लेखक की कलम

इतिहास के दुखद पन्ने न पलटे जाएं

(अशोक त्रिपाठी-हिफी फीचर)
इसमंे कोई दो राय नहीं कि जम्मू-कश्मीर आज भारत का अभिन्न अंग है। केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने 5 अगस्त 2019 को वहां के विशेषाधिकार वाले अनुच्छेद 370 को भी निष्प्रभावी कर दिया। अब तो वहां लोकतंत्र पूरी तरह बहाल है और विधानसभा के चुनाव में जनता ने नेशनल कांफ्रेंस को सत्ता सौंपी है। उमर अब्दुल्ला दूसरी बार मुख्यमंत्री बने हैं लेकिन इस बार वह केन्द्रशासित प्रदेश जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री हैं। इसके बावजूद राज्य मंे इतिहास के उन पन्नों को न पलटा जाए जिससे कटुता पैदा हो सकती है। अभी दो महीने पहले ही पहलगाम में जब आतंकी हमला हुआ था, तब उमर अब्दुल्ला ने उसकी जिस तरह से निंदा की थी, उसको देश की आवाज समझा गया था। देश के आजाद होने से पहले रियासतों मंे बहुत कुछ ऐसा हो रहा था जो अच्छा नहीं था। कश्मीर में भी 1931 में विद्रोह उसी की एक कड़ी था जो अच्छा नहीं था। बताया जाता है कि एक डोगरा पुलिस कर्मी द्वारा कुरान के कथित अपमान के विरोध मंे संघर्ष भड़का था। राजा की डोंगरी सेना ने विद्रोह को दबाया था और उसमें 22 लोग मारे गये थे। इस घटना को अब भुला देना ही बेहतर है। मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला 13 जुलाई को उसकी वर्षगांठ मनाने के लिए कब्रिस्तान जा रहे थे लेकिन उनको रोक दिया गया। इससे एक नया विवाद खड़ा हो गया है। यह विवाद आगे न बढ़े तो बेहतर होगा। जम्मू-कश्मीर को पूर्ण राज्य का दर्जा देने की बात चल रही है। इस तरह के विवाद उसमें भी बाधा डाल सकते हैं।
1931 मंे जम्मू-कश्मीर भारत की एक रियासत थी जिस पर डोगरा शासक महाराजा हरि सिंह का शासन था। महाराजा हरि सिंह ने मस्जिदों से अजान देने पर रोक लगा दी थी। इसके खिलाफ एक युवा कश्मीरी अब्दुल कादिर ने आवाज उठाई। उसने डोगरा शासन के खिलाफ भाषण दिया। अब्दुल कादिर को गिरफ्तार कर लिया गया और उस पर देशद्रोह का मुकदमा चला। श्रीनगर की सेंट्रल जेल मंे 13 जुलाई को सुनवाई के दौरान हजारों कश्मीरी अनियंत्रित हो गये। इसलिए तत्कालीन गवर्नर रायजादा त्रिलोकी चंद ने गोली चलाने का आदेश दिया। शेख मोहम्मद अब्दुल्ला जैसे नेता इसी के बाद उभरे थे।
जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला को 13 जुलाई सुबह श्रीनगर स्थित शहीद कब्रिस्तान में प्रवेश करने से रोका गया। साथ ही अब्दुल्ला ने इस मामले में दुर्व्यवहार का भी आरोप लगाया है। अब्दुल्ला 13 जुलाई 1931 को महाराजा हरि सिंह की डोगरा सेना द्वारा मारे गए कश्मीरी प्रदर्शनकारियों को श्रद्धांजलि देने जा रहे थे। पुलिस द्वारा उनके और उनके मंत्रिमंडलीय सहयोगियों के साथ दुर्व्यवहार के वीडियो सुर्खियों में आने के तुरंत बाद अब्दुल्ला ने कहा कि आप जम्मू-कश्मीर के लोगों से कह रहे हैं कि उनकी आवाज मायने नहीं रखती है। उमर अब्दुल्ला ने पिछले साल विधानसभा चुनाव में जबरदस्त जीत दर्ज की थी, जो इस पूर्व राज्य में एक दशक में पहली जीत थी। उन्होंने भाजपा को कश्मीर के लोगों को कम आंकने को लेकर चेतावनी दी और कहा कि आज की कार्रवाई से पता चलता है कि केंद्र सरकार को जम्मू-कश्मीर के लोगों की परवाह नहीं है। इसके साथ ही उमर अब्दुल्ला ने भाजपा पर कश्मीरी लोगों की आवाज को दबाने और एक बेहद क्रूर कार्रवाई करने का आरोप लगाया। साथ ही मुख्यमंत्री ने भाजपा पर मूर्खतापूर्ण और अदूरदर्शी निर्णय का आरोप लगाया।
