वक्फ पर सुप्रीम आदेश बनेगा मिसाल

(मनोज कुमार अग्रवाल-हिफी फीचर)
देश की सबसे बड़ी अदालत ने वक्फ (संशोधन) अधिनियम 2025 की वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर जो फैसला सुनाया है, वह भारतीय लोकतंत्र और संविधान की मूल आत्मा के संरक्षण देने वाला है क्योंकि अदालत ने न तो पूरे कानून को असंवैधानिक करार दिया और न ही इसे पूरी तरह से रोक लगाया है। इसके बजाय उसने कुछ विवादास्पद प्रावधानों पर रोक लगाकर संतुलन साधने की कोशिश की है। यह निर्णय बताता है कि भारत का न्यायपालिका तंत्र राजनीतिक टकरावों से ऊपर उठकर न्याय, समानता और भाईचारा के संवैधानिक मूल्यों को सुरक्षित रखने की क्षमता रखता है। इस फैसले को लेकर मुसलिम जनप्रतिनिधियों में ऊहापोह की स्थिति बनी है शुरू में फैसले को सकून भरा बताया लेकिन 128 पेज के इस आदेश का पूरा
अध्ययन करने के बाद इसकी आलोचना करना शुरू कर दिया। इससे लगता है कि इस फैसले से भी मुस्लिम समाज की असहमति कम होने वाला नहीं है।
शीर्ष अदालत ने पांच अहम प्रावधानों पर स्पष्ट दिशा-निर्देश दिया है, इनसे यह संदेश गया कि न्यायपालिका कानून के संवैधानिक अधिकार को नकारते हुए पूरे अधिनियम को निलंबित नहीं कर सकती, लेकिन विवादास्पद हिस्सों पर पारदर्शिता और संतुलन सुनिश्चित करना आवश्यक है। भारत में वक्फ संपत्तियां न केवल धार्मिक दृष्टि से, बल्कि आर्थिक और सामाजिक दृष्टि से भी अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। सुप्रीम कोर्ट का हालिया फैसला इस विषय पर एक नया
अध्याय खोलता है। दरअसल वक्फ (संशोधन) अधिनियम को लेकर मुस्लिम समुदाय में काफी नाराजगी है। सरकार ने इसी साल अप्रैल के बजट सत्र के दौरान इसको पारित किया था। लोकसभा और राज्यसभा दोनों में इसे बहुमत से मंजूरी मिली और तत्पश्चात राष्ट्रपति ने भी इसे स्वीकृति प्रदान की।
कानून के कई प्रावधानों को लेकर मुस्लिम समुदाय, विपक्षी दलों और नागरिक समाज के कुछ वर्गों में असंतोष था। उनका तर्क था कि यह कानून धार्मिक स्वतंत्रता और अल्पसंख्यकों के अधिकारों पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकता है। दूसरी ओर सरकार का कहना था कि यह कानून वक्फ संपत्तियों में पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित करेगा। इसको लेकर दायर पांच प्रमुख याचिकाओं पर मुख्य न्यायाधीश बी.आर. गवई और जस्टिस ए.जी. मसीह की पीठ ने सुनवाई की। सुनवाई के बाद अदालत ने स्पष्ट किया कि संसद द्वारा पारित किसी भी कानून को आसानी से खारिज नहीं किया जा सकता लेकिन यदि कानून के कुछ प्रावधान व्यक्तिगत अधिकारों और संवैधानिक व्यवस्था के विरुद्ध हैं, तो अदालत उन्हें स्थगित करने का अधिकार रखती है। अधिनियम के अनुसार, वक्फ बोर्ड का सदस्य वही बन सकता था जिसने पांच साल से अधिक समय तक इस्लाम धर्म का पालन किया हो। सुप्रीम कोर्ट ने इस प्रावधान पर रोक लगा दी और कहा कि राज्य सरकारें जब तक कोई स्पष्ट नियम न बना लें, यह शर्त लागू नहीं होगी। यह फैसला धार्मिक भेदभाव से बचने की दिशा में एक अहम कदम है। इसी तरह से संशोधन अधिनियम में प्रावधान था कि वक्फ बोर्ड के 11 सदस्यों में गैर-मुस्लिम भी शामिल होंगे। सुप्रीम कोर्ट ने इसे सीमित करते हुए कहा कि तीन से अधिक गैर-मुस्लिम सदस्य नहीं हो सकते। केंद्रीय वक्फ परिषद में भी चार से अधिक गैर-मुस्लिम नहीं होंगे। साथ ही अदालत ने संकेत दिया कि यदि संभव हो तो बोर्ड का सीईओ मुस्लिम ही होना चाहिए। यह निर्णय धार्मिक चरित्र और संस्थागत संतुलन दोनों को सुरक्षित करता है। इसे लेकर एआइएमए सांसद असुददीन औवैसी ने एतराज जताया है उनका कहना है कि वक्फ संशोधन अधिनियम पर सुप्रीम कोर्ट का अंतरिम आदेश भी वक्फ संपत्तियों की सुरक्षा नहीं कर पाएगा। यह कानून अतिक्रमणकारियों को लाभ पहुंचाएगा और वक्फ भूमि पर विकास कार्य रुक जाएगा। कलेक्टर के पास अभी भी सर्वेक्षण करने का अधिकार है और गैर-मुस्लिम की नियुक्ति अभी बरकरार है। अगर एक गैर-सिख को एसजीपीसी का सदस्य बनाया जाए तो सिखों को कैसा लगेगा?
