जलेबी से अधिक खतरनाक है पिज्जा
(मनोज कुमार अग्रवाल-हिफी फीचर)
इस देश को चलाने वाला सरकारी तंत्र एयरकंडीशन दफ्तरों में बैठे सुविधा भोगी अफसरों के दिमाग से चलता है जिनका गांव-गरीब विपन्न अधिसंख्य समाज के वास्तविक जीवन से दूर का भी वास्ता नही है।
सरकार की नजर समोसा जलेबी पर टेड़ी हो गई है लेकिन यदि स्वास्थ्य विशेषज्ञों की सलाह पर ध्यान दें तो समोसा जलेबी से अधिक खतरा पिज्जा बर्गर पेस्ट्री केक मैगी चाउमीन नूडल्स आमलेट और चाइनीज फूड में छिपा है। सरकारी अंग्रेजी दा अधिकारियों की फौज चूंकि केक पेस्ट्री नूडल्स खाकर परवरिश हुई है शायद इस लिए उनके इस्तेमाल के लिए कोई चेतावनी देने की जरूरत नहीं समझ रही है।
आपको पता है कि सिगरेट और शराब को लेकर वैधानिक चेतावनी दी जाती है कि इनका सेवन स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। अब मोदी सरकार समोसे और जलेबी पर भी ऐसी ही चेतावनी जारी करने का फरमान निकाल चुकी है। जल्द ही देश के सभी सरकारी संस्थानों में जल्द ही ऐसे बोर्ड लगाए जाएंगे जो साफ बताएंगे कि आपकी प्लेट में आया समोसे और जलेबी का स्वाद असल में कितना चीनी और तेल लेकर आया है।
स्वास्थ्य मंत्रालय ने सभी सरकारी संस्थानों को कहा है कि कैफेटेरिया और सार्वजनिक जगहों पर ऐसे बोर्ड लगाए जाएं, जो सबसे प्रचलित भारतीय नाश्ते में छिपी चीनी और तेल की मात्रा दिखाएं। इनका मकसद लोगों को यह बताना है कि वे जो कुछ भी खा रहे हैं, वह स्वाद में भले लाजवाब हो, लेकिन सेहत के लिए कितना भारी पड़ सकता है। एम्स नागपुर के अधिकारियों ने इसे फूड लेबलिंग में एक नया मोड़ कहा है, कि अब खाने के साथ भी उतनी ही गंभीर चेतावनी दिखेगी, जैसी सिगरेट पर होती है।
आप को बता दें तले हुए और मीठे खाद्य पदार्थों के लिए ऐसी चेतावनी जारी हो सकती है। उदाहरण के तौर पर समोसा, जलेबी, पकौड़े, वड़ा पाव, गुलाब जामुन, लड्डू, खस्ता कचैरी, मिठाइयों की थालियां इन सबके सेवन पर कितनी शक्कर और तेल आपके शरीर में जाएगा, इस बारे में बाकायदा बोर्ड पर सूचना लगी होगी।
सरकारी तंत्र द्वारा इस पूरी मुहिम को देश की स्वास्थ्य समस्या के निदान के तौर पर पेश किया जा रहा है। बताया जा रहा है कि अमेरिका की तरह भारत में मोटापा एक बड़ी समस्या बन चुका है। देश में हर पांचवां शहरी वयस्क बढ़े वजन का शिकार है। 2050 तक देश में लगभग 45 करोड़ लोग मोटापे से ग्रसित होंगे, ऐसी आशंका है। बच्चों में भी मोटापा और डायबिटीज तेजी से बढ़ रहे हैं। इसकी सबसे बड़ी वजह है तेल, ट्रांस फैट और चीनी से भरे खाद्य पदार्थों के खाने का चलन बढ़ना है। एक रिपोर्ट बताती है कि कार्डियोलॉजिकल सोसाइटी ऑफ इंडिया की नागपुर शाखा के अध्यक्ष अमर अमले के मुताबिक यह फूड लेबलिंग की शुरुआत है जो सिगरेट की चेतावनियों जितनी गंभीर होती जा रही है। चीनी और ट्रांस फैट नए तंबाकू हैं। लोगों को यह जानने का हक है कि वे क्या खा रहे हैं।
वैसे मोटापे पर यह चिंता मोदीजी की मुहिम से ही निकली हुई दिख रही है। इसी साल फरवरी में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने मन की बात कार्यक्रम में मोटापे की गंभीर समस्या का जिक्र करते हुए विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट का हवाला दिया था कि 2022 में दुनिया भर में 250 करोड़ लोग जरूरत से ज्यादा वजन के शिकार थे। इसके बाद मोदीजी ने खाने में कम तेल इस्तेमाल करने की सलाह दी और मोटापे के खिलाफ लड़ाई में आनंद महिंद्रा (उद्योगपति), निरहुआ हिंदुस्तानी (अभिनेता), मनु भाकर (ओलंपिक पदक विजेता), साइखोम मीराबाई चानू (भारोत्तोलक), मोहनलाल (अभिनेता), नंदन नीलेकणी (इन्फोसिस के सह-संस्थापक), आर माधवन (अभिनेता), श्रेया घोषाल (गायिका), सुधा मूर्ति (राज्यसभा सांसद) और उमर अब्दुल्ला (मुख्यमंत्री जम्मू-कश्मीर) को नामित किया था। पीएम मोदी ने इसे व्यक्तिगत नहीं, बल्कि पारिवारिक जिम्मेदारी बताया था। उन्होंने मोटापा खत्म करने के लिए तेल की खपत कम करने की अपील की थी।
