लेखक की कलम

कांशीराम ने दलितों को दी सियासी ताकत

दलितों के लिए अलग-अलग रूप मंे आंदोलन हुए, उनके लिए अधिकार मांगे गय। छुआछूत और अस्पृश्यता के विरोध मंे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने भी आम जनता से आह्वान किया था। वे स्वयं इस राह पर चले थे लेकिन दलित समाज को जिस ताकत की जरूरत थी, वो नहीं मिल पायी। संविधान निर्माता डा. भीमराव आम्बेडकर ने दलितों के लिए सशक्त आवाज उठाई, संविधान मंे आरक्षण की व्यवस्था भी की गयी लेकिन दलितों को पहचान इससे भी नहीं मिल पायी। इस बात को बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के संस्थापक स्व. कांशीराम ने समझा था। उन्हांेने दलितों को राजनीतिक ताकत दी। इस कार्य को उनकी राजनीतिक उत्तराधिकारी मायावती ने बुलंदी तक पहुंचाया और उत्तर प्रदेश मंे चार बार बसपा को सरकार बनाने का अवसर मिला। पिछले लगभग एक दशक से बसपा की राजनीतिक ताकत कम हो रही है। बसपा 1984 मंे अपने गठन के बाद से ही बड़ी-बडी रैली करने के लिए मशहूर रही है। इसीलिए बसपा प्रमुख मायावती ने कांशीराम के निर्वाण दिवस 9 अक्टूबर को उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में राज्यस्तरीय कार्यक्रम आयोजित करने की घोषणा कर रखी है। मायावती एक बार फिर से अपने प्रमुख वोट बैंक को स्व. कांशीराम के नाम पर एकजुट ही नहीं वरन् ऊर्जा से भी भर देना चाहती हैं।
कांशीराम (15 मार्च 1934-9 अक्टूबर 2006) भारतीय राजनीतिक और समाज सुधारक थे। उन्होंने भारतीय वर्ण व्यवस्था में बहुजनों के राजनीतिक एकीकरण तथा उत्थान के लिए कार्य किया। उन्होंने दलित शोषित संघर्ष समिति (डीएसएसएसएस), 1971 में अखिल भारतीय पिछड़ा और अल्पसंख्यक समुदाय कर्मचारी महासंघ (बामसेफ) और 1984 में बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की स्थापना की। कांशीराम ने पुणे में विस्फोटक अनुसंधान और विकास प्रयोगशाला में पहली बार जातिगत भेदभाव का अनुभव किया। उन्होंने ऑफिस में देखा कि जो कर्मचारी डॉक्टर आंबेडकर का जन्मदिन मनाने के लिए छुट्टी लेते थे, उनके साथ ऑफिस में भेदभाव किया जाता था। वे इस जातिगत भेदभाव को खत्म करने के लिए 1964 दलित सामाजिक कार्यकर्ता बन गए थे। उनके करीबी लोगों के अनुसार उन्होंने यह निर्णय डॉक्टर आंबेडकर की किताब एनीहिलेशन ऑफ कास्ट को पढ़कर लिया था। कांशीराम को बी.आर. अम्बेडकर और उनके दर्शन ने काफी प्रभावित किया था। कांशीराम साहब ने शुरू में रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया का समर्थन किया था लेकिन भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के साथ जुड़े रहने के कारण उनका मोह भंग हो गया था। उन्होंने 1971 में अखिल भारतीय एससी, एसटी, ओबीसी और अल्पसंख्यक कर्मचारी संघ की स्थापना की जो कि बाद में चलकर 1978 में बामसेफ बन गया था। बामसेफ एक ऐसा संगठन था जिसका उद्देश्य अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों, अन्य वर्गों और अल्पसंख्यकों के शिक्षित सदस्यों को अम्बेडकरवादी सिद्धांतों का समर्थन करने के लिए राजी करना था। बामसेफ न तो एक राजनीतिक और न ही एक धार्मिक संस्था थी और इसका अपने उद्देश्य के लिए आंदोलन करने का भी कोई उद्देश्य नहीं था। इस संगठन ने दलित समाज के उस संपन्न तबके को इकट्ठा करने का काम किया जो कि ज्यादातर शहरी क्षेत्रों, छोटे शहरों में रहता था और सरकारी नैकारियां करता था साथ ही अपने अछूत भाई बहनों से भी किसी तरह के संपर्क में नहीं था।
