लेखक की कलम

न्याय के लिए भटकता आम-आदमी!

(मनोज कुमार अग्रवाल-हिफी फीचर)
देश में बढते अपराध, भ्रष्टाचार व अराजकता की एक बड़ी आधारभूत वजह आम आदमी को न्याय नहीं मिलना है। समय पर न्याय, न्याय व्यवस्था में जनता के विश्वास की आधारशिला है, जैसा कि इस कहावत में भी स्पष्ट है कि न्याय में देरी, न्याय से इनकार के समान है। लंबे समय तक देरी अक्सर लोगों को अदालत जाने से रोकती है। पिछले साल, राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने इस झिझक को ब्लैक कोट सिंड्रोम कहा था।
इसका दायरा चैंकाने वाला है। सर्वोच्च न्यायालय में 86,700 से ज्यादा मामले, उच्च न्यायालयों में 63.3 लाख से ज्यादा मामले और जिला व अधीनस्थ न्यायालयों में 4.6 करोड़ मामले लंबित हैं। कुल मिलाकर, भारत में लंबित मामलों की कुल संख्या 5 करोड़ से ज्यादा है।
हाल ही में केंद्रीय विधि एवं न्याय मंत्री अर्जुन राम मेघवाल ने 31 जुलाई, को राज्यसभा को बताया कि भारत भर की विभिन्न निचली अदालतों में 4.6 करोड़ से अधिक मामले लंबित हैं।यह बेहद शर्मनाक स्थिति है जबकि मौजूदा सरकार ने देश भर में समयबद्ध न्याय देने का वादा किया था लेकिन स्थिति मे कोई खास परिवर्तन नहीं हुआ है वरन लंबित मामलों की तादाद जस की तस बनी है। द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (द्रमुक) सांसद कनिमोझी एनवीएन सोमू द्वारा उठाए गए एक प्रश्न के लिखित उत्तर में मंत्री ने कहा कि सर्वोच्च न्यायालय में 86,723 मामले लंबित हैं, जबकि भारत भर के विभिन्न उच्च न्यायालयों में 63,29,222 मामले लंबित हैं।
‘‘उच्च न्यायालयों से प्राप्त जानकारी के अनुसार, 30 जून 2025 तक 21 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में 865 फास्ट ट्रैक कोर्ट कार्यरत हैं।’’फास्ट ट्रैक कोर्ट ने अब तक 76,57,175 मामलों का निपटारा किया है, जबकि 14,38,198 मामले अभी भी उनके पास लंबित हैं। ग्राम न्यायालय (जीएन) पोर्टल पर उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार, दिसंबर 2020 से जून 2025 तक की अवधि में ग्राम न्यायालयों में 5,39,200 मामले दर्ज किए गए। इसी अवधि में ग्राम न्यायालयों ने 4,11,071 मामलों का निपटारा किया। 30 जून 2025 तक, ग्राम न्यायालयों में लंबित मामलों की संख्या 1,28,129 है।
आपको बता दें कि मोटे तौर पर भारत की अदालतों में 6000 से अधिक जजों की कमी है जिनमें से 5000 जजों की कमी निचली अदालतों में है। डिपार्टमेंट आफ जस्टिस की 1 जुलाई की रिपोर्ट के अनुसार देश के हाईकोर्टों में जजों की स्वीकृत संख्या 1122 के मुकाबले में वहां 751 पदों पर ही नियुक्तियां हुई हैं तथा 371 जजों के पद खाली हैं। देश की जनसंख्या 1.4 अरब है और जजों की कुल संख्या सिर्फ 21,285 है। देश की अदालतों में इस समय 4 करोड़ 66 लाख 24 हजार केस लम्बित हैं। इनमें से 3 करोड़ 55 लाख 67 हजार क्रिमिनल तथा 1 करोड़ 10 लाख 57 हजार सिविल केस हैं।