सरकार चाहें तो इस अभियान को अपनी उपलब्धि के तौर पर भी पेश कर सकती हैं कि 2014 में उन्होंने ऐलान किया था कि 2022 तक भारत को कुपोषण से मुक्त करेंगे और अब कुपोषण नहीं मोटापे से मुक्ति की लड़ाई छिड़ गई है। वैसे सरकार को आईना दिखाने के लिए यह तथ्य काफी है कि देश में अगर मोटापा शहरों और संपन्न तबकों में बढ़ा है, तो उसके साथ कुपोषण की समस्या और गंभीर
हुई है। पिछले साल ही मोदी सरकार ने संसद में बताया है कि देश में
5 साल से कम उम्र के करीब 60 प्रतिशत बच्चे गंभीर कुपोषण से पीड़ित हैं। आंकड़ों के मुताबिक 5 साल तक की उम्र के 36 प्रतिशत बच्चे बौने हैं, 17 प्रतिशत बच्चे कम वजन के हैं
और 6 प्रतिशत बच्चे दुबलेपन का शिकार हैं।
आंकड़े यह भी बताते हैं कि बच्चों के बौनेपन में उत्तरप्रदेश पहले स्थान पर था और कम वजन वाले बच्चों में मध्य प्रदेश सबसे आगे है। वहीं पिछले साल ही संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन (एफएओ) और यूनिसेफ सहित चार अन्य संयुक्त राष्ट्र एजेंसियों द्वारा जारी रिपोर्ट विश्व में खाद्य सुरक्षा और पोषण की स्थिति (एसओएफटी) में यह बात सामने आई है कि भारत में 19.5 करोड़ कुपोषित लोग हैं जो दुनिया के किसी भी देश में सबसे ज्यादा है। इस रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि आधे से ज्यादा भारतीय 55.6 प्रतिशत भारतीय याने कि 79 करोड़ लोग अभी भी पौष्टिक आहार का खर्च उठाने में असमर्थ हैं। ग्लोबल हंगर इंडेक्स में भी भारत नेपाल, बांग्लादेश, पाकिस्तान और श्रीलंका से भी सबसे निचले पायदान पर रहा है। भारत में पांच साल से कम उम्र के बच्चों में मृत्यु दर प्रति 1,000 बच्चों पर 37 है, जिसमें 69 प्रतिशत मौतें कुपोषण के कारण होती हैं। देश में 6 से 23 महीने की उम्र के केवल 42 प्रतिशत बच्चों को ही पर्याप्त अंतराल पर जरूरी भोजन मिल पाता है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-4 के आंकड़ों के अनुसार, आदिवासियों और दलितों में कुपोषण की दर भारत में सबसे अधिक है।
सरकार खुद 80 करोड़ लोगों को हर महीने 5 किलो अनाज देती है समझ सकते हैं कि जो अस्सी करोड़ लोग सरकारी इमदाद से मिलने वाले अनाज पर आश्रित है उन्हें साल या माह में कितनी बार और कितनी संख्या या मात्रा में समोसे और जलेबी खाने के लिए मिलते होंगे?
इस देश को चलाने वाला सरकारी तंत्र एयरकंडीशन दफ्तरों में बैठे सुविधा भोगी अफसरों के दिमाग से चलता है जिनका गांव-गरीब विपन्न अधिसंख्य समाज के वास्तविक जीवन से दूर का भी वास्ता नही है। यह विशाल वर्ग साल में रामलीला या किसी ऐसे ही मेले में एक दो बार जलेबी या समोसा खाते हैं। वैसे भी जलेबी का सेवन तो खुद में आयुर्वेदिक इलाज बताया गया है। जलेबी ताजा खमीर से बनती है समोसा भी ताजा आलू से बनता है जबकि केक पेस्ट्री बर्गर पिज्जा
हफ्तों पुरानी सामग्री को फ्रीज कर परोसे जा रहे हैं और ताजे हिंदुस्तानी व्यंजनों से कहीं ज्यादा सेहत खराब कर रहे हैं।
आवश्यकता इस बात की है कि हमारे सरकारी तंत्र के नीति नियंता भारतीय व्यंजनों के प्रति नकारातमक सोच का त्याग करें, देसी व्यंजनों के प्रति दुष्प्रचार का माध्यम न बने। (हिफी)