उन्होंने गुस्से में कहा, आप (भाजपा का जिक्र करते हुए) यह दिखाने की कोशिश कर रहे हैं कि वे (कश्मीर के लोग) शक्तिहीन हैं। तो फिर जो कुछ हुआ उसके लिए हमें दोष मत दीजिए। अगर उन्होंने हमें चुपचाप नमाज पढ़ने के लिए जाने दिया होता तो यह कोई मुद्दा ही नहीं होता।
जम्मू-कश्मीर में 13 जुलाई को शहीद दिवस के रूप में मनाया जाता है। इस दिन 1931 में श्रीनगर केंद्रीय जेल के बाहर डोगरा सेना की गोलीबारी में 22 लोग मारे गए थे। उपराज्यपाल प्रशासन ने 2020 में इस दिन को राजपत्रित अवकाश की सूची से हटा दिया था। इसके बावजूद 13 जनवरी को शहीद दिवस मनाया गया। अलगाववादियों की ओर से बंद बुलाया गया। हालांकि अलगाववादियों का अमरनाथ यात्रा से कोई ताल्लुकात नहीं था पर एहतियात के तौर पर राज्य सरकार की ओर से एक दिन के लिए अमरनाथ यात्रा को स्थगित कर दिया गया।
1931 में डोगरा राजवंश के तत्कालीन महाराजा हरि सिंह के खिलाफ अफगान के रहने अब्दुल कादिर नामक शख्स की ओर से आवाज उठाई गई। एक जनसभा के बीच अब्दुल कादिर ने भाषण दिया, जिसमें उन्होंने महाराजा की ओर से राज्य की मुस्लिम आबादी के प्रति भेदभावपूर्ण व्यवहार के बारे में बातचीत की थी। महाराजा की खिलाफत करने की वजह से अब्दुल को बंदी बना लिया गया। अब्दुल कादिर को अदालत में पेश किया जाना था, लेकिन जनता के बढ़ते आक्रोश को देखकर श्रीनगर स्टेट जेल में ही अदालत बनाई गई और 13 जुलाई 1931 को अब्दुल कादिर के समर्थन में मुस्लिम समुदाय के लोग श्रीनगर स्टेट जेल की ओर आए और जेल के बाहर प्रदर्शन करने लगे। कश्मीरी मुसलमानों ने अब्दुल कादिर को रिहा करने की मांग की। महाराजा के सैनिकों की ओर से इन्हें रोका गया। इस पर आक्रोशित भीड़ ने जेल के बाहर तैनात सुरक्षाकर्मियों पर पथराव कर दिया। प्रदर्शन उग्र हुआ तो जेल के बाहर प्रदर्शन कर रहे लोगों पर महाराजा के निर्देश पर गवर्नर रायजादा त्रिलोकचन्द ने रॉयल डोगरा आर्मी को गोलियां चलने का आदेश दिया। इससे 22 प्रदर्शनकारियों की मौत हो गई। कई जगह इस बात का उल्लेख मिलता है कि जब गोलियां चलाई गई तो जुहर की नमाज हो रही थी। एक आदमी अजान के लिए खड़ा हुआ तो उस पर गोली चली। इस तरह 22 लोगों ने अजान को पूरा किया।
1931 में डोगरा महाराजा हरी सिंह की सेना द्वारा श्रीनगर सेंट्रल जेल के बाहर गोलीबारी में मारे गए इन 22 प्रदर्शनकारियों की याद में कश्मीर में 13 जुलाई को शहीदी दिवस मनाया जाता है। वहीं, राज्य सरकार इस दिन को 1947 में आजादी के लिए लड़ने वाले स्वतंत्रता सेनानियों के प्रति सम्मान के तौर पर मनाती है। 1931 से लेकर आज तक कश्मीर में 13 जुलाई को बतौर शहीद दिवस मनाया जाता है। आजादी के बाद से अलगाववादी नेता इस दिन बंद का आह्वान करते हैं जबकि मुख्यधारा के राजनेता शहीदों को श्रद्धांजलि देते हैं।
जम्मू-कश्मीर भारत का मुकुट है पर यह अपने आप में ही छिन्नकृभिन्न सा दिखाई पड़ता है। शहीद दिवस मनाया जाता है, वहीं जम्मू में इसे काला दिन मनाया जाता है। इस बारे में जम्मू के लोगों का यह मानना है कि अब्दुल कादिर एक अफगानी था जिसने कश्मीर के मुस्लिमों को महाराजा के खिलाफ भड़काया था। साथ ही उनका यह भी मानना है इतिहास के इस काले दिन के बाद से ही राज्य की शांति में अनिश्चितकालीन खलल पैदा हुआ और हिंसा की शुरूआत हुई।
राज्य सरकार की ओर से 13 जुलाई राजकीय अवकाश दिया जाता है। उधर, 23 सितंबर 1895 में राज्य के तत्तकालीन महाराजा हरिसिंह का जन्म हुआ था। जम्मू में इस दिन महाराजा की जयंति मनाई जाती है। जम्मू के लोग हरिसिंह की जयंति पर अवकाश की आज तक मांग कर रहे है। सरकार की ओर से इतनी मांग के बावजूद आज तक इस दिन का अवकाश नहीं दिया गया इससे जम्मू के लोगों में रोष है। (हिफी)

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