2025 की इंडिया जस्टिस रिपोर्ट के अनुसार भारत में प्रति 10 लाख लोगों पर सिर्फ 15 जज हैं जबकि 1987 की कानून आयोग की सिफारिश के अनुसार कम से कम 50 जज होने चाहिए। इसी कारण अदालतों में कार्यरत जजों पर मुकद्दमों का भारी बोझ पड़ा हुआ है। इसी रिपोर्ट में यह रहस्योद्घाटन भी किया गया है कि देश की जिला अदालतों में एक जज के पास औसतन 2,200 मुकद्दमे हैं, वहीं इलाहाबाद और मध्य प्रदेश के हाईकोर्टों में प्रत्येक जज के पास 15,000 तक केस हैं।विधि और संसदीय कार्य राज्यमंत्री अर्जुन राम मेघवाल ने 24 जुलाई को राज्यसभा में बताया कि हाईकोर्टों में खाली पड़ी 371 रिक्तियों में से 178 पदों के लिए नियुक्ति प्रस्ताव सरकार और हाईकोर्ट की कोलेजियम के बीच विभिन्न चरणों पर विचाराधीन हैं तथा 193 पदों के लिए अभी तक संबंधित हाईकोर्टों की कोलेजियम से सिफारिशें प्राप्त नहीं हुई हैं।
जजों की कमी का अदालतों में चल रहे मुकद्दमों पर दुष्प्रभाव पड़ता है। इसका अनुमान आप इन चंद केसों पर अदालत में हुई देरी और अदालत की टिप्पणी से समझ सकते हैं। 20 मार्च, 2025 को राजस्थान में लगभग 40 वर्ष पूर्व हुए एक नाबालिग लड़की के साथ रेप के मामले में सुप्रीमकोर्ट ने राजस्थान हाईकोर्ट द्वारा दोषी को बरी करने के फैसले को पलटते हुए उसे निचली अदालत द्वारा दी गई 7 वर्ष कैद की सजा को बहाल करने के साथ ही 4 सप्ताह में सैंरेंडर करने का आदेश दिया। जजों ने कहा कि बच्ची की चुप्पी का मतलब यह नहीं लगाया जा सकता कि उसके साथ अपराध हुआ ही नहीं। यह बहुत दुख की बात है कि इस नाबालिग लड़की और उसके परिवार को अपने जीवन के इस भयानक अध्याय को बंद करने के इंतजार में लगभग 40 वर्ष बिताने पड़े।
इसी तरह 30 जून, 2025 को रांची (झारखंड) में भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो के विशेष न्यायाधीश योगेश कुमार सिंह की अदालत ने वर्ष 2005 में 2750 रुपए रिश्वत लेने के 20 वर्ष पुराने मामले में दोषी जयराम चैधरी को 5 वर्ष कैद और 6000 रुपए जुर्माने की सजा सुनाई। जुर्माना अदा न करने पर उसे 2 महीनों की और सजा काटनी होगी। एक अन्य मामले में 21 जुलाई, 2025 को बॉम्बे हाईकोर्ट ने 19 वर्ष पुराने वर्ष 2006 के मुम्बई रेल बम धमाकों के सभी 12 आरोपियों को बरी कर दिया। इन धमाकों में 187 लोग मारे गए तथा 800 से अधिक लोग घायल हुए थे। इस फैसले पर 24 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगा दी।
21 जुलाई, 2025 को ही हरदोई (उत्तर प्रदेश) में 16 दिसम्बर, 2014 को हुए हत्याकांड के 11 वर्ष पुराने मामले में 2 भाइयों को दोषी करार देते हुए जिला एवं सत्र न्यायालय ने दोनों को उम्र कैद की सजा सुनाने के अलावा 20-20 हजार रुपए जुर्माना भी लगाया। इसी तरह मालेगाँव विस्फोट मामले में 17 साल बाद सभी आरोपियों को बरी कर दिया गया। इनमें से की आरोपियों को गिरफ्तार कर नौ साल तक केस के फैसले के इंतजार में कारागार में रहना पड़ा।
न्याय में देरी के एक नहीं एक लाख मामले हंै। समझ सकते हैं कि लाखों लोग तो हर साल अदालत की चैखट पर इंसाफ मांगने के लिए चक्कर लगाते हुए अपने जीवन का सबसे बहुमूल्य समय खपा कर बिना फैसले के ही दुनिया से चले जाते हैं। उन्हे जीवित रहते न्याय नहीं मिल पाता है। जिला न्यायालयों में दीवानी मामलों में सबसे अधिक देरी होती है, जिससे मुकदमों के भार और क्षमता के बीच भारी अंतर उजागर होता है। इन हालातों में जरूरी है कि अदालतों में लटकती आ रही जजों की कमी जल्द से जल्द पूरी की जाए ताकि पीड़ितों को समय रहते न्याय मिल सके और वे न्याय के इंतजार में ही अपनी तमाम उम्र न खपा दें। आम आदमी में कानून और अदालत के प्रति विश्वास कम हो रहा है और रिश्वतखोरी भ्रष्टाचार बढ़ रहा है। (हिफी)

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