लेखक की कलम

राज्यों के बार्डर मिनिस्टर

(अशोक त्रिपाठी-हिफी फीचर)
देश की सीमा की रखवाली करने के लिए सेना और सीमा सुरक्षा बल होता है। इसके अलावा अब राज्य भी बार्डर मिनिस्टर तैनात करने लगे हैं। पहले महाराष्ट्र ने राज्य में बार्डर मंत्री की नियुक्ति की थी और कर्नाटक ने बार्डर का मिनिस्टर बनाया है। फिलहाल अभी सिर्फ दो राज्य हैं जहां इस प्रकार की नियुक्ति की गयी है। यह मिनिस्टर देश की सीमा की रक्षा के लिए नहीं बनाये गये हैं बल्कि भाषा की सीमा के संदर्भ में इनकी तैनाती हुई है। केन्द्र सरकार की नयी शिक्षा नीति में त्रिभाषा फार्मूला विवाद का कारण बन गया है। महाराष्ट्र मंे मुख्यमंत्री देवेन्द्र फडणवीस ने जिस तरह से यूटर्न लिया और अपना पूर्व का हिन्दी संबंधी आदेश वापस लिया, उससे भाजपा असमंजस मंे पड़ गयी है। उधर, फडणवीस ने उद्धव ठाकरे और राजठाकरे के मिलने में बाधा डालने की जो कोशिश की थी, वो भी व्यर्थ गयी है। अब बार्डर मिनिस्टर एक नये विवाद को लेकर आये हैं। महाराष्ट्र और कर्नाटक में भाषा के चलते ही सीमा विवाद भी है। कर्नाटक के बेलगाम में भाषा को लेकर ही दोनों राज्यों के बीच संघर्ष है। यहां के लोग कन्नड़ और मराठी दोनों भाषाएं बोलते हैं। यहां हिन्दी, उर्दू व अंग्रेजी भी बोली जाती है।
कुछ वक्त पहले महाराष्ट्र सरकार ने राज्य में बॉर्डर मिनिस्टर की नियुक्ति की थी। अब कर्नाटक सरकार ने भी अपने बॉर्डर मंत्री का ऐलान कर दिया है। कानून मंत्री एचपी पाटिल को इस मंत्रालय की जिम्मेदारी दी गई है। देश में केवल ये दो राज्य ही हैं जहां बॉर्डर मिनिस्टर हैं। अब बड़ा सवाल यह है कि अगर अंतरराष्ट्रीय सीमाओं की निगरानी और देख रेख के लिए केंद्र इस तरह के मंत्रालय का गठन करे तो बात समझ में आती है लेकिन आखिर राज्यों को बॉर्डर मंत्री नियुक्त करने की क्या जरूरत है। दरअसल, साल 1957 में भाषा के आधार पर राज्यों का गठन किया गया था। तब महाराष्ट्र और कर्नाटक राज्य अस्तित्व में आए। तभी से ही दोनों राज्यों के बीच बेलागावी को लेकर विवाद चल रहा है। यह वो क्षेत्र है जो मौजूदा वक्त में कर्नाटक के पास है लेकिन महाराष्ट्र इस पर अपना दावा पेश करता रहा है। यह मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच चुका है। इस क्षेत्र के मराठी भाषी होने के कारण महाराष्ट्र इसे अपने प्रदेश का हिस्सा बनाना चाहता है। सीएम देवेंद्र फडणवीस के नेतृत्व में महाराष्ट्र एकीकरण समिति का गठन किया गया था, जिसमें दोनों डिप्टी सीएम से लेकर विपक्ष के नेता भी शामिल हैं। इस समिति का मकसद बेलागावी को महाराष्ट्र का हिस्सा बनाने के लिए संघर्ष करना है। इसी विवाद के मद्देनजर महाराष्ट्र के बाद अब कर्नाटक ने बॉर्डर मिनिस्टर नियुक्त किया है। देश के संविधान में स्टेट बॉर्डर मिनिस्टर की भूमिका और पावर परिभाषित नहीं है। मोटे तौर पर स्टेट बॉर्डर मिनिस्टर की जिम्मेदारी सुप्रीम कोर्ट या अन्य न्यायाधिकरणों में राज्य की कानूनी टीम के साथ सहयोग करना है। महाराष्ट्र में इस मिनिस्टर की भूमिका बेलगावी में एकीकरा समिति जैसे संगठनों से लगातार संवाद करना। विवादित सीमावर्ती गांवों का दौरा करना, लोगों की शिकायतें सुनना, वहां राहत पहुंचाना, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे क्षेत्रों में बुनियादी नागरिक सेवाएं सुनिश्चित करना शामिल है। इसके अलावा यह मंत्रालय राज्य और केंद्र सरकार के बीच समन्वय स्थापित करेगा। मंत्री जी केंद्रीय गृह मंत्रालय के साथ सीमा विवाद पर बातचीत करेंगे और सीएम-स्तरीय बैठकें आयोजित कर सकते हैं। अनिवार्य रूप से वो राज्य की सीमा नीति के राजनीतिक प्रशासनिक चेहरे के रूप में कार्य करेंगे। देश में हिन्दी को तीसरी भाषा के रूप में केंद्र सरकार जगह दिलाना चाहती है लेकिन तमिलनाडु के बाद महाराष्ट्र में भी इसे लेकर सियासत