उधर एम.आर. शमशाद ने कहा कि एएसआई सर्वेक्षण के तहत वक्फ संपत्तियों को कानून में संशोधन के तहत गैर-वक्फ बनाने के लिए बातचीत हुई थी। इस पर दबाव डाला गया था। इस पर अदालत ने कोई रोक नहीं लगाई। प्रथम दृष्टया, वहाँ एक अंतरिम टिप्पणी थी। शमशाद बताते हैं कि कानून में कहा गया था कि लिमिटेशन एक्ट भी वक्फ पर लागू नहीं होगा। इसका मतलब है कि अगर एक बार वक्फ संपत्ति हो गई और कोई उस पर कब्जा या फिर अतिक्रमण कर लेता है तो फिर 12 साल तक कोई कानूनी कार्रवाई नहीं होगी, क्योंकि लिमिटेशन एक्ट लागू नहीं होगा। यह वक्फ संपत्तियों को बचाने के लिए था। अब लिमिटेशन एक्ट को हटाने का निष्कर्ष आया है।
अधिनियम में यह प्रावधान था कि किसी संपत्ति पर वक्फ बोर्ड का दावा वैध है या नहीं, इसका निर्णय जिला कलेक्टर करेगा। सुप्रीम कोर्ट ने इस पर रोक लगाते हुए कहा कि यह शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत का उल्लंघन है। प्रशासनिक अधिकारी व्यक्तिगत नागरिक अधिकारों पर अंतिम निर्णय नहीं ले सकते। इसके लिए न्यायिक प्रक्रिया ही उचित मंच है। कांग्रेस और विपक्षी दलों ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले का स्वागत किया और इसे न्याय, समानता और बंधुत्व की जीत बताया। कांग्रेस ने कहा कि इससे मूल अधिनियम में निहित ‘शरारतपूर्ण इरादों’ को रोकने में मदद मिलेगी। दूसरी ओर केंद्रीय मंत्री किरेन रिजिजू ने इस आदेश को संसद की प्रतिष्ठा की पुष्टि बताते हुए कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने भारत की संसद के फैसले को मान्यता दी है। इस प्रकार दोनों ही पक्ष इस फैसले को अपने राजनीतिक हितों के अनुरूप प्रस्तुत कर रहे हैं। वक्फ की संपत्तियां करीव 1.2 लाख करोड़ रुपये की अनुमानित कीमत की हैं। यह संपत्ति सेना और रेलवे के बाद सबसे बड़ी है। ऐसे में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि इन संपत्तियों का प्रबंधन पारदर्शी और न्यायसंगत तरीके से कैसे किया जाए। सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला राजनीतिक दलों के लिए भी एक संकेत है कि वक्फ कानून के मुद्दे पर अतिवादी रुख अपनाने के बजाय संवैधानिक और संतुलित दृष्टिकोण अपनाना होगा। अब स्थिति यह है कि अधिनियम के कुछ हिस्से लागू रहेंगे और कुछ पर रोक लगी रहेगी। अंतिम फैसला आने में समय लगेगा, लेकिन यह साफ है कि अदालत ने वक्फ बोर्ड को उसके पारंपरिक स्वरूप में बने रहने की पूरी छूट नहीं दी। आगे चलकर यह फैसला इस दिशा में मार्गदर्शक सिद्ध हो सकता है कि धार्मिक संपत्तियों का प्रबंधन किस तरह से किया जाए ताकि न तो धार्मिक अधिकारों का हनन हो और न ही सरकारी संपत्तियों पर अतिक्रमण हो।
सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला एक संतुलित निर्णय है। न तो यह पूरी तरह सरकार के पक्ष में है और न ही याचिकाकर्ताओं के। अदालत ने यह संदेश दिया है कि संवैधानिक ढांचे से बाहर जाकर किसी भी कानून को न तो पूर्ण रूप से लागू किया जा सकता है और न ही पूरी तरह खारिज। यह फैसला निश्चय ही वक्फ बोर्ड के लिए एक चुनौती है, पर साथ ही यह अवसर भी है कि वह खुद को पारदर्शी, जवाबदेह और संविधान-सम्मत संस्था के रूप में स्थापित करें। इसलिए सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला न तो सरकार की पूरी जीत है और न ही विपक्ष की पूर्ण हार। बल्कि यह भारतीय न्यायपालिका की उस भूमिका को रेखांकित करता है, जिसमें वह लोकतांत्रिक व्यवस्था के सभी अंगों को संतुलित रखती है। अदालत ने स्पष्ट कर दिया है कि कानून बनाना संसद का विशेषाधिकार है, लेकिन उसकी संवैधानिक समीक्षा न्यायपालिका का कर्तव्य है। वक्फ संशोधन अधिनियम 2025 पर आया यह आदेश भविष्य में धार्मिक संस्थाओं से जुड़े विवादों के निपटारे के लिए एक मिसाल बनेगा। लेकिन अभी मुसलिम समाज इसको लेकर दोबारा शीर्ष अदालत से दरकार करेगा यह पूरी संभावना है। देखना है कि अदालत अपने रुख पर कायम रहती है या नहीं। (हिफी)