। रिपोर्ट में हालांकि यह संकेत भी प्राप्त होता है कि ये आंकड़े कम दर्ज किए गए हैं, क्योंकि विश्व के अनेक भागों में, भिन्न-भिन्न देशों में बाहरी, आपसी और भीतरी सशस्त्र टकराव चल रहे हैं जिनके कारण भीतर तक जा पाना संयुक्त राष्ट्र संघ जांच दलों के सदस्यों के लिए सम्भव नहीं था। अतः ऐसे देशों के शिक्षा से वंचित बच्चों को शुमार करने से स्वाभाविक रूप से यह संख्या और बढ़ेगी।
हम समझते हैं कि मनुष्य के मौलिक एवं निजी अधिकारों के तौर पर, इतनी बड़ी संख्या में बच्चों का शिक्षा जैसे अत्यावश्यक अधिकार से वंचित रहना बेहद चिन्ताजनक है। भारत जैसे देश में सरकारी स्कूलों के धरातल पर शिक्षा का स्तर न्यून रहना और प्राइवेट तौर पर शिक्षा का अधिकाधिक महंगे होते जाना भी बच्चों को शिक्षा से वंचित करने का बड़ा कारण हो सकता है। विकसित एवं धनाढ्य देशों में प्राइमरी से लेकर सैकेंडरी तक की शिक्षा प्रायः सरकारों की ओर से दिए जाने का प्रावधान है। भारत में बड़ी संख्या में गरीब बच्चे फीस और किताबों का खर्च न उठा पाने के कारण शिक्षा से वंचित रह जाते हैं। सरकारी तौर पर किताबें, स्कूली ड्रेस न मिलने से भी बड़ी संख्या में बच्चे प्राइमरी शिक्षा से आगे नहीं बढ़ पाते। गरीब देशों में बचपन से ही बच्चों के कंधों पर रोटी रोजी कमाने का बोझ आ पड़ने से भी वे शिक्षा ग्रहण करने से वंचित रह जाते हैं।
आपको बता दें कि किसी भी राष्ट्र में खास तौर पर लोकतांत्रिक शासन में शिक्षा किसी भी आदमी का मौलिक अधिकार है। बच्चों को विशेष रूप से शिक्षा आवश्यक तौर पर उपलब्ध कराना सरकारों का कर्तव्य होना चाहिए। भारत जैसे विकासशील देशों की सरकारों का भी यह दायित्व बनता है कि वे सभी बच्चों खास कर गरीब अभिभावकों के बच्चों के लिए शिक्षा प्राप्त करने को सुनिश्चित बनाएं। शिक्षा के मौलिक अधिकार को प्रत्येक जन तक उपलब्ध करा के ही कोई राष्ट्र सभ्यता के धरातल पर सुर्खरू होकर विचरण कर सकता है।
यूनेस्को की रिपोर्ट हर साल शिक्षा की स्थिति पर एक व्यापक दृष्टिकोण प्रस्तुत करती है, जिसमें शिक्षा में असमानता, शिक्षा तक पहुंच, गुणवत्ता और समावेशिता जैसे मुद्दे शामिल हैं. 2024 की रिपोर्ट में, लगभग दस वर्षों में वैश्विक स्तर पर स्कूल न जाने वाली आबादी में केवल 1 फीसद की कमी आई है, और शिक्षा में लगातार कम निवेश, विशेष रूप से कम आय वाले देशों में, इसका एक मुख्य कारण है। यूनेस्को के अनुसार. 2025 तक, 75 मिलियन बच्चों के और स्कूल जाने से वंचित होने की आशंका है।
भारत की स्थिति भी शिक्षा के मामले में विशेष बेहतर नहीं है। बढ़ती जनसंख्या और संसाधनों का भारी अभाव लगातार हमारे शिक्षा तंत्र को ढलान पर ला रहे हैं। विश्व भर में शिक्षा के क्षेत्र में अभी बहुत काम करने की जरूरत है। (हिफी)