महंगाई नियंत्रण के सब उपाय फेल

(मनोज कुमार अग्रवाल-हिफी फीचर)
देश में खुदरा वस्तुओं की कीमत में पिछले तिमाही में काफी इजाफा हुआ है। सरकार के कीमत नियंत्रण के तमाम उपाय धरे रह जाते है लेकिन महंगाई थमने का नाम नहीं लेती। भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) की कोशिश है कि खुदरा महंगाई को चार फीसद से नीचे लाकर स्थिर किया जा सके, मगर तमाम कोशिशों के बावजूद इस पर काबू पाना कठिन बना हुआ है। महंगाई के रुख को देखते हुए ही एक बार फिर से रिजर्व बैंक ने रेपो दर में बदलाव नहीं किया है। मौद्रिक नीति समिति (एमपीसी) की ताजा घोषणा में रेपो रेट को लगातार 11वीं बार 6.50 प्रतिशत पर स्थिर रखने का निर्णय लिया गया है। यह फैसला ऐसे समय में आया है जब वैश्विक और घरेलू आर्थिक स्थितियां चुनौतीपूर्ण बनी हुई हैं। आरबीआई के गवर्नर शक्तिकांत दास ने इस फैसले को प्राइस स्टेबिलिटी और आर्थिक विकास के बीच संतुलन बनाए रखने की प्रतिबद्धता बताया था। अब 11 दिसम्बर से संजय मल्होत्रा ने रिजर्व बैंक के नये गवर्नर का दायित्व संभाला है।
हालांकि रेपो रेट को स्थिर रखने और कैश रिजर्व रेश्यो (सीआरआर) में कटौती जैसे कदम यह दशति हैं कि आरबीआई मुद्रास्फीति को नियंत्रित रखते हुए आर्थिक विकास को गति देने की रणनीति पर काम कर रहा है। दरअसल सरकार ने आरबीआई को खुदरा महंगाई 2 फीसदी के घट-बढ़ के साथ 4 फीसदी पर रखने का जिम्मा दे रखा है। आरबीआई के लिए चिंता की सबसे बड़ी बात खाद्य मुद्रास्फीति है, जो पिछले कई महीनों से नीचे आने का नाम नहीं ले रही है। यही वजह है कि आरबीआई ने ब्याज दरों में कटौती से अभी के लिए परहेज किया। अक्टूबर में खुदरा महंगाई 6.21 फीसदी पहुंच गई यानी आरबीआई की सहनशक्ति के बाहर है। वर्तमान में महंगाई दर को संतुलित बनाए रखना आरबीआई की प्राथमिकता है। एमपीसी ने अनुमान लगाया है कि चालू वित्त वर्ष की तीसरी तिमाही में महंगाई दर 5.7 प्रतिशत और चौथी तिमाही में 4.5 प्रतिशत रहेगी। ऐसे में रेपो रेट को स्थिर रखने से महंगाई के दवाव को कम करने में मदद मिल सकती है।
वैश्विक अनिश्चितताओं और आपूर्ति श्रृंखला के व्यवधानों के बीच आर्थिक स्थिरता बनाए रखना आवश्यक है। रेपो रेट स्थिर रहने से बाजार में अनावश्यक अस्थिरता नहीं आएगी। पूर्व आरबीआई गवर्नर ने यह भी कहा था कि प्राइस स्टेबिलिटी क्रय शक्ति को प्रभावित करती है। रेपो रेट में बदलाव न करके आरबीआई यह सुनिश्चित कर रहा है कि उपभोक्ताओं और व्यवसायों को वित्तीय स्थिरता का लाभ मिले। सीआरआर (कैश रिजर्व रेश्यो) वह प्रतिशत है, जो बैंकों को अपनी कुल जमा का एक हिस्सा आरबीआई के पास रिजर्व के रूप में रखना होता है। इस बार आरबीआई ने सीआरआर में 50 बेसिस प्वाइंट की कटौती कर इसे 4 प्रतिशत कर दिया है। सीआरआर में कटौती से बैंकों के पास अतिरिक्त नकदी उपलब्ध होगी, जिससे वे अधिक ऋण प्रदान कर सकेंगे। लिक्विडिटी बढ़ने से बैंकों को उपभोक्ताओं और व्यवसायों को कर्ज देने में आसानी होगी, जिससे आर्थिक गतिविधियों को बल मिलेगा। छोटे और मध्यम उद्यमों (एसएमई) को कर्ज सुलभ होगा, जो रोजगार सृजन और आर्थिक विकास के लिए महत्वपूर्ण हैं।
