
(शांतिप्रिय-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
अंगद और रावण के बीच संवाद चल रहा है। अंगद बार-बार रावण को समझाता है कि प्रभु श्रीराम से विरोध मत करो। वह रावण को व्यंग्य वचन भी सुनाता है लेकिन रावण अपने मद में अंधा है। वह कुंभकर्ण और मेघनाद के बल का बखान करता है, उसने जिस प्रकार चराचर को जीता है, उसे बताता है और भगवान शंकर को जिस प्रकार अपने सिर अर्पित किये थे वह कथा भी कहता है। अंगद उसकी सभी बातों का जवाब बड़ी चतुराई से दे रहे हैं। इस प्रसंग में यही बताया गया है। अभी तो अंगद जी रावण को समझाते हैं-
सुनु रावन परिहरि चतुराई, भजसि न कृपा सिंधु रघुराई।
जौं खल भएसि रामकर द्रोही, ब्रह्म रुद्र सक राखि न तोही।
मूढ़ वृथा जनि मारसि गाला, राम बयर अस होइहि हाला।
तव सिर निकर कपिन्ह के आगे, परिहहिं धरनि रामसर लागे।
ते तव सिर कंदुक समनाना, खेलिहहिं भालु कीस चैगाना।
जबहिं समर कोपिहिं रघुनायक, छुटिहहिं अति कराल बहु सायक।
तबकि चलिहि अस गाल तुम्हारा, अस विचारि भजु राम उदारा।
सुनत बचन रावन परजरा, जरत महानल जनु धृत परा।
कुंभकरन अस बंधु मम, सुत प्रसिद्ध सक्रारि।
मोर पराक्रम नहि सुनेहि, जितेउं चराचर झारि।
अंगद जी कहते हैं कि हे रावण, चतुराई अर्थात कपट छोड़कर सुनो, कृपा के समुद्र श्री रघुनाथ जी का तुम भजन क्यों नहीं करते। अरे दुष्ट यदि तू श्रीराम जी का बैरी हुआ तो तुझे ब्रह्मा और शंकर जी भी नहीं बचा पाएंगे। हे मूढ़, व्यर्थ ही डींग न हांक, श्रीराम जी से वैर करने पर तेरा ऐसा हाल होगा कि तेरे ये सभी सिर श्रीराम जी के वाण लगते ही वानरों के आगे पृथ्वी पर गिरे दिखाई देंगे और रीछ-वानर गेंद की तरह उन सिरों से चैंगान (पोलो) खेलेंगे, जब श्री रघुनाथ जी युद्ध में क्रोध करेंगे और उनके अत्यंत तीक्ष्ण बहुत से वाण छूटेंगे, तब क्या तू इसी तरह की डींग हांक सकेगा? ऐसा विचार कर उदार श्रीराम जी का भजन कर।
अंगद के बचन सुनकर रावण
क्रोध से जल उठा। मानो जलती हुई प्रचण्ड अग्नि में घी पड़ गया हो। वह बोला-अरे मूर्ख, कुंभकर्ण ऐसा मेरा भाई, इन्द्र का शत्रु सुप्रसिद्ध मेघनाद मेरा पुत्र है और मेरा पराक्रम तो तूने सुना ही नहीं कि मैंने सम्पूर्ण जड़-चेतन जगत को जीत लिया है।
सठ साखामृग जोरि सहाई, बांधा सिंधु इहइ प्रभुताई।
नाघहिं खग अनेक बारीसा, सूर न होहिं ते सुनु सब कीसा।
मम भुज सागर बल जल पूरा, जहं बूड़े बहु सुर नर सूरा।
बीस पयोधि अगाध अपारा, को अस वीर जो पाइहि पारा।
दिगपालन्ह मैं नीर भरावा, भूप सुजस खल मोहि सुनावा।
जौं पै समर सुभट तव नाथा, पुनि पुनि कहसि जासु गुन गाथा।
तौ बसीठ पठवत केहि काजा, रिपु सन प्रीति करत नहिं लाजा।
हर गिरि मथन निरखु मम बाहू, पुनि सठ कपि निज प्रभुहि सराहू।
सूर कवन रावन सरिस स्वकर काटि जेहिं सीस।
हुने अनल अति हरष बहु बार साखि गौरीस।
