सम-सामयिक

माओवाद के ताबूत में एक और कील

माओवादियों को अब समझ लेना चाहिए कि उनके सामने समाज की मुख्यधारा में शामिल होने के अलावा अन्य कोई रास्ता नहीं बचा है। आंध्र प्रदेश और तेलंगाना की सीमा पर माओवादियों से हुई मुठभेड़ मंे एक करोड़ का ईनामी माओवादी हिडमा और उसकी पत्नी मारे गये। इस मुठभेड़ मंे आधा दर्जन माओवादी ढेर हो गये है और उनका संगठन अब कमजोर हो गया है। ये माओवादी भारत देश की लोकतांत्रिक पद्धति से हिंसक लड़ाई लड़ रहे हैं। माओवादी माओत्से तुग (चीन के पूर्व राष्ट्रपति) द्वारा विकसित साम्यवाद का एक रूप हैं जो सशस्त्र विदेा्रह, जन संगठन और रणनीतिक गठबंधनों के माध्यम से राज्य-सत्ता पर कब्जा करना चाहते हैं। सामान्य लोगों को बरगलाने के लिए यह व्यवस्था पूंजीवाद और साम्राज्यवाद के विरुद्ध संघर्ष का ढिंढेरा पीटती है लेकिन जो लोग आत्मसमर्पण करके समाज की मुख्यधारा मंे शामिल हुए हैं, उन्हांेने बताया कि माओवादी भी सामंतवादियों की तरह ही शोषण करते हैं। इसीलिए अब तक हजारों लोग समर्पण कर चुके हैं और सरकार ने उनके पुनर्वास की अच्छी व्यवस्घ्था भी की है। समर्पण करने वालों के बच्चों का भविष्य तो निश्चित रूप से सुधर रहा है। माओवादियों को पता होना चाहिए कि किसी न किसी गोली पर उनकी मौत लिखी है जैसे 18 नवम्बर को हिडमा का अंत हो गया।
माओवादियों का शीर्ष नेता और सुरक्षा बलों द्वारा मोस्ट वांटेड हिडमा 18 नवम्बर मारा गया है। हिडमा के साथ उसकी पत्नी हेमा भी आंध्र प्रदेश-तेलंगाना सीमा पर हुई मुठभेड़ में मारी गई है। माओवादी हिडमा पर लगभग 1 करोड़ रुपये का इनाम घोषित था। आंध्र प्रदेश की सीमा से लगे जंगलों में माओवादियों की बढ़ती गतिविधियों की सूचना मिलने के बाद पुलिस ने तलाशी अभियान चलाया। इसके बाद माओवादियों ने गोलीबारी शुरू कर दी, जिसके बाद पुलिस ने भी जवाबी कार्रवाई की। इस मुठभेड़ में हिडमा और हेमा के साथ ही उन्हें सुरक्षा प्रदान कर रहे चार अन्य माओवादी भी मारे गए। छत्तीसगढ़ के सुकमा जिले के पुववर्ती गांव की आदिवासी जनजाति मुरिया से माड़वी हिडमा ताल्लुक रखता है। वह बाल संघ के जरिए माओवादी पार्टी में शामिल हुआ। अपने लोगों में विचारों का संचार करने वाले हिडमा ने माओवादियों द्वारा संचालित एक स्कूल में अपने विचारों की शुरुआत की। उसने किशन जी उर्फ भद्रन्ना के नेतृत्व में सशस्त्र संघर्ष में कदम रखा।
हिडमा जब जेगुरुगोंडा क्षेत्र बल का कमांडर था, तब उसने वरिष्ठ नेता नंबाला केशव राव के नेतृत्व में चिंतलनार-टेकुमेटला हमले का नेतृत्व किया। इस हमले में 76 सीआरपीएफ जवान मारे गए। इसके बाद हिडमा को माओवादी पार्टी में खास पहचान मिली। लगभग 25 साल पहले छिपने वाला हिडमा उस समय माओवादी पार्टी की केंद्रीय समिति का सबसे कम उम्र का सदस्य था। पिछले हफ्ते छत्तीसगढ़ के डिप्टी सीएम ने हिडमा की मां से मुलाकात की थी और हिडमा के सरेंडर की बात कही थी।
माओ, चीनी क्रान्तिकारी, राजनैतिक विचारक और साम्यवादी (कम्युनिस्ट) दल के सबसे बड़े नेता थे जिनके नेतृत्व में चीन की क्रान्ति सफल हुई। उन्होंने जनवादी गणतन्त्र चीन की स्थापना (सन् 1949) से मृत्यु पर्यन्त (सन् 1973) तक चीन का नेतृत्व किया। माक्र्सवादी-लेनिनवादी विचारधारा को सैनिक रणनीति में जोड़कर उन्होंने जिस सिद्धान्त को जन्म दिया उसे माओवाद नाम से जाना जाता है। वर्तमान में कई लोग माओ को एक विवादास्पद व्यक्ति मानते हैं परन्तु चीन में वे राजकीय रुप में महान क्रान्तिकारी, राजनैतिक रणनीतिकार, सैनिक पुरोधा एवं देशरक्षक माने जाते हैं। चीनियों के अनुसार माओ ने अपनी नीति और कार्यक्रमों के माध्यम से आर्थिक, तकनीकी एवं सांस्कृतिक विकास के साथ देश को विश्व में प्रमुख शक्ति के रुप में ला खडा करने में मुख्य भूमिका निभाई।