आरबीआई की अन्य घोषणाओं में स्टैंडिंग डिपॉजिट फैसिलिटी (एसडीएफ) को 6.25 प्रतिशत पर स्थिर रखना और बैंक रेट व मार्जिनल स्टैंडिंग फैसिलिटी (एमएसएफ) को 6.75 प्रतिशत पर बनाए रखना शामिल है। ये घोषणाएं मौद्रिक नीति की स्थिरता और विकास के प्रति आरबीआई की प्रतिबद्धता को दर्शाती हैं। चालू वित्त वर्ष में महंगाई दर 5 प्रतिशत से नीचे रहने की संभावना है। वित्त वर्ष 2025-26 के लिए यह लिए यह अनुमान 4 प्रतिशत के करीच रखा गया है। यह दिखाता है कि आरबीआई का लक्ष्य है कि मुद्रास्फीति नियंत्रण में रहे और आम जनता पर इसका दबाव कम हो। आरबीआई के पूर्व गवर्नर ने कहा था कि सस्टेनेबल प्राइस स्टेबिलिटी आर्थिक विकास की नींव को मजबूत कर सकती है। यह दृष्टिकोण दीर्घकालिक विकास के लिए आवश्यक है। आरबीआई की मौद्रिक नीति वर्तमान में स्थिरता और संतुलन की ओर उन्मुख है। वैश्विक स्तर पर ब्याज दरों में उतार-चढ़ाव, तेल की कीमतों में अस्थिरता, और मुद्रा बाजार की चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए, आरबीआई अपनी नीतियों को संतुलित कर रहा है। रेपो रेट स्थिर रखने और सीआरआर में कटौती जैसे कदम अल्पकालिक और दीर्घकालिक लक्ष्यों के बीच संतुलन बनाते हैं। रेपो रेट स्थिर रहने से होम लोन और अन्य ऋणों की ईएमआई पर कोई अतिरिक्त भार नहीं पड़ेगा, जो उपभोक्ताओं के लिए राहत की बात है। सीआरआर में कटौती से बैंकों को अधिक लिक्विडिटी मिलेगी, जिससे लोन सुलभता में वृद्धि होगी। छोटे और मध्यम उद्यम (एसएमई) को कर्ज मिलने में आसानी होगी, जिससे रोजगार सृजन और आर्थिक गतिविधियों को प्रोत्साहन मिलेगा।
देखा जाए तो आरबीआई की मौद्रिक नीति ने स्थिरता बनाए रखने के लिए प्रभावी कदम उठाए हैं, लेकिन कुछ चुनौतियां अभी भी बनी हुई हैं, जैसे, अमेरिका और यूरोपीय देशों में आर्थिक मंदी की संभावना, वैश्विक तेल कीमतों में उतार-चढ़ाव, और आपूर्ति श्रृंखला में व्यवधान भारतीय अर्थव्यवस्था को प्रभावित कर सकते हैं। प्राइस स्टेविलिटी बनाए रखना आसान नहीं होगा, खासकर जब खाद्य और ऊर्जा की कीमतें अस्थिर हों। निजी क्षेत्र के निवेश में वृद्धि के लिए नीतिगत स्थिरता के साथ- साथ संरचनात्मक सुधारों की भी आवश्यकता होगी। दूसरी बात है कि सितंबर 2024 में समाप्त तिमाही के लिए जीडीपी विकास दर 5.4 प्रतिशत रही। इसने काफी निराश किया। इस गिरावट ने व्याज दरों में कटौती की मांग को और बल दिया है। हालांकि, जल्द ही स्थिति में सुधार होने की संभावना है। एचएसबपीसी रिसर्च रिपोर्ट की 100- संकेतकों के अध्ययन से पता चलता है कि अर्थव्यवस्था सकारात्मक गति से बढ़ रही है। भारत की विकास दर अब अधिक स्थायी लेकिन मजबूत स्तर पर सामान्य हो रही है। महंगाई दर अभी ऊंची है, लेकिन उम्मीद है कि जल्द ही इसमें नरमी आयेगी। मार्च तक 5 प्रतिशत से नीचे आ जाएगी। लगातार बाहरी अनिश्चितता के कारण फरवरी से शुरू होने वाले रेपो रेट कटौती साइकिल में कमी आ सकती है। आरबीआई के पूर्व गवर्नर दास के अनुसार बैंकों, एनबीएफसी के वित्तीय मापदंड मजबूत बने हुए हैं। वित्तीय क्षेत्र की सेहत सर्वोत्तम स्तर पर है। शक्तिकांत दास ने कहा था कि चालू खाता घाटा वित्त वर्ष 2025 में टिकाऊ स्तर पर रहेगा। भारतीय रुपया उभरती बाजार अर्थव्यवस्थाओं वाले अपने समकक्षों की तुलना में कम अस्थिर रहा है। आरबीआई विनियमित संस्थाओं पर केवल उन मामलों में व्यावसायिक प्रतिबंध लगाता है जहां पर्याप्त सुधारात्मक कार्रवाई दिखाई नहीं देती। उम्मीद यही है कि आने वाले समय में महंगाई पर अंकुश लगेगा। मगर इसमें कोई दो मत नहीं है कि आरबीआई की सस्टेनेबल प्राइस स्टेबिलिटी आर्थिक विकास की नींव को मजबूत कर सकती है। यह दृष्टिकोण दीर्घकालिक विकास के लिए आवश्यक है। संजय मल्होत्रा को यह दायित्व निभाना है। (हिफी)