अध्यात्म

मंगल को जन्मे, मंगल ही करते (3)

अहिरावण वध के लिए पंचमुखी अवतार

(प्रस्तुति: मोहिता-हिफी फीचर)
मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम के अनन्य भक्त पवन पुत्र हनुमान भगवान शिव के आंशिक अवतार हैं। उनकी माता का नाम अंजनी एवं पिता वानर राज केशरी थे। पवन देव धर्मपिता हैं। इन सभी का स्नेह एव आशीर्वाद पाकर हनुमान जी अजेय योद्धा बने। उनकी बल और बुद्धि की कोई थाह नहीं। माता जानकी ने उनको अजर-अमर होने का आशीर्वाद दिया था। अणिका, महिमा, लधिका, गरिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व और बशित्व नाम की आठो सिद्धियां प्रदान करने की क्षमता हनुमान जी के पास हैं। हनुमान जी जिस पर प्रसन्न हो जाएं उसे पद्म, महा पद्म, नील, मुकुंद, नंद, मकर, कच्छप, शंख और खर्व या मिश्र निधि प्रदान कर सकते हैं। मंगलवार और शनिवार उनकी आराधना के विशेष दिन होते हैं। यहां पर हम क्रम से उनके जीवन परिचय को हिफी के सुधी पाठकों के समक्ष प्रस्तुत कर रहे हैं-