प्रारंभ में भारत में जहां वामपंथी आंदोलन पूर्व सोवियत संघ से प्रभावित था और इसे मॉस्को से निर्देशित किया जाता था लेकिन भारतीय वामपंथियों में एक ऐसा धड़ा बना जोकि समाज परिवर्तन के लिए खून खराबे और हिंसा को पूरी तरह से जायज मानता था। यही
आज का माओवाद है जोकि चीन से निर्देशित होता है। यह हिंसा और ताकत के बल पर समानान्तर सरकार बनाने का पक्षधर है और अपने उद्देश्यों के लिए किसी भी प्रकार की हिंसा को उचित मानते हैं।
माओवाद, चरमपंथी या अतिवादी माने जाने वाले तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग का ऐसा उत्तेजित जनसमूह है जोकि जंगलों से लेकर विश्वविद्यालय, फिल्म और मीडिया तक में सक्रिय है। माओवादी राजनैतिक रूप से सचेत सक्रिय और योजनाबद्ध काम करने वाले दल के रूप में काम करते हैं। उनका तथा मुख्यधारा के अन्य राजनीतिक दलों में यह प्रमुख भेद है कि जहां मुख्य धारा के दल वर्तमान व्यवस्था के भीतर ही काम करना चाहते हैं वहीं माओवादी समूचे तंत्र को हिंसक तरीके से उखाड़कर अपनी विचारधारा के अनुरूप नई व्यवस्था को स्थापित करना चाहते हैं। वे माओ के इन दो प्रसिद्ध सूत्रों पर काम करते हैं। माओ का कहना था कि राजनीतिक सत्ता बन्दूक की नली से निकलती है।
राजनीति रक्तपात रहित युद्ध है
और युद्ध रक्तपात युक्त राजनीति। भारतीय राजनीति के पटल पर माओवादियों का एक दल के रूप में उदय होने से पहले यह आन्दोलन एक विचारधारा की शक्ल में सामने आया था। पहले पहल हैदराबाद रियासत के विलय के समय फिर 1960-70 के दशक में नक्सलबाड़ी आन्दोलन के रूप में वे सामने आए।
भारत में माओवाद के कई कारण जिम्मेदार हैं। राजनीतिक कारणों की प्रतिक्रिया के तौर पर भारत में माओवाद असल में नक्सलबाड़ी के आंदोलन के साथ पनपा और पूरे देश में फैल गया। राजनीतिक रुप से मार्क्स और लेनिन के रास्ते पर चलने वाली कम्युनिस्ट पार्टी में जब अलगाव हुआ तो एक धड़ा भाकपा माक्र्सवादी के रुप में सामने आया और एक धड़ा कम्युनिस्ट पार्टी के रुप में। इनसे भी अलग हो कर एक धड़ा सशस्त्र क्रांति के रास्ते पर चलते हुए पड़ोसी देश चीन के माओवादी सिद्धांत में चलने लगा। भारत में माओवादी सिद्धांत के तहत पहली बार हथियारबंद आंदोलन चलाने वाले चारु मजूमदार के जब 70 के दशक में सशस्त्र संग्राम की बात कर रहे थे, तो उनके पास एक पूरी विरासत थी। 1950 से देखा जाए तो भारतीय किसान, संघर्ष की केवल एक ही भाषा समझते थे, वह थी हथियार की भाषा जिन्होंने जमींदारों के खिलाफ, ब्रिटिश सरकार के खिलाफ हथियार उठाया था। वर्ष 1919 में बिहार के चैराचैरी में 22 पुलिस वालों को जलाया गया था, उसमें भी सबसे बड़ी भागीदारी किसानों की थी।
माओवाद पनपने के आर्थिक कारण भी है। देश में विकास की बड़ी योजनाएं बड़ी संख्या में लोगों को विस्थापित कर रही हैं। अतीत में ये बड़े बांध थे लेकिन आज ये सेज (स्पेशल इकानामिक जोन) बन गए है।(अशोक त्रिपाठी-हिफी फीचर)

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