गरमा गई है। आलम यह है कि महाराष्ट्र के सीएम देवेंद्र फडणवीस इस वक्त बैकफुट पर नजर आ रहे हैं। बीजेपी सियासी भंवर में फंसती दिख रही है। महायुति गठबंधन में बीजेपी के साथी अजित पवार और एकनाथ शिंदे ने भी सीएम का साथ छोड़ दिया था। जमीन खिसकती देख सीएम को अपना फैसला वापस लेना पड़ा। एक तरफ शिवसेना यूबीअी चीफ उद्धव ठाकरे मराठी अस्मिता के मुद्दे पर सरकार के खिलाफ मोर्चा खोले बैठे हैं। वहीं, दूसरी तरफ एमएनएस प्रमुख राज ठाकरे ने भी मोर्चा खोला हुआ है। दोनों भाई सरकार को घेरने के लिए एक साथ आ गये।
देवेंद्र फडणवीस की सरकार ने इसी साल अप्रैल में केंद्र सरकारी की पॉलिसी को महाराष्ट्र में लागू कर दिया था। सरकारी आदेश में कहा गया कि स्कूलों में पहली से पांचवीं क्लास तक हिंदी को जगह दी जाएगी। इसे स्कूली शिक्षा में तीसरी भाषा के रूप में स्थान दिया गया है। उद्धव ठाकरे और राज ठाकरे इसका विरोध कर रहे हैं। एक तरफ उद्धव ठाकरे की शिवसेना इसे भाषाई आपातकाल बता रही है। वहीं, चचेरे भाई राज ठाकरे भी इस मुद्दे पर बड़ा आंदोलन चलाने की बात कह चुके हैं। राज का कहना है कि मराठी भाषी महाराष्ट्र में वो हिन्दी थोपने की इजाजत नहीं देंगे। मराठी अस्मिता के मुद्दे पर लीपापोती करने के लिए सरकार की तरफ से डॉ. नरेंद्र जाधव की अध्यक्षता में नई समिति का गठन किया गया है, जो इस मुद्दे पर अपनी रिपोर्ट सौंपेगी।
भारत एक अत्यंत विविधतापूर्ण देश है, जहाँ सैकड़ों भाषाएँ, बोलियाँ, संस्कृतियाँ और परंपराएँ सह-अस्तित्व में हैं। इसकी अनूठी पहचान इसकी भाषाई और सांस्कृतिक बहुलता से जुड़ी हुई है। भारत में न केवल 22 आधिकारिक रूप से मान्यता प्राप्त भाषाएँ हैं, बल्कि 1,600 से अधिक स्थानीय बोलियाँ भी प्रचलित हैं। प्रत्येक क्षेत्र की अपनी विशिष्ट सांस्कृतिक धरोहर, पारंपरिक रीति-रिवाज और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि है, जो इसे अन्य क्षेत्रों से अलग बनाती हैं। इतनी अधिक भाषाई और सांस्कृतिक विविधता के कारण, प्रशासनिक और राजनीतिक चुनौतियाँ उत्पन्न होती थीं। स्वतंत्रता के बाद, भारत को एक सशक्त राष्ट्र बनाने के लिए एक संगठित प्रशासनिक ढांचे की आवश्यकता थी, जो देश की विविधता को स्वीकार करते हुए भी राष्ट्रीय एकता को बनाए रख सके। इस संदर्भ में, भारतीय राज्यों का भाषाई आधार पर पुनर्गठन एक महत्वपूर्ण कदम था, जिसने शासन प्रणाली को अधिक प्रभावी और सुचारू बनाया। स्वतंत्रता के बाद भाषाई पहचान के आधार पर राज्यों के पुनर्गठन की मांग तेज हो गई। सबसे महत्वपूर्ण घटना तेलुगु भाषी राज्य की मांग थी, जिसने पूरे देश में भाषाई पुनर्गठन की दिशा में पहला बड़ा कदम रखा। तेलुगु भाषी लोगों ने एक अलग राज्य की माँग की, जिससे यह सुनिश्चित हो सके कि प्रशासन और शिक्षा उनकी मातृभाषा में हो। इस आंदोलन की प्रमुख घटना पोट्टि श्रीरामुलु का अनशन था, जिन्होंने आंध्र प्रदेश के गठन की माँग को लेकर 1952 में अनशन किया और उनकी मृत्यु के बाद यह आंदोलन और तेज हो गया।
जनता के भारी दबाव और व्यापक विरोध प्रदर्शनों के कारण, 1953 में भारत सरकार ने आंध्र प्रदेश को भारत का पहला भाषाई राज्य घोषित किया, जो विशेष रूप से तेलुगु भाषी लोगों के लिए बनाया गया था। इस कदम ने अन्य भाषाई समूहों को भी प्रोत्साहित किया और धीरे-धीरे पूरे देश में भाषाई राज्यों की माँग बढ़ती गई। पुनर्गठन ने कुछ संघर्षों को कम किया, लेकिन इससे नई तनावपूर्ण स्थितियाँ भी
उत्पन्न हुईं। सीमा विवाद जैसे महाराष्ट्र-कर्नाटक के बीच बेलगाम क्षेत्र को लेकर संघर्ष आज भी जारी है। कुछ राज्यों ने भाषा आधारित आरक्षण नीतियाँ लागू की हैं, जहाँ प्रवासी लोगों की तुलना में स्थानीय भाषा बोलने वालों को नौकरियों और शिक्षा में प्राथमिकता दी जाती है। (हिफी)

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