हनुमान का पंचमुखी अवतार भी रामायण युद्ध् की ही एक घटना है। अहिरावण जो कि काले जादू का ज्ञाता था, उसने राम और लक्षमण का सोते समय हरण कर लिया और उन्हें विमोहित करके पाताल-लोक में ले गया। उनकी खोज में हनुमान भी पाताललोक पहुँच गये। पाताल-लोक के मुख्यद्वार पर एक युवा प्राणी मकरध्वज पहरा देता था जिसका आधा शरीर मछली का और आधा शरीर वानर का था। मकरध्वज के जन्म की कथा भी बहुत रोचक है। यद्यपि हनुमान ब्रह्मचारी थे मगर मकरध्वज उनका ही पुत्र था। लंका दहन के पश्चात जब हनुमान पूँछ में लगी आग को बुझाने समुद्र में गये तो उनके पसीने की बूंद समुद्र में गिर गई। उस बूंद को एक मछली ने पी लिया और वो गर्भवती हो गई। इस बात का पता तब चला जब उस मछली को अहिरावण की रसोई में लाया गया। मछली के पेट में से जीवित बचे उस विचित्र प्राणी को निकाला गया। अहिरवण ने उसे पाल कर बड़ा किया और उसे पातालपुरी के द्वार का रक्षक बना दिया।
हनुमान इन सभी बातों से अनभिज्ञ थे। यद्यपि मकरध्वज को पता था कि हनुमान उसके पिता हैं मगर वो उन्हें पहचान नहीं पाया क्योंकि उसने पहले कभी उन्हें देखा नहीं था। जब हनुमान ने अपना परिचय दिया तो वो जान गया कि ये मेरे पिता हैं मगर फिर भी उसने हनुमान के साथ युद्ध करने का निश्चय किया क्योंकि पातालपुरी के द्वार की रक्षा करना उसका प्रथम कर्तव्य था। हनुमान ने बड़ी आसानी से उसे अपने आधीन कर लिया और पातालपुरी के मुख्यद्वार पर बाँध दिया। पातालपुरी में प्रवेश करने के पश्चात हनुमान ने पता लगा लिया कि अहिरावण का वध करने के लिए उन्हे पाँच दीपकों को एक साथ बुझाना पड़ेगा। अतः उन्होंने पन्चमुखी अवतार (श्री वराह, श्री नरसिंह, श्री गरुण, श्री हयग्रीव और स्वयं) धारण किया और एक साथ पाँचों दीपकों को बुझाकर अहिरावण का अंत किया। अहिरावण का वध होने के पश्चात हनुमान ने प्रभु श्रीराम के आदेशानुसार मकरध्वज को पातालपुरी का नरेश बना दिया।
युद्ध समाप्त होने के साथ ही श्रीराम का चैद्ह वर्ष का वनवास भी समाप्त हो चला था। तभी श्रीराम को स्मरण हुआ कि यदि वो वनवास समाप्त होने के साथ ही अयोध्या नहीं पहुंचे तो भरत अपने प्राण त्याग देंगे। साथ ही उनको इस बात का भी आभास हुआ कि उन्हें वहाँ वापस जाने में अंतिम दिन से थोड़ा विलम्ब हो जायेगा, इस बात को सोचकर श्रीराम चिंतित थे मगर हनुमान ने अयोध्या जाकर श्रीराम के आने की जानकारी दी और भरत के प्राण बचाकर श्रीराम को चिंता मुक्त किया।
अयोध्या में राज्याभिषेक होने के बाद प्रभु श्रीराम ने उन सभी को सम्मानित करने का निर्णय लिया जिन्होंने लंका युद्ध में रावण को पराजित करने में उनकी सहायता की थी। उनकी सभा में एक भव्य समारोह का आयोजन किया गया जिसमें पूरी वानर सेना को उपहार देकर सम्मानित किया गया। हनुमान को भी उपहार लेने के लिये बुलाया गया, हनुमान मंच पर गये मगर उन्हें उपहार की कोई जिज्ञासा नहीं थी। हनुमान को ऊपर आता देखकर भावना से भरकर श्रीराम ने उन्हें गले लगा लिया और कहा कि हनुमान ने अपनी निश्छल सेवा और पराक्रम से जो योगदान दिया है उसके बदले में ऐसा कोई उपहार नहीं है जो उनको दिया जा सके। मगर अनुराग स्वरूप माता सीता ने अपना एक मोतियों का हार उन्हें भेंट किया। उपहार लेने के उपरांत हनुमान माला के एक-एक मोती को तोड़कर देखने लगे, ये देखकर सभा में उपस्थित सदस्यों ने उनसे इसका कारण पूछा तो हनुमान ने कहा कि वो ये देख रहे हैं मोतियों के अन्दर उनके प्रभु श्रीराम और माता सीता हैं कि नहीं, क्योंकि यदि वो इनमें नहीं हैं तो इस हार का उनके लिये कोई मूल्य नहीं है। ये सुनकर कुछ लोगों ने कहा कि हनुमान के मन में प्रभु श्रीराम और माता सीता के लिए उतना प्रेम नहीं है जितना कि उन्हें लगता है। इतना सुनते ही हनुमान ने अपनी छाती चीर के लोगों को दिखाई और सभी ये देखकर स्तब्ध रह गये कि वास्तव में उनके हृदय में प्रभु श्रीराम और माता सीता की छवि विद्यमान थी।
हनुमद रामायण: ऐसा माना जाता है कि प्रभु श्रीराम की रावण के ऊपर विजय प्राप्त करने के पश्चात ईश्वर की आराधना के लिए हनुमान हिमालय पर चले गये थे। वहाँ जाकर उन्होंने पर्वत शिलाओं पर अपने नाखून से रामायण की रचना की जिसमे उन्होंने प्रभु श्रीराम के प्रमुख कार्यों का उल्लेख किया था। कुछ समयोपरांत जब महर्षि वाल्मिकी हनुमानजी को अपने द्वारा रची गई रामायण दिखाने पहुँचे तो उन्होंने हनुमानजी द्वारा रचित रामायण भी देखी। उसे देखकर वाल्मिकी निराश हो गये तो हनुमान ने उनसे उनकी निराशा का कारण पूछा। महर्षि बोले कि उन्होने कठोर परिश्रम के पश्चात जो रामायण रची है वो हनुमान की रचना के समक्ष कुछ भी नहीं है अतः आने वाले समय में उनकी रचना उपेक्षित रह जायेगी। ये सुनकर हनुमान ने रामायण रचित पर्वत शिला को एक कन्धे पर उठाया और दूसरे कन्धे पर महर्षि वाल्मिकी को बिठा कर समुद्र के पास गये और स्वयं द्वारा की गई रचना को राम को समर्पित करते हुए समुद्र में समा दिया। तभी से हनुमान द्वारा रची गई हनुमद रामायण उपलब्ध नहीं है।
तदुपरांत महर्षि वाल्मिकी ने कहा कि तुम धन्य हो हनुमान, तुम्हारे जैसा कोइ दूसरा नहीं है और साथ ही उन्होंने ये भी कहा कि वो हनुमान की महिमा का गुणगान करने के लिये एक जन्म और लेंगे। इस बात को उन्होंने अपनी रचना के अंत में कहा भी है। माना जाता है कि रामचरितमानस के रचयिता कवि तुलसी दास कोई और नहीं बल्कि महर्षि वाल्मिकी का ही दूसरा अवतार थे।
महाकवि तुलसीदास के समय में ही एक पटलिका को समुद्र के किनारे पाया गया जिसे कि एक सार्वजनिक स्थल पर टाँग दिया गया था ताकि विद्यार्थी उस गूढ़लिपि को पढ़कर उसका अर्थ निकाल सकें। माना जाता है कि कालिदास ने उसका अर्थ निकाल लिया था और वो ये भी जान गये थे कि ये पटलिका कोई और नहिं बल्कि हनुमान द्वारा उनके पूर्व जन्म में रची गई हनुमद् रामायण का ही एक अंश है जो कि पर्वत शिला से निकल कर जल के साथ प्रवाहित होके यहाँ तक आ गई है। उस पटलिका को पाकर तुलसीदास ने अपने आपको बहुत भाग्यशाली माना कि उन्हें हनुमद रामायण के श्लोक का एक पद्य प्राप्त हुआ। -क्रमशः (हिफी)
(सोशल मीडिया से साभार)

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