
परम ज्ञानी अष्टावक्र कहते हैं यथा प्राप्य से जीविका चलाने वाला, देशों में स्वच्छन्दता से विचरण करने वाला, जहाँ सूर्यास्त हो वहाँ शयन करने वाला धीर पुरुष सर्वत्र सन्तुष्ट रहता है।
अष्टावक्र गीता-74
निःस्नेहः पुत्रदारादौ निष्कामो विषयेषु च।
निश्चिन्तः स्वशरीरेऽपिनिराशः शोभते बुधः।। 84।।
अर्थात: पुत्र, स्त्री आदि के प्रति स्नेह न रखता हुआ और विषयों में कामना रहित हुआ, अपने शरीर की भी चिन्ता नहीं करता हुआ ज्ञानी पुरुष सभी आशाओं से मुक्त शोभा देता है।
व्याख्या: अज्ञानी अर्थात् संसारी की अपनी दृष्टि होती है एवं ज्ञानी की दृष्टि इससे भिन्न होती है अज्ञानी यदि अपनी दृष्टि से ज्ञानी को देखेगा तो वह उसे कभी नहीं समझ पायेगा। अज्ञानी अपने पुत्र, स्त्री आदि के प्रति बड़ा स्नेह दिखाता है, वह हमेशा विषयों की ही कामना करता है तथा अपने शरीर-पोषण की ही चिन्ता करता है, वह हमेशा आशाओं में ही जीता है। इसके पीछे उसकी आसक्ति एवं वासनाएँ ही हैं, उसके स्वयं के संकीर्ण निहित स्वार्थ हैं, जिससे वह ऐसा कर रहा है। ज्ञानी का भी पुत्र, स्त्री आदि के प्रति स्नेह तो होता है किन्तु उनके प्रति कामनाएँ, वासनाएँ एवं पागलपन नहीं होता, वह भी शरीर-रक्षण तो करता है किन्तु उसके रक्षण की चिन्ता नहीं करता। स्वाभाविक रूप से अनाग्रहपूर्वक जो होता है उसे स्वीकार कर लेता है। ज्ञानी पुरुष सभी आशाओं से मुक्त हो जाता है जिससे वह स्नेह, कर्म आदि के संकीर्ण दायरे से ऊपर उठ जाता है। ऐसा ज्ञानी ही शोभा पाता है।
तुष्टि सर्वत्र धीरस्य यथा पतितवर्तिनः।
स्वच्छन्दं चरतो देशान्यत्रास्तमितशायिनः।। 85।।
अर्थात: यथा प्राप्य से जीविका चलाने वाला, देशों में स्वच्छन्दता से विचरण करने वाला, जहाँ सूर्यास्त हो वहाँ शयन करने वाला धीर पुरुष सर्वत्र सन्तुष्ट।
व्याख्या: ज्ञानी परम को पा लेता इसलिए क्षुद्र की वासना से मुक्त हो जाता है। वह भी कर्म करता है किन्तु उसमें फलाकांक्षा की वासना नहीं होती। कर्म के फलस्वरूप जो उसे मिल जाता है उसी में वह सन्तुष्ट है, उसी से अपनी जीविका चलाता है। उसे अधिक की चाह नहीं होती, न कम की चिन्ता होती है। वह शिकायत भी नहीं करता कि आज संसार पापी हो गया है, साधु सन्तों को कोई सम्मान नहीं, उसे कोई देता नहीं बेईमान खाये जा रहे हैं, साधु भूखे मर रहे हैं, ऐसी भावना ज्ञानी में पैदा नहीं होती। ज्ञानी स्व निर्भर होता है। वह भोजन के लिए दूसरों पर निर्भर नहीं रहता। जो मिल जाय, जहाँ से मिल जाय, न मिले सबमें सन्तुष्ट है। वह संसार को ही बन्धन मानता है तो शरीर पोषण के लिए किसी से क्यों बँधेगा? वह किसी स्थान विशेष से भी नहीं बँधता। वह स्वच्छन्दता से, किसी वासना-आसक्ति से नहीं बनाता। उसके सोने, बैठने, चलने, ठहरने आदि के लिए कोई निश्चित स्थान, समय एवं नियम आदि नहीं होते कि वहीं ठहरूँगा, ऐसे बिस्तर पर ही सोऊँगा, घास पर ही सोऊँगा, काली गाय का दूध ही पीऊँगा, पैसे को हाथ कभी नहीं लगाऊँगा, पैदल व नंगे पांव ही चलूँगा, इस प्रकार के किसी नियम में नहीं बँधता। वह नियम के बन्धनों से पार हो गया है। आग्रह मात्र छूट गया हे। ऐसा ज्ञानी सर्वत्र ही सन्तुष्ट है।
पतूतदेतु वा देहो नास्य चिन्ता महात्मनः।
स्वभावभूमि विश्रान्ति
विस्मृताशेषसंसृते।। 86।।