रावण अंगद से कहता है कि रे दुष्ट, वानरों की सहायता जोड़कर राम ने समुद्र बांध लिया यही, उनकी प्रभुता है। समुद्र को तो अनेक पक्षी लांघ जाते हैं, पर इसी से वे सभी शूरवीर नहीं हो जाते। अरे मूर्ख वंदर सुन मेरी एक-एक भुजा रूपी समुद्र बल रूपी जल से भरा है जिसमें बहुत से शूरवीर देवता और मनुष्य डूब चुके हैं। बता ऐसा कौन शूरवीर है जो मेरे इन अथाह और अपार बीस समुद्रों (रावण की बीस भुजाएं हैं) को पार करेगा। रावण कहता है अरे दुष्ट मैंने दिक्पालों से पानी भरवाया है और तू एक राजा का मुझको सुयश सुनाता है। यदि तेरा मालिक, जिसकी गुणगाथा तू बार-बार कह रहा है, संग्राम में लड़ने वाला योद्धा है तो फिर वह दूत किसलिए भेजता है? शत्रु से प्रीति (संधि) करते समय उसे लाज नहीं आती? पहले कैलाश का मंथन करने वाली मेरी भुजाओं को देख फिर अरे मूर्ख बानर अपने मालिक की सराहना करना। वह कहने लगा कि रावण के समान शूर कौन है? जिसने अपने ही हाथों से सिर काट-काट कर अत्यंत हर्ष के साथ बहुत बार उन्हें अग्नि में होम कर दिया, स्वयं गौरीपति शिव जी इसके साक्षी हैं।
जरत बिलोकेउं जबहिं कपाला, विधि के लिखे अंक निज भाला।
नर के कर आपन बध बांची, हँसेउं जानि विधि गिरा असांची।
सोउ मन समुझि त्रास नहिं मोरे, लिखा विरंचि जरठ मति भोरे।
आन बीर बल सठ मम आगे, पुनि-पुनि कहसि लाज पति त्यागे।
कह अंगद सलज्ज जग माहीं, रावन तोहि समान कोउ नाहीं।
लाजवंत तव सहज सुभाऊ, निज मुख निज गुन कहसि न काऊ।
सिर अरु सैल कथा चित रही, तातें बार बीस तैं कही।
सो भुजबल राखेउ उर धाली, जीतेहु सहस बाहु बलि बाली।
सुनु मति मंद देहि अब पूरा, काटें सीस कि होइअ सूरा।
इंद्रजालि कहुं कहिअन बीरा, काटइ निजकर सकल सरीरा।
जरहिं पतंग मोह बस भार बहहिं खर वृन्द।
ते नहिं सूर कहावहिं समुझि देखु मति मंद।
रावण कह रहा है कि जब हवन में जलते हुए ललाट पर लिखे हुए ब्रह्मा के अक्षर देखे तब मनुष्य के हाथों अपनी मृत्यु पढ़कर विधाता की वाणी को असत्य जानकर मैं हंसने लगा। इस बात को स्मरण करते हुए भी मुझे डर नहीं है क्योंकि मैं समझ गया कि बूढ़े ब्रह्मा ने बुद्धि के भ्रम से ऐसा लिख दिया है। रावण ने कहा अरे मूर्ख तू लज्जा और मर्यादा छोड़कर मेरे आगे बार-बार दूसरे वीर का बल बखान रहा है।
जवाब देते हुए अंगद जी ने कहा अरे रावण तेरे समान लज्जावान जगत में कोई नहीं है। लज्जा शीलता तो तेरा सहज स्वभाव ही है तू अपने मुंह से अपने गुण कभी नहीं कहता। सिर काटने और कैलाश पर्वत को उठा लेने की कथा तेरे मन में चढ़ी हुई थी इससे तूने उस कथा को बीसों बार कहा। भुजाओं के उस बल को तो तूने हृदय में ही छिपा रखा है जिससे तूने सहस्त्र बाहु, बालि और बलि को जीता था (रावण इन तीनों से पराजित हो गया था) अंगद जी कहते हैं कि अरे मंद बुद्धि! सुनो अब तो बस करो, सिर काटने से भी क्या कोई शूरवीर हो सकता है? इन्द्रजाल रचने वाले को वीर नहीं कहा जाता यद्यपि वह अपने ही हाथों से
अपना सारा शरीर काट डालता है। अंगद जी रावण से कहते हैं कि
अरे मंद बुद्धि समझकर तो देखो, पतंगे मोह के वश होकर आग में जल जाते हैं और गधों के झुंड बोझ लादकर चलते हैं लेकिन इस कारण वे शूरवीर नहीं कहे जाते। -क्रमशः (हिफी)