इसके बाद कांशीराम ने 1981 में एक और सामाजिक संगठन बनाया, जिसे दलित शोषित समाज संघर्ष समिति के नाम से जाना जाता है। उन्होंने दलित वोट को इकट्ठा करने की अपनी कोशिश शुरू की और 1984 में उन्होंने बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की स्थापना की। उन्होंने अपना पहला चुनाव 1984 में छत्तीसगढ़ की जांजगीर-चांपा सीट से लड़ा था, बीएसपी को उत्तर प्रदेश में सफलता मिली, शुरू में दलितों और अन्य पिछड़े वर्गों के बीच विभाजन को पाटने के लिए संघर्ष किया,लेकिन बाद में मायावती के नेतृत्व में इस खाई को पाटा गया। सन् 1982 में उन्होंने अपनी पुस्तक द चमचा युग लिखी, जिसमें उन्होंने जगजीवन राम और रामविलास पासवान और रामदास अठावले जैसे दलित नेताओं का वर्णन करने के लिए चमचा शब्द का इस्तेमाल किया था। उन्होंने तर्क दिया कि दलितों को अन्य दलों के साथ काम करके अपनी विचारधारा से समझौता करने के बजाय अपने स्वयं समाज के विकास को बढ़ावा देने के लिए राजनीतिक रूप से काम करना चाहिए। बीएसपी के गठन के बाद, कांशीराम ने कहा कि उनकी ’बहुजन समाज पार्टी’ पहला चुनाव हारने के लिए, दूसरा चुनाव नजर में आने ले लिए और तीसरा चुनाव जीतने के लिए लड़ेगी। 1988 में उन्होंने भावी प्रधानमंत्री वी.पी. सिंह के खिलाफ इलाहाबाद सीट से चुनाव लड़ा और प्रभावशाली प्रदर्शन किया, लेकिन 70,000 वोटों से हार गए। वह 1989 में पूर्वी दिल्ली (लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र) से लोक सभा चुनाव लडे और चैथे स्थान पर रहे। सन 1991 में, कांशीराम और मुलायम सिंह ने गठबंधन किया और कांशीराम ने इटावा से चुनाव लड़ने का फैसला किया। कांशीराम ने अपने निकटतम भाजपा प्रतिद्वंद्वी को 20,000 मतों से हराया और पहली बार लोकसभा में प्रवेश किया। इसके बाद कांशीराम ने 1996 में होशियारपुर से 11वीं लोकसभा का चुनाव जीता और दूसरी बार लोकसभा पहुंचे। अपने खराब स्वास्थ्य के कारण उन्होंने 2001 में सार्वजनिक रूप से मायावती को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया था।
अब उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री और बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) की मुखिया मायावती लंबे वक्त बाद लखनऊ में रैली करने जा रही हैं। रैली का आयोजन बीएसपी के संस्थापक कांशीराम के निर्वाण दिवस यानी 9 अक्टूबर को लखनऊ के कांशीराम स्मारक पार्क में हो रहा है। मायावती इस आयोजन के जरिए जनता की नब्ज टटोलने की कोशिश करती दिख रही है। उनकी रणनीति कुछ इसी प्रकार के संकेत दे रही है। दरअसल, कांशीराम स्मारक पार्क के चयन को अलग नजरिए से देखा जा रहा है। इस पार्क की क्षमता करीब एक लाख है। ऐसे में इस पार्क में रैली के जरिए वे अधिक से अधिक समर्थकों के जुटने की उम्मीद तो कर रही हैं। हालांकि, घटते वोट प्रतिशत और जनाधार को देखते हुए उनकी रणनीति के पीछे के उद्देश्यों पर चर्चा तेज हो गई है।बहुजन समाज पार्टी ने लखनऊ में 1984 में बसपा के गठन के बाद से बहुजन समाज पार्टी अपनी रैलियों के लिए जानी जाती रही है। हर रैली के बाद बसपा मजबूत होती रही है। इन रैलियों के जरिए बसपा अपने नेताओं को सामने लाती रही है। जमीनी नेताओं को राज्य और राष्ट्रीय राजनीति तक पहुंचाने में बसपा और उसके कैडर का बड़ा योगदान रहा है। हालांकि, पिछले एक दशक में पार्टी ने जमीन पर पकड़ के साथ पार्टी के बड़े नेताओं को भी खोया है।
वर्ष 1995 में मायावती के मुख्यमंत्री बनने के बाद बसपा अपनी हर सरकार में बड़ी रैली का आयोजन करती रही है। वर्ष 2007 से 2012 की पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने के बाद 2012 में हुए चुनाव में बहुजन समाज पार्टी को सत्ता गंवानी पड़ी। अखिलेश यादव ने बहुमत से समाजवादी सरकार बना ली । 2012 की हार के बाद से लगातार बहुजन समाज पार्टी चुनाव हारती रही है। चाहे वह लोकसभा का चुनाव हो या विधानसभा का चुनाव।लोकसभा चुनाव 2019 में
जरूर समाजवादी पार्टी से गठबंधन के बाद बसपा को एकमुश्त मुस्लिम
वोट मिला। बसपा 10 सांसदों को जिताने में सफल रही लेकिन, यूपी चुनाव 2022 में बसपा को बड़ी हार का सामना करना पड़ा। पार्टी को केवल एक सीट पर संतोष करना पड़ा, जबकि वोट प्रतिशत भी गिरकर 12 प्रतिशत के आसपास रह गया। पार्टी सुप्रीमो मायावती ने 2027 में पार्टी को वापस लाने के लिए और अपने कोर वोटर को विश्वास दिलाने के लिए लखनऊ में कांशीराम के परिनिर्वाण दिवस पर लखनऊ में अपनी ताकत दिखाने का फैसला किया। (अशोक त्रिपाठी-हिफी फीचर)

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