धर्म-अध्यात्म

निष्काम योगी हो जाता पुनर्जन्म से मुक्त

श्रीमद् भगवत गीता का प्रबोध-41

 

श्रीमद् भगवत गीता का प्रबोध-41
जिस तरह मर्यादा पुुरुषोत्तम श्रीराम के चरित्र को लेकर कहा गया है कि ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता…’ उसी प्रकार भगवान कृष्ण के मुखार बिन्दु से प्रस्फुटित हुई श्रीमद् भगवत गीता का सार भी अतल गहराइयों वाला है। विद्वानों ने अपने-अपने तरह से गीता के रहस्य को समझने और समझाने का प्रयास किया है। गीता का प्रारंभ ही जिस श्लोक से होता है उसकी गहराई को समझना आसान नहीं है। कौरवों और पांडवों के मध्य जो युद्ध लड़ा गया वह भी धर्म क्षेत्रे अर्थात धर्म भूमि और कुरु क्षेत्रे अर्थात तीर्थ भूमि पर लड़ा गया जिससे युद्ध में वीर गति प्राप्त होने वालों का कल्याण हो गया। इसी तरह की व्याख्या स्वामी रामसुख दास ने गीता प्रबोधनी में की है जिसे हम हिफी के पाठकों के लिए क्रमशः प्रकाशित करने का प्रयास करेंगे। हम स्वामी जी के आभारी हैं जिन्होंने गीता के श्लोकों की सरल शब्दों में व्याख्या की है। -प्रधान सम्पादक 

निष्काम योगी हो जाता पुनर्जन्म से मुक्त

अग्निज्र्योतिरहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम्।
तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः।। 24।।
जिस मार्ग में प्रकाश स्वरूप अग्नि का अधिपति देवता, दिन का अधिपति देवता, शुक्ल पक्ष का अधिपति देवता और छः महीनों वाले उत्तरायण का अधिपति देवता है, उस मार्ग से शरीर छोड़कर गये हुए ब्रह्मवेत्ता पुरुष पहले ब्रह्मलोक को प्राप्त होकर पीछे ब्रह्मा के साथ ब्रह्म को प्राप्त हो जाते हैं।
व्याख्या-पहले साधनावस्था में जिनके भीतर ब्रह्मलोक की वासना अथवा अपने मत का आग्रह रहा है, वे क्रम मुक्ति से पहले ब्रह्मलोक में जाते हैं और फिर महा प्रलय आने पर ब्रह्मा जी के साथ मुक्त हो जाते हैं।
क्रम मुक्ति में ब्रह्मलोक मार्ग में आने वाले एक स्टेशन की तरह है, जहाँ भोगों की वासना वाले मनुष्य उतरते हैं परन्तु जिनमें भोगों की वासना नहीं है, वे वहाँ नहीं उतरते। हमारा कोई प्रयोजन न हो तो मार्ग में स्टेशन आये या जंगल, क्या फर्क पड़ता है।
धूमो रात्रिस्तथा कृष्णः षण्मासा दक्षिणायनम्।
तत्र चान्द्रमसं ज्योतिर्योगी प्राप्य निवर्तते।। 25।।
जिस मार्ग में धूम का अधिपति देवता, रात्रि का अधिपति देवता, कृष्ण पक्ष का अधिपति देवता और छः महीनों वाला दक्षिणायन का अधिपति देवता है, शरीर छोड़कर उस मार्ग से गया हुआ योगी (सकाम मनुष्य) चन्द्रमा की ज्योति को प्राप्त होकर लौट आता है अर्थात् जन्म-मरण को प्राप्त होता है।
शुक्लकृष्णे गती ह्येते जगतः शाश्वते मते।
एकया यात्यनावृत्तिमन्ययावर्तते पुनः।। 26।।
क्योंकि शुक्ल और कृष्ण-ये दोनों गतियाँ अनादि काल से जगत् (प्राणि मात्ऱ) के साथ सम्बन्ध रखने वाली मानी गयी हैं। इनमें से एक गति में जाने वाले को लौटना नहीं पड़ता और दूसरी गति में जाने वाले को पुनः लौटना पड़ता है।
नैते सृती पार्थ जानन्योगी मुह्यति कश्चन।
तस्मात्सर्वेषु कालेषु योगयुक्तो भवार्जुन।। 27।।
हे पृथानन्दन! इन दोनों मार्गों को जानने वाला कोई भी योगी मोहित नहीं होता। अतः हे अर्जुन! तू सब समय में योग युक्त (समता में स्थित) हो जा।
व्याख्या-सकाम (भोग तथा संग्रह की कामना वाला) मनुष्य ही मोहित होता अर्थात् जन्म-मरण में जाता है। शुक्ल और कृष्ण मार्ग को जानने वाला मनुष्य निष्काम (योगी) हो जाता है, इसलिए वह जन्म-मरण में नहीं जाता अर्थात् कृष्ण मार्ग को प्राप्त नहीं होता।
वेदेषु यज्ञेषु तपःसु चैव
दानेषु यत्पुण्ययफलं प्रदिष्टम्।
अत्येति तत्सर्वमिदं विदित्वा
योगी परं स्थानमुपैति चाद्यम्।। 28।।
योगी (भक्त) इसको इस अध्याय में वर्णित विषय को जानकर वेदों में, यज्ञों में, तपों में तथा दान में जो-जो पुण्य फल कहे गये हैं, उन सभी पुण्य फलों का अतिक्रमण कर जाता है और आदि-स्थान परमात्मा को प्राप्त हो जाता है।
व्याख्या-पूर्व श्लोक में शुक्ल और कृष्ण-दोनों गतियों का उपसंहार करके अब भगवान् यहाँ पूरे अध्याय का उपसंहार करते हैं। वेदाध्ययन, यज्ञ, तप, दान आदि जितने भी पुण्य कर्म हैं, उनका अधिक-से अधिक फल ब्रह्मलोक की प्राप्ति होना है, जहाँ से पुनः लौटकर संसार में आना पड़ता है, परन्तु भगवान् का आश्रय लेने वाला भक्त उस ब्रह्मलोक का भी अतिक्रमण करके परम धाम को प्राप्त हो जाता है, जहाँ से पुनः लौटकर संसार में नहीं आना पड़ता।
ऊँ तत्सदिति श्रीम˜वद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां
योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे अक्षर ब्रह्मयोगो
इस प्रकार आठवें अध्याय मंे भगवान कृष्ण ने पुनर्जन्म और मोक्ष के बारे मंे समझाया है। शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष के माध्यम से पुनर्जन्म और कुरुक्षेत्र का ज्ञान कराया और कहा कि योगी इन दोनों मार्गों को ज्ञन लेता है।-क्रमशः (हिफी)

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