अर्थात: जो निज स्वभाव रूपी भूमि में विश्राम करता है और जिसे संसार विस्मृत हो गया है, उस महात्मा को इस बात की चिन्ता नहीं है कि देह रहे या जाये।
व्याख्या: इसी क्रम में अष्टावक्र कहते हैं कि ऐसा ज्ञानी सांसारिक नियमों व बन्धों में न जीकर अपने आत्मा के स्वभाव में जीता है। वह संसार को विस्मृत कर देता है। जिसकी किसी प्रकार की वासना ही नहीं रही वह देह की वासना को भी छोड़ देता है। जिसकी शरीर में आसक्ति होती है वही अधिक जिन्दा रहना चाहता है। मृत्यु के समय उसके प्राण छूटते ही नहीं। वह जीवन और मृत्यु के बीच संघर्ष करता है। यमदूत उसे खींचते हैं किन्तु वह संसार
छोड़ना नहीं चाहता इसलिए जबरदस्ती उसे पकड़कर ले जाना पड़ता है। उसके सम्बन्धी गंगाजल, तुलसी देकर, गौ दान एवं एकादशी दे देकर उसे प्राण छुड़ाते हैं। यह सब होता है देहासक्ति के कारण। किन्तु ज्ञानी देहासक्त नहीं होता इसलिए मृत्यु के समय उसे कोई संघर्ष नहीं करना पड़ता। वह मृत्यु को भी आनन्द के साथ स्वीकार करता है। उसे वह गृह परिवर्तन से अधिक महत्व नहीं देता। जो जीवन में शान्त एवं संतुष्ट रहा है उसको मृत्यु के समय भी शान्ति का अनुभव होता है। इसलिए ज्ञानी कभी मरता नहीं केवल देह-त्याग करता है तथा आत्मा ही उसका स्थाई निवास है, उसी में लीन रहता है।
अकिंचनः कामचारो निद्र्वन्द्वश्छिन्नसंशयः।
असक्तः सर्वभावेषु केवलो रमते बुधः ।। 87।।
अर्थात: अकिंचन, स्वच्छन्द विचरण करने वाला, द्वन्द्वरहित, संशय रहित, आसक्ति रहित और अकेला बुद्ध पुरुष ही सब भावों में रमण करता है।
व्याख्या: जहांँ आसक्ति है वहीं बन्धन है। संसार, स्त्री, पुत्र, धन, नगर, देश, धर्म, जाति, वर्ण आदि संकीर्ण धेरों में मनुष्य आसक्ति तथा अज्ञान के कारण स्वयं बँधा है। इनके पीछे उसके निहित स्वार्थ हैं जिनके कारण वह अपने को इन क्षुद्र घेरों में बन्द कर लेता है। इन संकीर्णताओं में बँधकर मनुष्य स्वयं संकीर्ण हो जाता है, उसकी दृष्टि संकीर्ण हो जाती है। वह इनसे बाहर न सोच सकता है, न उस विराट् को देख सकता है। वह पिंजड़े का पक्षी बनकर अपने पिंजड़े में ही फड़फड़ाता रहता है एवं उसी में प्राण त्याग देता है। वह खुले आकाश में कभी उड़ान नहीं भर सकता। उसे कैसे ज्ञात हो सकता है कि सृष्टि में अन्यत्र भी सौन्दर्य है। इसी प्रकार संकीर्ण मान्यताओं, विचारों, सिद्धांतों, नियमों आदि से बँधकर मनुष्य छोटा हो जाता है किन्तु अहंकारवश इनमें भी वह अपने को महान् समझता है। इसके ठीक विपरीत ज्ञानी की स्थिति होती है। वह अपने को इन सब बन्धनों से मुक्त कर लेता है। वह खुले आकाश में स्वच्छन्दतापूर्वक विचरण करने वाला होता है, वह द्वन्द्वरहित होकर परम आनन्द में रहता है, वह संशय रहित होता हैं अपने को अकेला एवं अकिंचन मानता है इसी से वह सबका हो जाता है, महान् हो जाता है। आसक्ति होने से मनुष्य क्षुद्र से बँध जाता है। ज्ञानी आसक्ति रहित होने से विराट् का सुख भोगता है, वह सभी भावों में रमण करता है। शरीर से बँधा हुआ अज्ञानी शरीर सुखों के भोगों को ही भोग पाता है किन्तु आत्मज्ञानी सृष्टि के महान् भोगों को भोगता है। शरीर-सुख क्षुद्र है, आत्मसुख विराट् है जिसमें रमण करने वाला ज्ञानी ही सब भावों में रमण करता है। -क्रमशः (हिफी)
(साभार अष्टावक्र गीता)
(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)